राकेश कायस्थ I कोरोना काल में राजधानी दिल्ली अपने आप में एक केस कस्डटी है। केस स्टडी हर बड़ा शहर है लेकिन दिल्ली की बात मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि विमर्श के केंद्र में राजनीति भी है।
दिल्ली में दो-दो सरकारें हैं और दोनों ना भूतो ना भविष्यति वाली। मोदी और केजरीवाल में समानता यह है कि दोनों ने अपनी-अपनी ऐतिहासिक जीत को अविश्वसनीय ढंग से दोहराया है।
केजरीवाल ने तो जीत ही स्कूल और अस्पतालों के नाम पर हासिल की है। दूसरी तरफ मोदी हैं, जिनके समर्थक यह मानते हैं कि उनके नेता कभी कोई गलती कर ही नहीं सकते।
आम आदमी पार्टी के दावे के हिसाब से दिल्ली का हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर पिछले पाँच साल में देश के बाकी राज्यों की तुलना में बहुत अच्छा हो गया है।
दूसरी तरफ दिल्ली में केंद्र सरकार के अकूत संसाधन हैं। अब दिल्ली की स्थिति देख लीजिये। इस अस्पताल से उस अस्पताल दौड़ते मरीज सड़क पर मर रहे हैं। प्राइवेट अस्पताल लूट रहे हैं, सरकारी अस्पतालों में जगह नहीं है। कनफ्यूजन बेशुमार है, ऐसा क्यों हो रहा है?
ऐसा इसलिए है कि क्योंकि दोनों सरकारों की लड़ाई कोरोना से नहीं है बल्कि एक-दूसरे के खिलाफ परसेप्शन गेम जीतने की है।
केजरीवाल ने नारा बुलंद किया कि बाहर वालों का दिल्ली में इलाज नहीं होगा। यह बयान बेतुका लग सकता है लेकिन अपने वोटरों को खुश करने के लिए ज्यादातर क्षेत्रीय नेता ऐसे बयान देते हैं। येदियुरप्पा ने भी कर्नाटक में बाहर के मरीजों के आने पर रोक लगाने की बात कही है। केजरीवाल का
एकमेव लक्ष्य यही था कि दिल्ली के वोटर ये मानें कि उनके नेता पहले उनकी चिंता करते हैं।नरेंद्र मोदी को यह साबित करना था कि वो राष्ट्रीय नेता हैं, इसलिए उन्होंने एलजी से फैसला पलटवा दिया। एक परसेप्शन मूव का जवाब दूसरा मूव।
दिल्ली और केंद्र सरकार में आजकल अलग तरह की गलबहियाँ चल रही हैं। दोनों सरकारें बैठकर साझा नीति बना लेतीं और उसकी घोषणा कर देतीं तो ये नौबत नहीं आता लेकिन लड़ाई अधिकतम राजनीतिक लाभ का है। अगर सौ दो सौ लोग मर भी जायें तो क्या है।
राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के उदय के साथ राजनीति सिर्फ एक सेल्समैनशिप बनकर रह गई है। केजरीवाल उसी की नकल हैं। बाकी क्षेत्रीय नेताओं की समझ में भी आ रहा है कि इस देश में सिर्फ मोदी मॉडल ही चल सकता है, जिसकी बुनियाद काम नहीं बल्कि गाल बजाने पर टिकी है।
कोरोना एक ऐतिहासिक संकट है। ऐसे में दुनिया की कोई भी सरकार जनता की उम्मीदों पर सौ प्रतिशत खरा नहीं उतर सकती है। लेकिन भारत और बाकी देशों में एक बुनियादी अंतर है।
किसी ने नहीं कहा कि 21 में कोरोना को छू-मंतर कर दूँगा। किसी ने यह नहीं कहा कि हमारे यहाँ एक भी आदमी बदइंतजामी से नहीं मरा। `हम बर्बाद हो रहे हैं’ और `हमारी हेल्थ सर्विस चरमरा चुकी है’ जैसे तमाम देशों के कई नेताओं के बयान आपको मिल जाएँगे।
भारत के राजनेता जानते हैं कि यहाँ झूठ आसानी से बिक जाता है। अगर कोई सच बोलेगा तब भी जनता उसे स्वीकार नहीं करेगी। `हमारे पास जादू की छड़ी नहीं है ‘और `पैसे पेड़ पर नहीं उगते डीजल के दाम बढ़ाने ही पड़ेंगे’ जैसे मनमोहन सरकार के बयानों को याद कर लीजिये और उनके नतीजे देख लीजिये।
इस देश का संकट राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक और नैतिक भी है। जनता के बदले बिना नेतृत्व में सुधार की उम्मीद बेमानी है।