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पटाखों को पर्यावरण की आड़ में रोकना कहां तक अच्छा, क्या है सच ?

दीवापली के आते ही हर साल समाजसेवियों और पर्यावरण विदो द्वारा लोगो से पटाखे ना छोड़े जाने की अपील की जाने लगती है । सरकार भी इनकी देखा देख इसी अपील का हिस्सा बनने लगती है लोगों को लगता है कि मौसम में बदलाव के चलते पर्यावरण प्रदूषित होने का मुख्य कारण दीपावली पर पटाखों का फूटना है मात्र कुछ घंटों के लिए फूटने वाले इन पटाखों किशोर और दुआएं को प्रदूषण का नाम देना कहां तक सही है इस बात को लेकर अब सवाल उठने लगे हैं

सामाजिक चिंतक और लेखक धीरज फूलमती सिंह इसे गलत बताते हुए कहते है कि भारत में होने वाले वायु प्रदूषण में 30% का हिस्सा कारखानो द्वारा फैलाया और पैदा किया जाता है। कुल वायु प्रदूषण का 28% भारत में दिन रात पेट्रोल-डीजल पर चलने वाले वाहन फैलाते है। एक और आश्चर्य की बात है कि 16% वायु प्रदूषण हमारे घर के किचन,एयरकंडीशनर और फ्रीज पैदा करते है।

13 % वायु प्रदूषण धुल कण की वजह से होता है तो वही 08% प्रदूषण पराली की वजह से होता है लेकिन सालाना फसली मौसम के आसपास उत्तर भारत में 42% प्रदूषण सिर्फ पराली की वजह से ही होती है।

कुल 07% वायु प्रदूषण कत्लगाहो की वजह से होता है। मांस, मछली की कसाईखानो, चमडा उद्योग इसको पैदा करते है।

जल प्रदूषण का 38% स्रोत इन्ही कत्ल खानो से ही फैलाया जाता है। भारत की कुल 48% ध्वनी प्रदूषण का हिस्सा वाहनो की रोज-रोज की पेपे,पोपो, लाउडस्पीकर और मनुष्य का शोर पैदा करता है। पटाखो के शोर,धमाका और धुंआ का सालाना औसत अनुमान लगाए तो यह सिर्फ 0.78% होता है यानी कि 01% से भी काफी कम!

ऐसे में बड़े कारकों की जगह सिर्फ पटाखों को टारगेट करना भारतीय संस्कृति में रचे बसे इस उत्साह को कम करना होता है । क्योंकि इसी के बाद आने वाले अनेक त्योहारों पर पटाखे और प्रदूषण की बातें नहीं होती है ऐसे में लोगो को अब जागरूक होने का समय आ गया है और इस तरह के प्रोपेगेंडा का सच सबके सामने लाने का समय आ गया है

NCRKhabar Mobile Desk

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