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शनि जयंती पर विशेष शनि पूजा से पाये लाभ,अचल लक्ष्मी, यश : जानिये ज्योतिर्विद रवीशराय गौड़ से

शनि जयंती मूहूर्त

अमावस्या तिथि आरंभ – 21 मई 2020 को रात्रि 9 बजकर 35 मिनट से
अमावस्या तिथि समाप्त – 22 मई 2020 रात्रि 11 बजकर 7 मिनट पर

शनि जयंती पर बन रहा दुर्लभ संयोग 

शनि जयंती पर इस साल ग्रहों की विशेष स्थिति रहेगी, जिसके कारण सालों बाद अत्यंत दुर्लभ संयोग बन रहा है। इस बार शनि जयंती पर चार ग्रह एक ही राशि में स्थित होंगे और इस दिन शनि मकर जो कि उनकी स्वराशि है, उसमें बृहस्पति के साथ रहेंगे। ग्रहों की ऐसी स्थिति सालों पहले बनी थी, और माना जा रहा है कि अब ऐसा संयोग अगले कई सालों तक बनेगा भी नहीं। 
शनि जयंती पर सूर्य देव, चंद्र, बुध और शुक्र एक साथ वृषभ राशि में विराजमान रहेंगे। इन 4 ग्रहों के एक साथ उपस्थित होने से जन-जीवन और देश की अर्थव्यवस्था के ऊपर काफ़ी प्रभाव पड़ेगा। इस स्थिति के कारण देश में न्याय और धार्मिक गतिविधियों में बढ़ोतरी होगी। साथ ही देश की कानून व्यवस्था व व्यापारिक नीतियों में भी बदलाव होगा और प्राकृतिक आपदाओं और महामारी से राहत पाने की दिशा में हमारे प्रयासों की सराहना होगी।

ज्येष्ठ महीने की अमावस्या को शनि जयंती पर्व मनाया जाता है। इस बार ये पर्व 22 मई, शुक्रवार को मनाया जाएगा। इस दिन ज्येष्ठ महीने की अमावस्या रहेगी। इसके साथ ही छत्र योग, कृतिका नक्षत्र और चंद्रमा अपनी उच्च राशि वृष में रहेगा। इस महत्वपूर्ण शनि पर्व पर भगवान शनिदेव की विशेष पूजा की जाती है। शनिदेव के शुभ प्रभाव पाने के लिए विशेष तरह के दान भी किए जाते हैं।

पंचांग के अनुसार प्रत्येक वर्ष शनि जयंती पर्व पर तिथि, नक्षत्र और ग्रहों की विशेष स्थिति बनती है। इसलिए दिन शनिदेव की पूजा का तो महत्व है ही साथ में इस दिन पितृ पूजा का भी विशेष महत्व बताया गया है। शनिदेव और उनके भाई यम दोनों की पूजा एक ही दिन हो ऐसा संयोग सिर्फ शनि जयंती पर आता है। क्योंकि इस दिन वट सावित्रि व्रत किया जाता है। इस व्रत में सावित्रि ने अपने सतीत्व से यमराज को प्रसन्न किया और अपने पति को फिर से जीवित कर दिया। इसलिए इस दिन घर के बाहर दक्षिण दिशा में यम के लिए दीपक लगाया जाता है।

शनि जयंती का महत्व

शनि जयंती यानी ज्येष्ठ महीने की अमावस्या को मनाई जाती है। सूर्य और चंद्रमा के नक्षत्र में ये पर्व मनाया जाता है यानी इस दिन चंद्रमा कृत्तिका या रोहिणी नक्षत्र में होता है। इस पर्व पर चंद्रमा उच्च राशि में सूर्य के साथ होता है।

स्कंदपुराण के अनुसार सूर्य और संवर्णा यानी छाया के पुत्र शनि है। इनके भाई मनु और यमराज है। ताप्ति और यमुना इनकी बहनें हैं। शनि जयंती पर भगवान शनिदेव के साथ यम, यमुना और ताप्ति की पूजा भी की जाती है।

इस पर्व पर भगवान शनिदेव की पूजा खासतौर से शाम को की जाती है। पश्चिम दिशा के स्वामी होने के कारण शनिदेव की पूजा करते समय पश्चिम दिशा में मुंह होना शुभ माना जाता है।

शनि जयंती पर्व पर सुबह तीर्थ स्थान पर या गोशाला में पितरों के लिए तिल से किए गए तर्पण का विशेष महत्व होता है। इस पूजा से पितृ दोष खत्म होता है और पितरों को तृप्ति भी मिलती है।

शनि जयंती पर सुबह पानी में शमी पेड़ के पत्ते, अपराजिता के नीले फूल औरतिल मिलाकर नहाया जाता है।

शनिदेव सूर्यदेव और माता छाया की संतान हैं। पिता सूर्य के द्वारा माता छाया के अपमान के कारण शनिदेव हमेशा अपने पिता सूर्य से बैर भाव रखते हैं। फलित ज्योतिष में शनि को अशुभ माना जाता है। इनका स्वरूप काला रंग और ये गिद्ध की सवारी करते हैं। इन्हे सभी ग्रहों में न्याय और कर्म प्रदाता का दर्जा प्राप्त है। मकर और कुंभ राशि के स्वामी शनि देव हैं। यह बहुत ही धीमी चाल से चलते हैं। यह एक राशि में करीब ढाई वर्षों तक रहते हैं। शनि की महादशा 19 वर्षों तक रहती है। मान्यता है शनि देव जिस किसी पर अपनी तिरक्षी नजर रख देते हैं उसके बुरे दिन आरंभ हो जाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें उनकी पत्नी ने शाप दिया था जिस कारण से शनि की नजर को बुरा माना जाता है। वहीं अगर शनि की शुभ दृष्टि किसी पर पड़ जाए तो उसका जीवन राजा के समान बीतने लगता है।

स्कन्द पुराण’ के अनुसार

शनिदेव सूर्यदेव और माता छाया की संतान हैं। पिता सूर्य के द्वारा माता छाया के अपमान के कारण शनिदेव हमेशा अपने पिता सूर्य से बैर भाव रखते हैं। फलित ज्योतिष में शनि को अशुभ माना जाता है। इनका स्वरूप काला रंग और ये गिद्ध की सवारी करते हैं। इन्हे सभी ग्रहों में न्याय और कर्म प्रदाता का दर्जा प्राप्त है। मकर और कुंभ राशि के स्वामी शनि देव हैं। यह बहुत ही धीमी चाल से चलते हैं। यह एक राशि में करीब ढाई वर्षों तक रहते हैं। शनि की महादशा 19 वर्षों तक रहती है। मान्यता है शनि देव जिस किसी पर अपनी तिरक्षी नजर रख देते हैं उसके बुरे दिन आरंभ हो जाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें उनकी पत्नी ने शाप दिया था जिस कारण से शनि की नजर को बुरा माना जाता है। वहीं अगर शनि की शुभ दृष्टि किसी पर पड़ जाए तो उसका जीवन राजा के समान बीतने लगता है।

एक ओर पौराणिक कथा के अनुसार श्री शनि भगवान के पिता जी सूर्य देव तथा माता संज्ञा हैं। ब्रह्मदेव के पुत्र दक्ष की कन्या, संज्ञा अत्यंत रूपवती थी। दक्ष ने अपनी कन्या संज्ञा की शादी सूर्यदेव के साथ कर दी। संज्ञा ने सूर्यदेव से दो पुत्र 1. दक्षिणाधिपति यम और 2. श्री शनिश्चर तथा 1. ताप्ती, 2. भद्रा, 3. कालिंदी, 4. सावित्री इन चार कन्याओं को जन्म दिया।

एक दिन संज्ञा सूर्यदेव का तेज सहन न कर सकीं इसलिए उन्होंने एक अपनी प्रतिरूप स्त्री का निर्माण किया और उसका नाम संवर्णा रख दिया। संज्ञा ने संवर्णा से कहा कि तू सूर्य के साथ पत्नी कर्तव्य का व्यवहार करके पूरी तरह सुख का उपभोग कर लेकिन एक बात ध्यान में रख कि यह सब किसी को भी मालूम न हो। यहां तक कि सूर्यदेव को भी नहीं। संकटकाल में मेरा स्मरण करने पर मैं तेरी मदद करूंगी, ऐसा कह कर संज्ञा अपने मायके लौट गई।

दक्ष ने संज्ञा को समझाया कि विवाहिता को अपने पति के साथ ही रहना चाहिए। भले-बुरे दिनों में भी अपने पति का साथ नहीं छोडऩा चाहिए। यदि ब्याही पुत्री को उसके माता-पिता अपने पास रखें तो माता-पिता को दोष लगता है इसलिए यहां न रहकर अपने पति के घर रहना ही उचित है। पिता दक्ष का यह विचार सुनकर संज्ञा को दुख हुआ, वह क्रोधित हुई और स्त्री जन्म को दोष देने लगी, तुरन्त ही संज्ञा ने अपने आपको घोड़ी के रूप में बदल लिया और निराहार तपस्या के लिए हिमालय पर्वत पर चली गई। संज्ञा के मायके चले जाने पर संवर्णा सूर्यदेव की घर गृहस्थी ठीक से चला रही थी। 
यथावकाश संवर्णा ने सूर्यदेव से 5 पुत्र और 2 कन्याओं को जन्म दिया। पुत्रियां 1. भद्रा, 2. वैधती और पुत्र 1 श्राद्धदेव, 2. मनु, 3. व्यतिपात, 4. कुलिका, 5. अर्थधाम। इस प्रकार संतति प्राप्ति तक सूर्यदेव को थोड़ा सा भी संदेह नहीं हुआ लेकिन एक दिन शनि भगवान को बहुत भूख लगी तो उसने अपनी माता संवर्णा से खाने के लिए मांगा। संवर्णा ने श्री शनि भगवान से कहा कि भगवान की पूजा होने दो, उन्हें नेवैद्य चढ़ाने के बाद तुम्हें खाने को दूंगी लेकिन शनि महाराज ने मुझे अभी खाना चाहिए ऐसा कह कर संवर्णा को लात दिखाई। उस वक्त संवर्णा ने शनि भगवान को शापित किया कि तेरा पैर टूट जाएगा।

यह सुनकर डर के मारे शनि भगवान ने पूरी घटना अपने पिता सूर्यदेव से बता दी। सूर्यदेव ने विचार किया कि माता अपने पुत्र को कभी भी शाप नहीं देती। यह अधर्म की बात असंभव है। सूर्यदेव ने ध्यान दृष्टि से देखा तो समझ गए कि यह संज्ञा नहीं है।

सूर्यदेव ने क्रोधित होकर संवर्णा से पूछा तू कौन है? सूर्यदेव को क्रोधित मुद्रा में देखकर संवर्णा डर के मारे पानी-पानी हो गई और उसने कहा, मैं संज्ञा की छाया संवर्णा हूं। संज्ञा तपस्या के लिए हिमालय पर्वत पर चली गई और मैं ही घर गृहस्थी का कर्तव्य निभा रही हूं।

तब सूर्यदेव ने शनि भगवान से कहा कि बेटा शनि संवर्णा तेरी माता के समान ही है, उसकी शापित बात व्यर्थ नहीं हो सकती है लेकिन अति बाधक भी नहीं होगी तो अब तेरा पैर का टुकड़ा न होकर वह टेढ़ी बन जाएगी (उसी वक्त से शनि भगवान का एक पैर टेढ़ा है)।

बाद में सूर्यदेव ने अंतर्दृष्टि से देखा तो संज्ञा हिमालय पर्वत पर घोड़ी के रूप में निराहार तपस्या कर रही है और रात-दिन सूर्यदेव का नाम जप रही है। सूर्यदेव अश्व रूप धारण कर संज्ञा से मिलने हिमालय पर्वत पर चले गए। तपस्या में ध्यानमग्र संज्ञा ने अश्व रूप में सूर्यदेव को देखा और कहा, ‘‘सूर्य के अलावा मुझे अन्य पुरुष दिखाई नहीं देता इसलिए यह अश्व सूर्यदेव ही है।’’

अश्व रूपी सूर्य को देख कर संज्ञा अत्यंत आनंदित हो उठी। उस वक्त संज्ञा ऋतुमति थी, सूर्यदेव का वीर्यपतन हुआ। वह वीर्य घोड़ी रूप संज्ञा ने नासिका विवा द्वारा ग्रहण किया। कालांतर में वह गर्भवती रही और उसने नासिका विवा द्वारा ही अश्वि देव और वैद्यस्वत नामक दो पुत्रों को जन्म दिया और अश्व रूप संज्ञा तथा सूर्य दोनों धरती पर अवतरित हुए।

हमें प्रकाश देने वाला सूर्य और उसके चारों ओर घूमने वाले नौ ग्रहों को मिलाकर सूर्यमाला स्थित है। उन नौ ग्रहों में से ही शनि एक हैं। सूर्यमाला में कुछ अंर्तग्रह और बहिग्रह हैं। शनि बहिग्रह हैं शनि के दस उपग्रह हैं।

ज्योतिष मैं शनि को सबसे क्रूर ग्रह माना गया है. परंतु शनि तो न्याय के देवता है. और वह हमें दंड हमारे कर्मों के अनुसार देते है। क्योंकि जैसा हमारा कर्म होगा वैसा हमें दंड मिलेगा. और शनि परम दयालु ग्रह भी है मेरे मतानुसार शनि के समान दयालु और हितैषी ग्रह कोई नहीं है क्योंकि शनि जो भी दंड देता है. वह दंड हमारे सुनहरे भविष्य की निर्माण करता है. शास्त्रों में शनि के विषय में क्या कहा गया है। शनि रंक को राजा और राजा रंक बना देता है।

यह भी सारभौमिक सत्य है कि राशि में अशुभ शनि हो तो जातक बहुत सी पीडा उठानी पडती है अधिकतर लोग शनि का साढेसाती से डरते है. और इस सृष्टि में 100 मे 99% लोग आज भी शनि साढेसाती और ढैय्या से ग्रस्त और उनका जीवन अधिक संघर्षमय और कष्टमय प्रतीत होता जैसा लगता है. कुछ ज्योतिषजन इस बात का फायदा उठाकर जातक के जीवन के साथ खिलवाड करते है. और लंबा चौडा पूजन विधान बताते है. और उनसे कराते है. जिससे जातक का धन और समय दोनों बर्बाद तो हो जाते है. और लाभ कुछ भी नहीं मिलता है. फिर जातक निराश होकर इधर उधर धक्के खाने लगता है.

आइये आज हम अत्यंत सरल चमत्कारी शनि की साधनाओ को रविशराय गौड़ ज्योतिर्विद से जानते है जिससे हमारा लोक परलोक सिद्ध हो।

शनि दोष निवारण के लिए नित्य भगवान् शिव के पंचाक्षर मंत्र ‘ॐ नमः शिवाय’ या ॐ नमो नारायण या श्री चित्रगुप्ताय नमः या नवार्ण मंत्र का जप प्रतिदिन अवश्य करना चाहिए तथा महामृत्युंजय मंत्र- ‘ॐ त्र्यंबकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनं उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्’ का जप भी शुभ होता है। यहां प्रस्तुत है शनिदेव के 5 चमत्कारी मंत्र जिन्हें शनिवार के दिन या शनि जयंती पर पढ़ने से हर कष्टों का अंत होता है। 

ॐ शन्नोदेवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये शन्योरभिस्त्रवन्तु न:।

ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:

मंत्र- ॐ ऐं ह्लीं श्रीशनैश्चराय नम:।

कोणस्थ पिंगलो बभ्रु: कृष्णो रौद्रोन्तको यम:।

सौरि: शनैश्चरो मंद: पिप्पलादेन संस्तुत:।।किसी भी विद्वान ब्राह्मण से या स्वयं शनि के तंत्रोक्त, वैदिक मंत्रों के 23,000 जाप करें या करवाएं।

आज का यह संयोग न केवल शनि दोषों से मुक्ति दिलाएगा, बल्कि जीवन के सभी कष्टों को दूर करने में भी सहायक रहेगा। शनि संबंधी सभी दोषों के निवारण करने में शनि मंत्र विशेष रूप से शुभ रहते हैं। अत: शनि अमावस्या अथवा शनिवार के शनि मंदिर में जाकर इन शनि के अन्य मंत्रों का जप स्मरण भी करना चाहिए।  

शनि के चमत्कारिक मंत्र : 

ॐ शं शनिश्चराय नम: 

ॐ धनदाय नम:

शनि नमस्कार मंत्र – ॐ नीलांजनं समाभासं रविपुत्रम् यमाग्रजम्। 

छाया मार्तण्डसंभूतम् तं नमामि शनैश्चरम्।। 

ॐ मन्दाय नम:

ॐ मन्दचेष्टाय नम:

ॐ क्रूराय नम:

ॐ भानुपुत्राय नम:

तांत्रिक शनि मंत्र-  ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः 

सिद्ध शनि तैतीसा यंत्र – ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः  

अपार लक्ष्मी प्राप्ति की कामना से इन मंत्रों का जाप करने से घर में सुख-समृद्धि बनी रहेगी तथा आपको मनचाहे धन की प्राप्ति होगी। 

शनि की विशेष साधना

बीज मंत्र- ‘शं’ लिखकर अपने पास रख सकते हैं या काम की जगह पर भी लगा सकते हैं। वैदिक मंत्र- ‘ऊँ शं शनैश्चराय नम:’ मंत्र का जाप सुबह-शाम 108 बार करने चाहिए। इससे शनि कभी नाराज नहीं होगें।

तांत्रिक मंत्र- शनि की दशा लगी है तो ‘ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:’ मंत्र का जाप करना चाहिए।

शनि पूजा मंत्र

ॐ नीलांजन नीभाय नम:
ॐ नीलच्छत्राय नम:

शन्नो देवीति मंत्रस्य सिन्धुद्वीप ऋषि: गायत्री छंद:, आपो देवता, शनि प्रीत्यर्थे जपे विनियोग, इस मंत्र का पाठ करते हुए क्रमानुसार अपने सिर, माथे, मुख, कण्‍ठ, ह्रदय, नाभि, कमर, छाती, घुटने और पैरों का स्‍पर्श करें।  

तीसरा शनि गायत्री मंत्र

औम कृष्णांगाय विद्य्महे रविपुत्राय धीमहि तन्न: सौरि: प्रचोदयात।

चौथा शनि वेद मंत्र
औम प्राँ प्रीँ प्रौँ स: भूर्भुव: स्व: औम शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये शंय्योरभिस्त्रवन्तु न:.औम स्व: भुव: भू: प्रौं प्रीं प्रां औम शनिश्चराय नम:।

पांचवां जप मंत्र
ऊं प्रां प्रीं प्रौं स: शनिश्चराय नम:। 

अद्भुत शनि स्तोत्र भी हमें प्राप्त होता है जिसका पाठ करने से कई साधकों को लाभ हुआ है यह मेरा अनुभव है

 शनि स्तोत्र

नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च। नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च। नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:। नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम:।

शनि के दस नाम का जो पाठ करता है उसके जीवन में यश उसके साथ साथ चलता है

शनि दश नाम

कोणस्थ: पिंगलो बभ्रु: कृष्णो: रौद्रोSन्तको यम: ।
सौरि: शनैश्चरो मन्द: पिप्पलादेन संस्तुत: ।।
एतानि दश नामनि प्रातरुत्थाय य: पठेत्।
श्नैश्चरकृता पीडा न कदाचि विष्यति ।।
 
1)कोणस्थ:, 2) पिंगल:, 3)बभ्रु:, 4)कृष्ण:, 5) रौद्रान्तक:, 6)यम:, 7) सौरे:, 8) शनैश्चर:, 9) यम:, 10)पिप्पलादेन संस्तुत: ।

उपरोक्त लिखे शनि के दस नामों का प्रात:काल पाठ करने से शनि संबंधित कभी कोई कष्ट नहीं होता है और नि:संदेह शनि देव की कृपा सदा बनी रहती है. जिन लोगों पर शनि कृपा है या नहीं है, सभी को इसका पाठ करना चाहिए

शनि स्तुति का पाठ करने से परिवार में एक अद्भुत आनंद के वातावरण का निर्माण सहज हो जाता है

शनि स्तुति

शनि स्तुति का पाठ शनि ग्रह की पीड़ा के असर को कम करता है। जितनी अधिक श्रद्धा से उपाय किए जाए उतनी ही शुभ फलों की प्राप्ति होती हैं।

नमः कृष्णाय नीलाय शितिकंठनिभाय च।
नमः कालाग्रिरूपाय कृतान्ताय च वै नमः।।
नमो निर्मासदेहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते।।
नमः पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णे च वै पुनः।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदष्ट्रं नमोस्तुते।।
नमस्ते कोटरक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नमरू।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय करालिने।।
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोस्तुते।
सूर्यपुत्र नमस्तेस्तु भास्करेअभयदाय।।
अधोदृष्टे नमस्तेस्तु संवर्तक नमोस्तुते।
नमो मंदगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोस्तुते।।
ज्ञान चक्षुर्नमस्तेस्तु कश्पात्मजसूनवे।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रूष्टो हरिस तत्क्षणात्।।

महाराज दशरथ द्वारा जो शनि की स्तुति की गई है वह दशरथ कृत शनि स्तोत्र के रूप में प्राप्त होती है बहुत अद्भुत है उसका जो भी साधक बात करता है वह अतुल ऐश्वर्या का स्वामी होता है
शनि की पीड़ा से मुक्ति के अकसर लिए दशरथकृत शनि स्तोत्र का पाठ करने का परामर्श दिया जाता है.
यदि इस शनि स्तोत्र के साथ दशरथकृत शनि स्तवन का पाठ भी किया जाए तो अत्यंत लाभकारी सिद्ध होता है.

यहाँ स्तवन का तात्पर्य – अत्यन्त विनम्र भाव से पूरी तरह समर्पित होकर शनि देव की स्तुति करना है.
शनि स्तोत्र और शनि स्तवन के पाठ से व्यक्ति को जीवन में कभी दुबारा शनि द्वारा कष्ट नहीं मिलता.
विनियोग :
ऊँ अस्य श्रीशनैश्चरस्तोत्रमंत्रस्य दशरथऋषि: । त्रिष्टुप् छन्द: श्रीशनैश्चरो देवता शनैश्चरप्रीत्यर्थे पाठे विनियोग: ।
व्यक्ति को अपने दाएँ हाथ में जल लेकर विनियोग करना चाहिए और इसके बाद शनि महाराज का ध्यान करते हुए शनि स्तवन का पाठ आरंभ करना चाहिए.

दशरथ उवाच

कोणोSन्तको रौद्रायमोSथ बभ्रु: कृष्ण: शनि: पिंगलमन्दसौरी:
नित्यं स्मृतो यो हरते च पीडां तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय ।।1।।
अर्थ – दशरथ जी ने कहा – कोण: अन्तक:, रौद्रयम:, बभ्रु:, कृष्णशनि, पिंगल:, मन्द:, सौरि:, इन नामो का नित्य स्मरण करने ससे जो पीड़ा का नाश करता है उस शनिदेव को नमस्कार है.
सुराSसुरा: किं पुरुषोरगेन्द्रा गन्धर्व विद्याधरपन्नगाश्च ।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय ।।2।।
अर्थ – देवता, असुर, किन्नर, उरगेन्द्र(सर्पराज), गन्धर्व, विद्याधर, पन्नम – ये सभी जिस शनि के विपरीत होने पर पीड़ित होते हैं ऎसे शनि को नमस्कार है.
नरानरेन्द्रा: पश्वो मृगेन्द्रा वन्याश्च ये कीटपतंगभृंगा: ।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय ।।3।
अर्थ – राजा, मनुष्य, सिंह, पशु और जो भी वनचर हैं, इनके अतिरिक्त कीड़े, पतंगे, भौंरे ये सभी जिस शनि के विपरीत होने पर पीड़ित होते हैं, ऎसे शनिदेव को नमस्कार है.
देशाश्च दुर्गाणि वनानि यत्र सेनानीवेशा: पुरपत्तनानि ।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय ।।4।
अर्थ – देश, किले, वन, सेनाएँ, नगर, महानगर भी जिस शनि केव विपरीत होने पर पीड़ित होते हैं, ऎसे शनिदेव को नमस्कार है.

तिलैर्यवैर्मार्षगुडान्नदानैलोर्हेन नीलाम्बरदानतो वा ।
प्रीणाता मन्त्रैर्निजवासरे च तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय ।।5।।
अर्थ – तिल, जौ, उड़द, गुड़, अन्न, लोहा, नीले वस्त्र के दान और शनिवार के दिन अपने स्तोत्र के पाठ से जो प्रसन्न होता है, उस शनि को नमस्कार है.
प्रयागकूले यमुना तटे च सरस्वती पुण्य जले गुहायाम्।
यो योगिनां ध्यानगतोSपि सूक्ष्मस्तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय ।।6।।
अर्थ – प्रयाग में, यमुना तट में, सरस्वती के पवित्र जल में या गुहा में जो योगियों के ध्यान में गया हुआ सूक्ष्मरूपधारी शनि है, उसको नमस्कार है.
अन्य प्रदेशात्स्वगृहं प्रविष्टस्तदीयवारे स नर: सुखी स्यात्।
गृहाद्गतो यो न पुन: प्रयाति तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय ।।7।
अर्थ – दूसरे स्थान से यात्रा करके शनिवार के दिन अपने घर में जो प्रवेश करता है, वह सुखी होता है और जो अपने घर से बाहर जाता है वह शनि के प्रभाव से पुन: लौटकर नहीं आता है, ऎसे शनिदेव को नमस्कार है.
स्रष्टा स्वयं भूर्भुवनत्रयस्य त्राता हरीशो हरते पिनाकी ।
एकस्त्रिधा ऋग्यजु: साममूर्तिस्तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय ।।8।
अर्थ – यह शनि स्वयम्भू हैं, तीनों लोकों के स्रष्टा(सृष्टिकर्ता) और रक्षक हैं, विनाशक हैं तथा धनुषधारी हैं. एक होने पर भी ऋगु:, यजु: तथा साममूर्ति हैं, ऎसे सूर्यपुत्र के लिए नमस्कार है.
शन्यष्टकं य: प्रयत: प्रभाते नित्यं सुपुत्रै पशुबान्धवैश्च।
पठेत्तु सौख्यं भुवि भौगयुक्त: प्राप्नोति निर्वाणपदं तदन्ते ।।9।।
अर्थ – शनि के इन आठ श्लोकों को जो अपने पुत्र, पत्नी, पशु और बान्धवों के साथ प्रतिदिन पढ़ता है, वह इस लोक में सुखभोग प्राप्त कर अन्त  में मोक्ष प्राप्त करता है.

आज का शनि जयंती के पावन पर्व पर मैं आपको विशेष साधनों के माध्यम से उन्नति के पथ पर ले जाने का प्रयास कर रहा हूं

यह उपाय जीवन की पूर्णता प्रदान करते है. साधक को निम्न लाभ प्राप्त होने लगते है.

    शनि साधना कर साधक सर्वत्र कार्य में अजेय हो जाता है और फिर उसके सामने सभी सभी सफलताएं उसके चरण चिंता हैं.
      ऊपर बतलाई गई विधि से जो साधना करता ही साधक का व्यक्तित्व अत्यधिक आकर्षक एवं भव्य हो जाता है, उसके इर्द-गिर्द एक तेज युक्त आभा मण्डल निर्मित हो जाता है, जिससे उसके आस-पास के लोग स्वतः उसकी ओर आकर्षित होने लगते हैं और उसकी हर आज्ञा  का बिना किसी कटाक्ष के पालन करते है..
    इन साधना सिद्ध होते ही या यंत्र धारण करते ही व्यक्ति की दरिद्रता, रोग, शत्रुभय, ऋण आदि स्वतः ही नष्ट हो जाती है…..
   व्यक्ति के घर में निरन्तर धन का आगमन होता ही रहता है, नौकरी, इंटरव्यू, परीक्षा और अदालत आदि के कार्य में निश्चित सफलता मिलती है.
   ? व्यवसाय मैं पूर्ण तरक्की होने लगती है और अगर नौकरी पेशा वाला साधक हो तो  उसकी पदोन्नति शीघ्र होती है.
   इस उच्चकोटी की साधना के प्रभाव से घर में सुख शांति का विकास होता है  और यदि किसी ने घर पर तांत्रिक प्रयोग करके रखा है, या कोई ऊपरी बाधा या तांत्रिक अभिचार कर्म है तो वह नष्ट हो जाता है.
    सबसे बडी बात इस यं साधना की यह है कि यदि कुंडली  मैं निर्मित अनिष्ट योग हो तो वे फलहीन हो जाते है, अगर दुर्घटना एवं अकाल मृत्यु का योग हो तो वे भी अल्प हो जाते है.
      साधना करने के प्रभाव से साधक जिस कार्य में हाथ डालता है, उसमें उसे सफलता मिलती है.
    ऐसा व्यक्ति समाज में सम्माननीय एवं पूज्यनीय होता है, उच्चकोटी के लोग एवं अधिकारी भी उसकी बात को मानते है. और सम्मान करते है.
      साधक सभी का प्रिय हो जाता है, और जीवन भर में उसे किसी भी वस्तु का अभाव नहीं रहता.
     इसके साथ ही साथ उसका पारिवारिक जीवन भी अत्यंत सुखी हो जाता है, यदि कोई क्लेश व्याप्त हो तो वह समाप्त हो जाता है.
      साधक की समस्त इच्छाएं व कामनाएं पूर्ण होती  है और वह स्वयं भी आश्चर्य चकित रह जाता है, कि किस प्रकार से उसकी सारी अभिलाषाएँ स्वतः ही पूर्ण हो जाएगी।

सर्वे भवंतु सुखिनः

रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद

एन सी आर खबर ब्यूरो

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