मैंने कई प्रगतिशील सोच वाले लोगों की पोस्ट देखी जिसमें कांवर यात्रा को समय और श्रम की बरबादी तथा पाखंड बताने का प्रयास किया गया।
मेरी राय अलग है। जब हम समय को नंगा करेंगे तो पाएंगे कि नब्बे प्रतिशत लोग केवल अपने लिए जीते हैं। माइक्रोसॉफ्ट में नौकरी हो , या तहसीलदार , इंजिनियर बनना या परचून की दुकान चलाना।जो इनमें अंतर समझ रहे हैं मुझे लगता है वो भ्रम में हैं।सब अपने लिए ही जी रहे हैं। कोई नैनीताल घूमने जा रहा कोई मुनस्यारी कोई स्विट्जरलैंड। आप एक माह के यूरोप टूर पर जाएं तो ठीक है लेकिन कोई पांच दिन की कांवर यात्रा पर जाएं तो समय की बरबादी। मैं तो कभी गया नहीं लेकिन मन है कि इस उमंग , उल्लास , आनंद की कांवर यात्रा का कभी मैं भी हिस्सा बनूं।
अगर यात्रा वेटिकन , जेरुसलम मक्का की हो तो पवित्र लेकिन अपने देश , अपनी संस्कृति , परंपरा , आस्था , विश्वास के लिए हो तो गलत। जिनकी आस्थाएं बाहर जमी है उन पर टिप्पणी न करूंगा लेकिन एक बात बताऊं अपना देश फूस का है , बोलें तो vulnerable to fire है। आग की स्थिति में यही लोग बाल्टी में भरकर रेत या पानी डालेंगे , माइक्रोसॉफ्ट वाले से तहसीलदार , कलट्टर , इंजीनियर , परचून वाले से कोई उम्मीद मत रखिए।
अक्सर लोग कहते हैं कि सरकारी स्कूलों में अगर बड़े लोगों के बच्चे पढ़ने लगे तो स्कूलों की स्थिति सुधर जाएगी , यह बात सही है । इसी तरह मुझे लगता है कि अगर बड़े लोगों के बच्चे भी इन कांवर यात्राओं का हिस्सा बनने लगे तो स्थितियां बेहतर हो जाएंगी।
आलोचना में लोग कहेंगे कि यह लोग बीड़ी , शराब पीते हैं। बड़े लोग क्या सिगरेट शराब नहीं पीते ? पीने दीजिए क्या फर्क पड़ता है , यह चीज़ें देश में प्रतिबंधित तो है नहीं और फिर शराब ही तो पीते होंगे , किसी मासूम का गला तो नहीं रेतते , खून तो नहीं पीते।
समाज इन कांवर यात्राओं का महत्व समझे , अगर हम यात्रा पर न जा सके तो एक दिन पंडाल लगवाकर कुछ कांवरियों को खाना खिलाएं , नाश्ता कराएं , रुकने की समुचित व्यवस्था करें , कुछ फल ही बांट दें , पानी की बोतलें ही दे दें । घर की चिंता फिकर , जीवन की आपाधापी , भागमभाग से दूर चार छह दिन की इस यात्रा को जीने का अनुभव सच में अनूठा होता होगा।
एक आदरणीय मित्र ने एक पोस्ट में लिखा था कि चलते चलते सिकंदर एक संन्यासी के पास पहुंच गया। संन्यासी का आनंद , उल्लास , तृप्ति , शांति देखकर उसने कहा ईश्वर अगला जन्म मुझे इसी तरह का देना। मैं नहीं कह रहा कि घर बार छोड़ कर संन्यासी हो जाया जाए लेकिन कुछ समय , अर्जित धन का कुछ हिस्सा धर्म संस्कृति परंपराओं , रीति-रिवाजों को जीवित रखने में लगे लोगों पर अर्पित किया जाए।
तो इस कांवर यात्रा को यूरोप टूर की तरह लीजिए ।यह यात्राएं समाज को एक सूत्र में भी पिरोती है , परंपराओं को जिंदा रखती है । इनके हाथ में लहराता तिरंगा मजबूरी में थामा हुआ नहीं होता है। इनकी आस्थाएं इसी देश की माटी से जुड़ी है , मक्का या वेटिकन से नहीं।
हर हर महादेव
लेख गोविंद नारायण सिंह के फेसबुक पोस्ट से लिया गया है । NCRKhabar का लेख से सहमत होना आवश्यक नही है