“अजमेर 92”, “बंगाल डायरी” और “सावरकर” के बाद “72 हूरें” ये बड़ी तेजी से आनेवाली फिल्में हैं। इन फिल्मों के रिलीज अंतराल इतने भी नहीं हैं, कि इन व्यापक मुद्दों पर उठने वाले डिस्कोर्स को संभाला जा सके। इसी से पता चलता है कि इन फिल्मों की कितनी अहमियत है। जबकि ये फिल्में गिनती की फिल्में हैं। इस ट्रेंड की शुरुआत “द कश्मीर फाइल्स” से हुई है।
बॉलीवुड के मेनस्ट्रीम बैनरों से ये फिल्में नहीं बन रहीं। ये फिल्में बॉलीवुड में हाशिए पर काम करने वाले लेकिन मेधावी लोग तैयार कर रहे हैं। इन फिल्मों का मजबूत स्पॉन्सर अथवा कोई गॉडफादर ना होना ही इसकी सबसे बड़ी ताकत भी है। “साहित्य जिहाद” के तहत बॉलीवुड में फिल्मों को लेकर जितना काम किया गया, सब नियोजित तरीके से और कृत्रिम रूप में किया गया। कश्मीर फाइल्स ट्रेंड की अपकमिंग फिल्में बिल्कुल नेचुरल और ऑर्गेनिक हैं।
हिंदू समाज में 2023 के स्तर पर भी बहुत सारी खामियां हो सकती हैं लेकिन जिहादी मानसिकता के खिलाफ साहित्य के स्तर पर जिस मजबूती से मुकाबला किया जा रहा, यह स्वीकार करने वाली बात है। तिस पर भी यह मुकाबला कोई स्पॉन्सर्ड नहीं है। इस कारण गिनती की चार पांच फिल्में भी ऐसा लग रहा बॉलीवुड के तमाम ऐतिहासिक फिल्मों पर भारी पड़ रही हैं।
हिंदू समाज अपने आप में एक प्राकृतिक समाज है। जबकि मजहब समुदाय अथवा संगठन हो सकता है, जो बड़े ही नियोजित और इनऑर्गेनिक रूप से खड़ा होता है। तभी वह किसी भी स्वतंत्र और व्यापक समाज के लिए चुनौती बनता है तथा मुकाबले में भारी भी पड़ता है। लेकिन जब कोई समाज जाग जाता है, तब उसकी स्वत:स्फूर्त ताकत का मुकाबला करने की क्षमता किसी भी संगठन, शक्तियों अथवा समुदायों में नहीं होती। हिंदू समाज जब इस चुनौती का सामना जन जागरण से करने के लिए संकल्पित हो चुका है।
बॉलीवुड ने जिस प्रकार स्पॉन्सरशिप की ताकत पर जिहादी खेल का एक मायाजाल तैयार किया था, अब हासिये के प्रोड्यूसर और डायरेक्टर्स की फिल्मों का भी मुकाबला नहीं कर पा रहा। यही स्वत:स्फूर्त ताकत की विशेषता है। यही हिंदू समाज में जन जागरण से उठने वाली शक्ति का प्रतिदर्श भी है
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