अभी दो दिन पहले एक “ज़रूरी वाले फ्रेंड” के साथ दीपावली की शॉपिंग करने मार्केट गया था। भइया बड़ी भीड़ थी। अबे जिस चीन और उसकी घुसबैठ की हमारे “प्रधानमन्त्री” कड़े शब्दों में निंदा करते हैं ससुरा वही चीन पूरी मार्केट में छाया था “बाई गॉड की कसम” सारी मार्केट में बस “बिन चिपटी नाक और छोटी हाइट” का चीन ही था “चाइनीज प्रोडक्ट्स के फॉर्म में”… क्या झूमर,क्या झालरें, क्या दिए, क्या कैंडल क्या गिफ्ट आइटम सब में “मेड इन चाइना”।
मैं मार्केट का दौरा कर ही रहा था तभी मेरी नज़र कोने में बैठे एक छोटे दुकानदार पर पड़ी… अंधेरा था कुछ साफ दिखा नहीं लेकिन फिर भी By Looks और उसकी Dressing Style से साफ़ पता चल रहा था वो मारवाड़ी है। बहरहाल मुझसे रहा नहीं गया, “इमोशनल फूल” हूं मैं… दिमाग की न सुनते हुए, दिल की आवाज़ पर उस दुकानदार की तरह गया और वहां जा कर खड़ा हो गया।
अभी मैं खड़ा हुआ ही था कि मानों उसकी सूखी आंखों में चमक वापस आ गयी। अपनी खैनी थूक के … (हां-हां-हां वही “हंस” मार्का खैनी जो वो खा रहा था, थूक के ) मुझसे मुखातिब हुआ। वो मुझे ऐसे देख रहा था मानों मैस्कुलिन जेंडर में साक्षात “लक्ष्मी” खड़ी हों उसके सामने, फिर अचानक वो अपनी मारवाड़ी टोन में मुझको हिंदी भाषी समझकर बोला ” हां मालको बोलो के चाहिए” (उसका बस चलता तो दस मिनट में मुझे पूरी दुकान दिखा देता इतना खुश था वो)”
मैंने और मेरे मित्र ने भी एक अच्छे ग्राहक की तरह कुछ दिए देखे और खरीद लिए फिर चेंज लेने के दौरान मैंने उससे पूछा “बाबा धंधा कैसा चल रहा है दीवाली पे… बस इतना सुनना था मानों उस मारवाड़ी को सांप सूघ गया। उसकी जुगनू की तरह जगमगाती आंखें लगभग पथरा गयी “उसने जो मुझे बताया वो मेरे लिए उतना ही दुखद था ठीक वैसे जब पाकिस्तान हमारे बॉर्डर पर हमला कर हमारे निर्दोष फौजियों को बेहरहमी से क़त्ल कर देता है।
उस मारवाड़ी ने मुझसे कहा “मालको” बैंगलोर आये आज 10 दिन हो गए सोचा यहां आकर कुछ पैसे कमा लेंगे पर यहां तो लेने के देने पड़ गए। बिक्री के नाम पर बस खाली बैठे हैं। यहां तो पूरे बाज़ार में वो “बिदेस” के “चाइना की झालरें” बिक रही हैं हम छोटे लोगों की क्या हैसियत यहां “असल” नहीं निकल रहा “सूद” क्या निकलेगा। इतने में दुकान पर मेरी ही तरह एक कस्टमर और आया मारवाड़ी ने उसे वही एटीट्यूड दिखाया जो अभी कुछ पल पहले उसने मुझे दिखाया था। और वो लग गया उसकी सेवा में। मैं भी अपने रास्ते हो लिया। और ऑटो पकड़ के घर आ गया। ऑटो में घर आ रहा था तभी एक विचार मन में आया
…” क्या अब दीवाली कैडबरी और हल्दीराम के डिब्बों तक सीमित हो गयी है और दीवाली का वो ख़ास बाजार चाइनीज झालरों और झूमरों तक सिमट चुका है शायद जवाब “हां” ही हो। आज भी मुझे वो बचपन का दौर याद है जब मैं नैनीताल में था और हमारे पड़ोस में रहने वाले बिष्ट अंकल, गर्ग आंटी, लोहनी भइया, गर्बियाल चाचा घर पर मिठाइयों और ड्राई फ्रूट के साथ लइय्या और गट्टे भिजवाते थे।
यकीन मानिये पर्सनली उन लइय्या और गट्टों का इंतज़ार मुझे इस कद्र था कि क्या कहूँ मैं इनका ऐसे ही वेट करता था जैसे में सिवइयों और शीर का … कितना दिलचस्प और न जाने कितनी यादें लिए हुए है वो बचपन का दौर, जब अग्रवाल अंकल के लड़के के हाथी से मेरा शक्कर का ऊँट रेस करता था रेस चाहे कोई भी जीते उसका हाथी मैं खाता मेरा ऊंट वो… शायद वो और एक ऐसा दौर था जब हम त्योहार और धर्म को सिंवईयों, रंगों, दियों, मिटटी के खिलौनों और मिठाईयों की शक्ल में जानते थे।
मजे की बात ये है कि बकायदा हमें इस बात की पूरी ट्रेनिंग दी जाती थी कि कैसे त्योहारों को मनाया जाये। खैर … शायद हम उस सभ्यता की वो आखिरी पैदावार थे जिन्हें त्योहारों को संजोना विरासत में मिला। लेकिन विडम्बना देखिये हम इस ट्रेडिशन को शायद आगे न ले जा सके।
आज त्योहार कॉम्पैक्ट और हमारा उस त्योहार को मनाने का ढंग कम्प्रेस्ड हो गया है। हम अब बिजी हो गए हैं। बेमतलब में आने वाले मेहमानों से हमें उलझन सी होने लगी है अब कौन झेले इन मेहमानों को। आएँगे और फिर शुरू वही बेवजह की बातें और फिर टाइम वेस्ट इससे अच्छा तो इस दीवाली पर हम किसी मॉल में जाकर कृष – 3 और और कोई नयी फ़िल्म देखने के बाद वही फ़ूड कोर्ट में परिवार संग डिनर कर लेते त्योहार का त्योहार एंजॉयमेंट का एंजॉयमेंट
चलिए मित्रों अब चला जाए बहुत दे दिया आपको ज्ञान और सुना दी राम कहानी “विश यू ऑल ए वेरी हैप्पी एंड सेफ़ दीपावली – एन्जॉय योर डे