आर. के. सिन्हा । आजकल लेखकों का या कहूं कि सुविधाभोगी लेखकों का अपने सरकारी सम्मानों-पुरस्कारों को वापस करने का सिलसिला चल रहा है। उन्हें ये करने का अधिकार है। लेकिन इन उदय प्रकाशों, नयनतारा सहगलों, सराह जोसेफ़ों, अशोक वाजपेइयों वगैरह से भी चंद सवाल। क्या उनके काम से आम-जन वाकिफ है ?
जवाब होगा कि कतई नहीं। और यही इन सबकी सबसे बड़ी असफलता है। ये सब मिल कर पिछले कई दशकों में ऐसी एक भी रचना दे पाने में असफल रहे हैं, जो जन-मानस को इनसे जोड़ सके। ये स्वयंभू साहित्यकार स्वान्तःसुखाय कुछ भी लिखते रहे और जोड़-तोड़, चाटुकारिता, भाई-भतीजावाद, जुगाड़ व चरण-वंदना से पुरस्कार पा गये।
लेकिन इनकी “रचनाएँ” महज़ 500 से 1000 प्रतियों में छप कर पुस्तकालयों में धूल खाने चली गयीं। क्या किसी भी आम-आदमी ने ख़रीद कर इनमें से किसी भी साहित्यकार की एक भी रचना पढ़ी ? यह रोना व्यर्थ होगा कि अब लोगों की पढ़ने की आदत ख़त्म हो गयी है। अमीश त्रिपाठी और चेतन भगत जैसे लेखकों की रचनाएँ लांच होने से पहले कैसे बिक जाती हैं? अफ़सोस! क़लम के कथित सिपाही( अपने लेखन से जन-जागरण करने के बजाय राजनैतिक पार्टियों के मोहरे बन कर ख़ुश हैं। प्रेमचंद का रास्ता कठिन है और जनमानस से जुड़ा लेखन तो इन सबके लिए नितांत असंभव है, सो बेचारे रूपये हड़प कर तमग़े लौटा रहे हैं। पुराने मालिकों के क़र्ज़ चुकाने हैं और भविष्य के लिए उम्मीद लगानी है शायद। क्या पता, पुराना मालिक भविष्य में कभी लौट आए तो कम-से-कम अभी की वफ़ादारी की याद दिला कर कुछ मिल तो जाएगा!
गुस्ताखी माफ, ये सब सिरे से अवसरवादी रहे हैं। अशोक वाजपेयी के दोहरे चरित्र की मिसाल मिलना मुश्किल है। वे एक दौर में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और केन्द्र में कांग्रेस सरकारों में कैबिनेट मंत्री रहे अर्जुन सिंह के तलवे चाटते रहे। लेकिन जैसे ही केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की 1998 में सरकार बनी तो जगमोहन को कभी सांप्रदायिक बताने वाले अशोक वाजपेयी ने वाजपेयी सरकार में संस्कृति मंत्री जगमोहन को चिट्ठी लिखकर कहा कि “जगमोहन जी आप महान हैं। ” यही नहीं, उन्हें अपना बायो-डाटा भी भेजा ताकि उनका किसी बेहतर पद पर पुनर्वास हो सके। लेकिन जगमोहन ने घोर अवसरवादी अशोक वाजपेयी को भाव ही नहीं दिया। दादरी हादसे के बाद अपना साहित्य अकादमी सम्मान वापस करने वाले वाजपेयी ने गोधरा कांड के वक्त अपना कोई सम्मान वापस करने की जरूरत महसूस नहीं की थी।
अशोक वाजपेयी पर तो भारत भवन के सर्वेसर्वा रहने के दौरान अपनी पत्नी, ससुर,भाई को वहां से निकलने वाली पत्रिका में छपने वाले लेखों के बदले में बाकी से कई गुना ज्यादा मानदेय दिलवाने के भी आरोप लगे। उन्होंने अपने ससुर नेमिचंद्र जैन को नेशनल स्कूल आफ ड्रामा का चीफ बनवाया अर्जुन सिंह से कहकर। भारत भवन बना तो उसके संविधान में उन्होंने अपने तथा अर्जुन सिंह का आजीवन न्यासी बनवा लिया। हालांकि बाद में प्रदेश में सुंदर लाल पटवा की सरकार बनी तो उन्हें आजीवन न्यासी के पद से मुक्त किया गया। तो ये है उनका असली चेहरा। क्या वे इन आरोपों को खारिज करने का साहस रखते हैं ?
उर्दू के शायर मुनव्वर राणा ने भी अपना साहित्य अकादमी सम्मान लौटा दिया एक टीवी शो के दौरान। इस मसले पर बहस की गुंजाइश नहीं है कि वे गंभीर शायर नहीं है। वे साहिर लुधियानवी, जान निसार अख्तर या अहमद फराज की श्रेणी के कतई शायर नहीं हैं। राणा को साल 2014 में उनकी किताब ‘शाहदाबा’ के लिए साहित्य अकादमी सम्मान से नवाजा गया था। वे पहले कह रहे थे वे अपना सम्मान नहीं लौटाएंगे क्योंकि इससे भारत में बढ़ रही धार्मिक असहिष्णुता के मुद्दे का हल नहीं निकलेगा। वे हिन्दी पट्टी में होने वाले कवि सम्मेलनों-मुशायरों में रंग जमा देते हैं। पर सुर्खियों में आने की छटपटाहट में शायर मुनव्वर राणा साहब वही कर बैठे जो उन्हें नहीं करना चाहिए था। लेकिन वे भी क्या करें “होई वही जो राम रचि राखा।” अवसरवादिता बेनकाब हो गई।
राणा साहब बताइये कि जब जब 1989 में भागलपुर में मुसलमानों का कत्लेआम हुआ था,तब उन्होंने किस तरह से विरोध जताया था? पिछले साल मुजफ्फरनगर में मुसलमानों के कत्लेआम पर भी चुप रहे थे। क्या इसलिए क्योंकि जब भागलपुर कांड हुआ था तब बिहार में कांग्रेस की और मुजफ्फरपुर कांड के समय यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकारें थीं?
बहती गंगा में हाथ धोते हुए 2004 में मिला पद्मश्री पुरस्कार पंजाबी लेखिका डॉ.दिलीप कौर टिवाणा ने भी लौटाया। उन्होंने कहा कि देश में बढ़ रहा साम्प्रदायिक तनाव। तो 1984 के सिखों के कत्लेआम के पूरे बीस बरस बाद जब उन्हें पद्मश्री मिल रहा था, तो बेचारी मोहतरमा सिख दंगों से अनजान थीं। ये भी हो सकता है कि यदि उन्हें उस क़त्ल-ओ-ग़ारत का इलहाम रहा भी हो, तो संभव है कि तब उनका ज़मीर चाटुकारिता के आँचल तले सो रहे हों, जो अब पुरस्कार मिलने के 11 बरस बाद और विरोध की वजह की घटना के 31 बरस बीत जाने के बाद (चाटुकारिता के बदले कुछ मिलने की उम्मीद टूट जाने के कारण) जाग गया हैं।
पीले पत्तों की दास्ताँ लिखने वाली दिलीप कौर टिवाणा जी जरा बता दीजिए अपने पाठकों और देशवासियों को कि उन्होंने 1984 में सिखों के कत्लेआम का विरोध किस रूप में किया था? क्या तब उन्होंने उस कत्लेआम की पृष्ठभूमि में कोई कालजयी रचना लिखी थी?
टिवाणा के साथ पंजाबी के कवि सुरजीत पातर ने भी अपना साहित्य अकादमी सम्मान वापस किया। पातर कहते रहे हैं कि उन पर गालिब, इकबाल और धर्मवीर भारती का खासा प्रभाव रहा है। इसके अलावा शिव कुमार बटालवी और मोहन सिंह ने भी उन्हें और उनके लेखन को प्रेरित किया है।
बहुत अच्छी बात है। पर, पातर साहब आपने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के कत्लेआम के खिलाफ चले देश व्यापी आंदोलन में कितनी बार जेल यात्राएं कीं ? आपको मरने वालों की चीखों ने कितनी कविताएं लिखने के लिए प्रेरित किया ? एक भी नहीं। पंजाब में आतंकवाद के दौर में आतंकियों के खिलाफ आपकी कलम क्यों थमी? इमरजेंसी के दौर में भी आपकी कलम ठहरी। आतंकवाद के दौर में आप दुबके रहे आतंकियों के भय से। और अब आप दादरी की घटना से इतने आहत हो गए कि आप कहने लगे कि देश में माहौल बहुत सांप्रदयिक हो गया।
अब चर्चा है कि अंग्रेजी के लेखक विक्रम सेठ भी साल 2005 में मिले प्रवासी भारतीय सम्मान को वापस कर सकते हैं। हालांकि उन्हें ये सम्मान 1984 के दंगों के मुख्य अभियुक्त जगदीश टाइटलर ने दिया था। यानी उन्हें तब होश नहीं आई थी कि वे किस शख्स से सम्मान ले रहे हैं।
दादरी कांड को लेकर जिस तरह से कथित लेखकों ने अपने सम्मान वापस करने की होड़ मचा रखी है, उस रोशनी में अब जनता को जानना चाहिए कि इन लेखकों का असली चेहरा किस तरह का है। जाहिर है, असली चेहरा देखकर इनसे कोई भी बचेगा।
लेखक राज्यसभा सांसद हैं