फिल्म अभिनेता मनोज वाजपेयी ने एक बार अपने ब्लॉग में लिखा था कि नाम में क्या रखा है। उन्होंने लिखा कि मेरा नाम गधा होता तो लोग कहते कि गधे ने सत्या में अच्छा काम किया है। सैद्धांतिक तौर पर बात सही भी लगती है। पिछले कुछ दिनों से ‘इंडिया’ शब्द के साथ साथ ईस्ट इंडिया कंपनी, पोपुलर फ्रंट आफ इंडिया और इंडियन मुजाद्दीन का नाम गूगल पर सर्च किया जा रहा है। किसी राजनीतिक दल का नाम ‘इंडिया’ रख लेने से समाज के बीच क्या वह इतनी प्रतिष्ठा पा सकेगा जितनी ‘मदर इंडिया’ की है? यह बहस कुछ समय से सोशल मीडिया से लेकर मुख्य धारा की मीडिया में चल रही है?
सिर्फ कांग्रेस की जरूरत थी INDIA
इंडिया शब्द की चर्चा अचानक इतनी इसलिए बढ़ गई है क्योंकि बेंगलुरु में एकत्र हुए 26 दलों के गठबंधन ने अपनी सामूहिक एकता को आइएनडीआइए यानी इंडिया नाम दिया है। इंडिया का अर्थ है, इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस। बेगलुरु की बैठक में कांग्रेस ने विपक्ष का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया। इससे पहले तक यह लग रहा था कि विपक्ष में नीतीश कुमार की अहम भूमिका रहेगी। जदयू—राजद का हश्र देखने के बाद क्षेत्रीय पार्टियां अपनी ताकत को लेकर चौकन्नी हैं। अपने बलिदान की कीमत पर कोई कांग्रेस को आगे बढ़ने देने के पक्ष में नहीं है। यह बात भी किसी क्षेत्रीय दल से छुपी हुई नहीं है कि आईएनडीआईए जैसा एक नाम ‘कांग्रेस’ की जरूरत थी। इस नए नाम का लाभ अन्य 25 दलों को कम और कांग्रेस को सबसे अधिक होने वाला है। कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए के शासनकाल को देश के अंदर घोटालों और भ्रष्टाचार के शासनकाल के रूप में ही देखा जाता है। कांग्रेस मोदी सरकार के 09 साल बीत जाने के बाद भी अपने ऊपर लगे अनगिनत घोटालों के दाग को धो नहीं पाई है।
प्रधानमंत्री मोदी जिस अंदाज में कांग्रेस की मनमोहन सरकार पर हमला करते रहे हैं, उसे देखकर ममता, केजरीवाल, ठाकरे, पवार जैसे नेताओं का 2024 के चुनाव के लिए कांग्रेस के साथ आना कठीन था। अब इंडिया नाम के साथ सारी पार्टियां सहज हैं। कांग्रेस के एक नेता की दलील थी कि हमारे गठबंधन का नाम इंडिया होगा तो भाजपा कभी हमें ‘एंटी इंडिया’ नहीं कह पाएगी। इंडिया नाम का विरोध भाजपा भी नहीं कर पाएगी। उन्हें अपने गठबंधन के लिए एक एक व्यक्ति तलाशना मुश्किल हो जाएगा। वर्तमान में कांग्रेस गठबंधन के 26 दलों के मुकाबले भाजपा को 38 दलों का सहयोग हासिल है। दूसरी तरफ भाजपा की तरफ से यह भी कहा जा रहा है कि एंटी इंडिया होना एक प्रवृत्ति है, उसका नाम से बहुत कुछ लेना देना नहीं होता। ऐसा होता तो ईस्ट इंडिया कंपनी भारत के अंदर सबसे बड़ी लूटेरी कंपनी ना होती। स्टुडेंटस इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए इतना बड़ा खतरा ना बनता। पोपुलर फ्रंट आफ इंडिया और इंडियन मुजाहिद्दीन के नामों में इंडिया ना होता।
नीतीश कुमार हुए इस्तेमाल
कथित विपक्षी एकता की बैठक के समय इंडिया नाम का बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विरोध किया था। संविधान में लिखा है, India that is Bharat. अब अलायंस का नाम इंडिया कैसे रख सकते हैं? नीतीश कुमार की वहां किसी ने नहीं सुनी। उनके सुझाव को बेंगलुरु बैठक में कोई महत्व नहीं मिला। पटना की बैठक में नीतीश कुमार जिस हैसियत में नजर आ रहे हैं, कर्नाटक की बैठक में उनकी वह पोजिशन नहीं थी। वे हासिए पर डाल दिए गए थे
अब नीतीश कुमार समझ गए कि कांग्रेस ने किस खुबसूरती के साथ उनका इस्तेमाल किया। ममता बनर्जी और अरविन्द केजरीवाल जैसे नेता बिना नीतीश कुमार के प्रयास के कांग्रेस से संवाद के लिए कभी तैयार नहीं होते। नीतीश ने सबको जोड़कर एक जगह इकट्ठा किया और फिर कांग्रेस ने उन्हें सेन्टर स्टेज से हटाकर कमान अपने हाथों में ले ली। पटना में हुई पहली बैठक में नीतीश कुमार की केन्द्रीय भूमिका थी। कर्नाटक में हुई दूसरी बैठक तक आते आते ऐसा लगता है कि उनकी अब कोई भूमिका नहीं बची। स्थिति ऐसी बन गई है कि उन्हें कोई सुनने तक को तैयार नहीं है।
कांग्रेस की भूमिका पर सवाल
राहुल गांधी और ‘जन सुराज’ के संयोजक प्रशांत किशोर एक ही समय में यात्रा कर रहे थे। दोनों की यात्रा में अंतर बस इतना था कि पांच महीने में राहुल गांधी ने पूरे देश की यात्रा की और प्रशांत किशोर ने छह महीना लगाया और बिहार के सिर्फ पांच जिलों की यात्रा कर पाए। इससे राहुल की यात्रा की गति का अनुमान लगाया जा सकता है और ऐसा भी लगता है कि कांग्रेस की योजनाओं में जो लोग रणनीतिकार के तौर पर सामने से दिखाई दे रहे हैं, उनके अलावा भी कई अदृश्य शक्तियां हैं। जो देश और विदेश में कांग्रेस की हर एक कोशिश के साथ खड़ी हैं। आईएनडीआईए की अगली बैठक मुम्बई में होने वाली है, वहां कई समितियों की घोषणा होनी है, जो कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले विपक्ष के लिए रणनीति और जन आंदोलन के मुद्दे तय करेगी। पिछले दिनों कथित किसान आंदोलन, सीएए के खिलाफ चली मुहिम, एनआरसी के मुद्दे पर चल रहे विरोध में हमने इन बाहरी शक्तियों की भूमिका को खूब देखा और समझा। हाल में ही अपनी विदेश यात्रा के दौरान राहुल गांधी जिस सुनीता विश्वनाथ से मिलकर आएं हैं, उसका भारत विरोधी चेहरा कोई छुपा हुआ नहीं है। उन्होंने स्टीफन शॉ से शादी की है और हिन्दू फॉर ह्यूमन राइट नाम की एक संस्था चलाती हैं। जिसे चलाने के लिए जॉर्ज सोरोस पैसा देता है। जॉर्ज सोरोस को बैंक ऑफ इंग्लैंड को तोड़ने वाले व्यक्ति के रूप में जाना जाता है, पिछले कुछ समय से वह भारत को तोड़नें की कोशिश में लगा है।
कांग्रेस के पीछे है किन शक्तियों का हाथ
राहुल से मिलने जुलने वाले लोगों में एक से बढ़कर एक नायाब चेहरे शामिल हैं, 04 जून को राहुल गांधी की न्यू यार्क में हुई मीटिंग जिस तंजीम अंसारी के नाम से बुक है। वह तंजीम इस्लामिक सर्कल आफॅ नार्थ अमेरिका से जुड़ा है। यूएस कांग्रेस के अनुसार इस्लामिक सर्कल आफॅ नार्थ अमेरिका, जमात ए इस्लामी से जुड़ा है। जमात भारत में प्रतिबंधित संगठन है। एनआईए लगातार जमात से जुड़े ठीकानों पर छापेमारी कर रही है। पिछले दिनों कश्मीर घाटी के बारामुला में जमात से जुड़े ग्यारह और जम्मू के किश्तवार में पांच ठीकानों पर एनआईए ने छापेमारी की। एनआईए के अनुसार, जमात के सदस्य दान के माध्यम से घरेलू और विदेश से जकात, मोवदा और बैत-उल-माल के रूप में धन एकत्र कर रहे थे। इन पैसों को धर्म के प्रचार, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च किया जाना था। जिसे छोड़कर इसका इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर में हिंसक और अलगाववादी गतिविधियों के लिए किया जा रहा था। इकट्ठा किए गए पैसे को जमात कैडरों के सुसंगठित नेटवर्क के माध्यम से प्रतिबंधित आतंकवादी संगठनों हिजबुल मुजाहिदीन, लश्कर-ए-ताइबा और अन्य तक भेजा जा रहा था। उल्लेखनीय है कि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी के साथ सलील सेट्टी की भी तस्वीर खूब वायरल हुई थी। सलील, जॉर्ज सोरोस के ओपन सोसायटी फाउंडेशन का ग्लोबल वाइस प्रेसिडेंट है।
INDIA’ का नहीं है कोई विरोध
स्किल इंडिया (28 अंगस्त 2014), इंडिया मेड (28 सितम्बर 2014), स्टार्ट अप इंडिया (16 जनवरी 2022), स्टैंड अप इंडिया (05 अप्रैल 2016) जैसी योजनाएं मोदी सरकार में चल रहीं हैं। जिससे स्पष्ट है कि सत्ता पक्ष ‘इंडिया’ शब्द के विरोध में नहीं है। दूसरी तरफ यह बताना आवश्यकता है कि भारत सहित विश्व में ऐसे लोगों, समूहों, संगठनों की बड़ी संख्या है, जो हर हाल में 2024 में मोदी सरकार को हटाना चाहते हैं। भारत जब आत्मनिर्भरता की सीढ़ियां धीरे धीरे चढ़ रहा है, एक मजबूत अर्थव्यवस्था की तरफ अपने कदम बढ़ा रहा है। ऐसे में बाहरी शक्तियां देश को अस्थिर करने का प्रयास करेंगी। ऐसे में विपक्ष के सामने बड़ी चुनौती है कि उन्हें बाहरी शक्तियों के हाथों कठपुतली नहीं बनना है। उन्हीं बाहरी शक्तियों से लड़ने के नाम पर कांग्रेस से एक समय शरद पवार और ममता बनर्जी अलग हुए थे। विदेशी शक्तियों की पहुंच और पावर को हमने पहले भी शाहीन बाग से लेकर कृषि कानून विरोधी आंदोलन में देखा है। जहां मोदी, भाजपा तथा संघ विरोधी दुष्प्रचार अभियान चरम पर था।
बहरहाल विपक्ष को समाज के बीच मेहनत करनी है, जमीन पर पसीना बहाना है। उसी के दम पर 2024 का मुकाबला दिलचस्प होगा।