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स्वतंत्रता दिवस पर विशेष : अखंड भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के प्रेरणास्रोत , मार्गदर्शक ,श्री स्वामी विवेकानंद

प्रातः स्मरणीय श्री स्वामी विवेकानंद जी सनातन संस्कृति के ऐसे संवाहक हैं जिन्होंने भारत की आदर्श ऋषि परंपरा , वैदिक वांग्मय को समूचे विश्व तक पहुंचाया। विवेकानंद जैसे दिव्य महापुरुष से प्रेरणा लेकर भारत के आजादी आंदोलन को स्वतंत्रता तक ले जाने वाले स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेताजी सुभाष चंद्र बोस प्रेरणा लेकर भारत माता के अनन्य लाडले बने।

किशोर सुभाष का मन कहीं टिक नहीं रहा था। इन दिनों उनके मन में चित्र-विचित्र कल्पनाएँ उभरती रहती थीं; ऐसी कल्पनाएँ, जिनके बारे में कभी सोचा तक नहीं था; परंतु कल्पनाओं में रमना भी उन्हें अच्छा लगता था। कभी-कभी वे स्वयं को दिव्य हिमालय की कंदराओं में किन्हीं साधु-महात्माओं के संग तपस्या करते पाते थे– उनके साथ विचरण करते, उनसे सत्संग करते। सत्संग के समय जीवन के रहस्य के बारे में उनसे जिज्ञासा प्रकट करते कि आखिर हम जन्म ही क्यों लेते हैं और जन्म लेते हैं तो अपनी इच्छानुसार कोई कर्म क्यों नहीं कर पाते? जो हम चाहते हैं, उसे क्यों नहीं कर पाते ?

ऐसी विवशता क्‍यों है? आदि-आदि अनेकों प्रश्न कल्पनाओं में उभरते और उत्तर पाए बिना विलीन हो जाते। कल्पनाओं की यह प्रगाढ़ता अब तो सपनों में झिलमिलाने लगी थी। खुली आँखों से वही देखते, बंद आँखों से भी वही और अब तो सपनों में भी उनके पास साधु-महात्माओं का आवागमन होने लगा था।

चित्र: सोशल मीडिया से

इन विचारों एवं कल्पनाओं के संग सुभाष घंटों बैठे रहते थे। पढ़ने-लिखने, टोली बनाकर खेलने एवं सेवा करने में भी उनको उतनी ही रुचि थी। जब वे पढ़ते थे तो वे इतना खो जाते कि उन्हें समय का एहसास ही नहीं हो पाता था। पढ़ते समय उन्हें लगता था कि सभी विषयों का गंभीरता से अनुशीलन किया जाए और फिर वे पढ़ने-लिखने के कार्य में जुट जाते थे। उनकी कुशाग्र बुद्धि, ग्रहणशीलता, चिंतनशीलता से सभी हतप्रभ रहते थे। इतनी छोटी उम्र में ज्ञान के प्रति ऐसी जिजीविषा सबको चौंकाने के लिए पर्याप्त थी। वे जो पढ़ते थे, स्मृतिपटल पर अक्षरश: अंकित हो जाता था और उनकी विवेचन शैली तो अनोखी थी ही, पर जब वे योजना बनाकर खेलते थे, टोली बनाकर समाजसेवा का कार्य करते थे तो उनमें भी उन्हें बड़ा आनंद आता था। योजना बनाने एवं त्वरित निर्णय करने में तो वे बचपन से प्रवीण थे, इसलिए वे नित्य अलग-अलग खेल खेलने और नए ढंग से सेवा-कार्य करने में जुट जाते थे।

इन सबसे निवृत्त होकर जब वे घर आते तो उनको अन्य बाकी सब काम निस्सार जान पड़ते, जिन्हें करने में पहले उन्हें अपार आनंद आता था, अतः वे अपनी कल्पनाओं में खो जाते थे। कल्पनाओं की ऊँची उड़ानों में वे उड़ते रहते थे, परंतु सही दिशा न मिल पाने के कारण उनमें द्वंद पैदा हो गया था। सुभाष की कल्पनाओं की दिशाएँ दो विपरीत धाराओं में चलने लगीं–एक ओर तो वे पराधीन राष्ट्र की बेड़ियों को तोड़ने, अत्याचारी, आततायी एवं आतंकी अँगरेजों को अपने देश से भगा
बाहर करने के लिए सशस्त्र विद्रोह की बात सोचते थे, तो दूसरी ओर वे सब कुछ छोड़कर हिमालय में धूनी रमाकर तपस्या करने की कल्पना करते थे। इन्हीं दो विपरीत धाराओं के कारण उन्हें बेचैनी होती थी और किसी काम में उनका मन नहीं लगता था।

“माँ! बहुत भूख लगी है।”–सुभाष ने अपनी अम्मा प्रभावती से कहा। गोधूलि बेला थी। प्रभावती के हाथों में एक तश्तरी थी, जिसमें संदेश के कुछ टुकड़े एवं नमकीन रखी हुई थी। अम्मा ने कहा– “बेटा! पहले थोड़ा जलपान कर ले, फिर दाल-भात खा लेना।”” सुभाष ने कहा– “अम्मा! हमें तो अभी दाल-भात, सब्जी चाहिए। हमें नाश्ता नहीं करना। हमें अभी और इसी वक्त खाना चाहिए, अन्यथा हम कुछ नहीं खाएँगे।’” अम्मा ने सुभाष को समझाया, परंतु वे माने नहीं। अम्मा ने उन्हें डाँट दिया, परंतु वे शांत नहीं हुए और अम्मा की गोद में सिर टिकाए सिसकने लगे। माता का हृदय संतान की सभी कही-अनकही बातों को समझता है। वह अपनी संतान की सभी बातों से सर्वथा परिचित होती है, इसीलिए तो उसे माँ कहते हैं।

प्रभावती अपने पुत्र के अंदर चल रहे अंतद्वंद से परिचित थी। वह उसे छेड़े बगैर कहने लगी–” पुत्र ! तुम स्वामी विवेकानंद की शरण में जाओ। उनका ध्यान करो। उनके संभाषण का मनन करो। वे अवश्य ही तुम्हारे स्वधर्म का तुम्हें बोध कराएँगे। जो उनको याद करता है, वे उसका ध्यान अवश्य रखते हैं।”

सुभाष ने कहा–” अम्मा! क्या मैं अपने मन की बात स्वामी जी से कहूँगा तो वे सुनेंगे और जवाब देंगे ?” अवश्य पुत्र ! यदि तुम हृदय से उनको पुकरो और हृदय की बात करोगे तो वे अवश्य सुनेंगे और तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे ।”– प्रभावती ने कहा। निर्बोध सुभाव को आँखों में चमक पैदा हो गई, उनका हृदय पुलकित हो उठा। सुभाष ने कहा-“’ अम्मा! हमारे घर की दीवार में जे! पगड़ीधारी संन्यासी की फोटो हे, वे वही स्वामी जो हैं?” “हाँ बेटा! वही स्वामी जी हैं ।”-प्रभावती ने जवाब दिया। प्रभावती बात अधूरा छोड़कर घर के अंदर गई और अपने साथ स्वामी जो की सुंदर एवं भव्य फोटो लाकर सुभाष को दी और कहा–” लो, इसे अपने पास रखना इनकी अभ्यर्थना करना। आज से इन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु मानना।’!

सुभाष को मन की पूंजी मिल गई थी। उनकी दृष्टि अम्मा के हाथ में पकड़े हुए कागज के एक टुकड़े पर गई। सुभाष ने कहा–” अम्मा ! यह क्या है ?” प्रभावती ने कहा-” पुत्र ! स्वामी जी के हाथ का लिखा हुआ एक पत्र है, जिसे पिछले साल दक्षिणेश्वर में वहाँ के एक संन्यासी ने दिया था.
जिसमें लिखा था–

श्रीमती ओलिबुल को लिखित
बेलूड़ मठ,
14 जून, 1902

प्रिय,

मैं बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ, परंतु शरीर दुर्बल है. जो जिस मनोकामना से पूजा करता है, मैं उसकी उसी रूप में मिलता हूँ।
सदैव तुम्हारा विवेकानंद

“पुत्र ! तुम स्वामी जो को जिस भाव से पूजोगे, वे तुम्हें उसी रूप में प्राप्त होंगे; अत: उनको अपनी मन की बात कहो और द्वंद से बाहर निकल आओ! ठीक यही बात गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी कही है।”

प्रभावती ने कहा और सुभाष को मानो, अपना संसार मिल गया। वे स्वामी जो की फोटो लेकर दौड़ते हुए अपने कमरे में चले गए, प्रभावती ने कहा -” नाश्ता तो कर लो.” सुभाष ने कह–” अब भूख नहीं है।” प्रभावती अनने बेटे के इस रूपांतरण से प्रसन्‍न थी। वह जानती थी कि सुभाष एक विलक्षण बालक है। उसकी कल्पना, विचार, भाव और बुद्धि दोनों असाधारण हैं, बहिर्मुखी है, उतना ही अंत्मुखरी भी सुभाष को एक नूतन एवम उल्लासपूर्ण कार्य मिल गया था अब वे स्वामी विवेकानंद जी को अपना गुरु मानते थे । स्वामी विवेकानंद जी को अपना आध्यात्मिक गुरु मानकर अपने मन को सभी बातों को स्वामी जी की तस्वीर से कर लिया करते थे । इस आनंद को पाने के प्रयास में उनक शेष कार्य छूटने लगे थे। जब भी समय ध्यान करने बैठ जाते या फिर स्वयं को अपनी कल्पनाओं में स्वामी जी के साथ पाते। अचानक हुए इस परिवर्तन से उनकी मित्र मंडली विस्मित थी, परंतु माता प्रभावती सहज रहीं ।

स्वामी जी के साथ इतना खो गए कि सोते जागते, पढ़ते-लिखते, खेलते कूदते बस, वे हो नजर आते थे। इन दिनों उनके मन में एक विचार उभरा। वह था कि घर से भागकर हिमालब चले जाए और वहीं एकांत में स्वामी जी का गंभीर ध्यान किया जाए। यहाँ विचार उभरता और फ़िर बीच उन्हें एक आश्चर्यजनक बात होती लगी कि स्वामी जी का ध्यान करते समय उनके मन में जो प्रश्न उठता था, वहीं उसका समाधान हो जाता था। एक रात सुभाष स्वामी का ध्यान करते करते सो गए गए और उन्होंने सपने में स्वामी जो को देखा, तो जग कर अपनी अम्मा से कहा–” मैंने स्वामों औ की सपने में देखा परंतु वे मुझसे कुछ कह रहे थे, थे क्या कह रह थे, स्पष्ट नहीं हो पा रहा है ,’” माता प्रभावती ने कहा तुम उनका ध्यान करते रहो, अगर उनके उन्हें कुछ कहना होगा तो वे तुम्हारा अवश्य मार्गदर्शन करेंगें । ध्यान रखना, स्वामी जी आध्यात्मिक ऊर्जा के दिव्यस्रोत हैं, जो भी उनको पुकारेगा, वे उसका प्रत्युतर अवश्य देंगें ।

सुभाष अपने आध्यात्मिक गुरु की कल्पना के संग खोए रहते थे। सोमवार का दिल था सोमवार का व्रत करने के पश्चात माता प्रभावती ने शिवजी का प्रसाद सुभाष को दिया और कहा – “इसे खा लो स्वामी जी शिव के अवतार स्वरूप हैं, शिव जी की भाँती भोले हैं, परन्तु प्रखरता किसी ब्रह्मास्त्र से कम नहीं” इतनी सी बात कहकर वे चली गईं। सुभाष रात में फिर से स्वामी जी को अपने सपने में देखा! उनके मुखमंडल से दिव्य आभा विकरित हो रहो थी। आँखों में इतनी चमक थी कि आँखों को मिलाया नहीं जा रहा था !

सुभाष ने स्वामी जी के चरणों में अपने को समर्पित कर दिया। स्वामी जी ने उन्हें बड़े प्यार से पुचकारा और गोद में उठा लिया, फिर उन्हें अपने पास बैठाया।

स्वामी जी सुभाष को संबोधित कर रहे थे–” सुभाष! तुमने इस धरा पर भगवान का दूत बनकर जन्म लिया है। भगवान ने एक विशिष्ट कार्य देकर तुम्हें यहाँ भेजा है। जिसने तुम्हें यहाँ भेजा है, वही तुम्हारी निगरानी भी कर रहा है। वह अपना कार्य तुम्हारे माध्यम से कराएगा। तुम चाहोगे तो भी और नहीं चाहोगे तो भी, वह तुमसे अपना कार्य करा लेगा। तुम भगवत्‌ योजना का अंग हो, इसलिए तुम बस उन्हीं का कार्य करो। कार्य कैसे होगा? कब होगा? यह सारी बातें उसी पर छोड़ दो। यथा समय एवं उचित अवसर पर सब कुछ तुम्हारे सामने आ जाएगा।”

सुभाष ने बड़े प्यार से कहा–““स्वामी जी! मुझे क्या करना है ? हिमालय की कंदराओं में ध्यान करना है या फिर पराधीनता के लौहपाश में जकड़े हुए राष्ट्र के स्वतंत्रता आंदोलन में कूदना है–यह बात मुझे समझ नहीं आ रही है और यही मेरे अंतद्वंद का प्रमुख कारण है।”” स्वामी जी ने मुस्कराते हुए कहा–” सुभाष ! तुम्हें इस जन्म में ध्यान-भजन करने का कम ही अवसर मिलेगा, तुम्हें राष्ट्र के इस महान यज्ञ में अपने सर्वस्व की आहुति करनी होगी। भगवान ने भारत की स्वतंत्रता के लिए कुछ लोगों को चुना है। उनमें से तुम भी एक हो। अतः तुम्हें स्वयं को अपने अन्तर्द्वन्द से निकलकर केवल राष्ट्र के बारे में सोचना है, करना है और बलिदान हो जाना है, यही तुम्हारी नियति है, यही भगवत्‌ विधान है, यही स्वधर्म है और ध्यान रखो, वर्तमान समय में राष्ट्रधर्म ही सर्वोपरि है। तुम्हें यही करना है, तुम यही करोगे। मेरा आशीर्वाद सतत तुम्हारे साथ रहेगा।’!

प्रात: उठकर सुभाष ने सब कुछ अम्मा को बताया। अम्मा को अपने पुत्र पर गर्व महसूस हो रहा था। माता प्रभावती ने सुभाष को राष्ट्रहित सर्वस्व समर्पित हो जाने के लिए खूब आशीर्वाद दिए।

सभी जानते हैं कि श्री सुभाषचंद्र बोस स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने । भारत की पृथक सेना बनाकर विश्व युद्ध मे भाग लिया । नेताजी को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में जापान रूस इत्यादि विश्व के अनेको देशों ने सम्मान प्रदान किया । विश्व के कई देशों ने आजाद हिंद फौज को प्रामाणिक मान्यता प्रदान की , स्वतंत्र भारत की मुद्रा प्रनलन में लाये , स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पद पर देशवासियों ने लाडले , ह्रदयसम्राट , नेताजी सुभाषचंद्र बोस को बैठाया ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अदम्य साहस, पुरुषार्थ, धैर्य , विवेक , अनेकानेक गुणों से युक्त विभूति, सुभाषचंद्र बोस को राष्ट्र सदैव नमन करता रहेगा।

सर्वे भवन्तु सुखिनः

रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद

एन सी आर खबर ब्यूरो

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