लालू ने कालजयी बयान देकर मेरा मन जीत लिया है कि —सभ्य लोग मांस नहीं खाते हैं।
यही वह वाक्य है जिसे मैं खोज रहा था।
दरअसल मांसाहार को धर्म के आधार पर ख़ारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि सभी धर्मों के लोग इस खाते रहे हैं।
लालू के इस बयान से गोमांस खाने का पूरा मसला निर्णायक मोड़ पर ले जाया जा सकता है।बौद्धिक रूप से तो मुझे निष्कर्ष मिल गया है।
मांस खाना तो असभ्यता का परिचायक है जबकि गोमांस खाना असभ्यता के साथ साथ कुसंस्कृत होने की भी निशानी है।
मांसाहार सभ्यता और संस्कृति की समस्या है।धर्म का इससे कोई लेना देना नहीं है।चूँकि भारत की संस्कृति और सभ्यता करुणा प्रेम उदरीय और सादगी की रही है।तथा भोगी अन्धभौतिक्तावाद को यहाँ कम श्रेष्ठकर मन जाता है ।उसमे जीने वाला भी उसे श्रेष्ठ नहीं समझता।
इसलिए मांसाहार करने वालों को सभ्य न कहने की बात बिलकुल सही है और इसी तरह गोमांस खाने वालों को असभ्य और कुसंस्कृति वाला कहना हर तरह से उचित हीग।यह भारत की मानक जीवन शैली ,भारतीय सभ्यता और संस्कृति के आदर्शों के प्रतिकूल आचरण है।इसकी तारीफ नहीं निंदा करने की जरूरटी है।यैसे लोग जो खुलेआम इसको खाने की बात गर्वोन्मत्त होकर कह रहे हैं ।उनको शर्मिंदा और निम्नतर बताने की जरूरत है।हाँ बस शब्दों से।तर्कों से।उतना ही काफी होगा।
लेकिन इसके बावजूद एक लोकतान्त्रिक मुल्क में संविधान घर की चाहरदिवारी के अंदर कौन क्या खाता है ?पीता है।उसे रोकने का अधिकार किसी को नहीं है।हाँ लेकिन याद रहे सार्वजनिक प्रदर्शन और इसका परचार प्रसार पर जरूर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाया जा सकता है।
लालू जी की जय हो।आपके हजार खून माफ़ !
लालू ने कालजयी बयान देकर मेरा मन जीत लिया है कि —सभ्य लोग मांस नहीं खाते हैं।यही वह वाक्य है जिसे मैं खोज रहा था।दर…
Posted by श्रीनिवास मनोज शंकर on Saturday, October 3, 2015