दशामाता पूजन कथा विधि, मुहूर्त , राशि अनुसार करे पूजन
दशा माता का व्रत चैत्र (चेत) महीने के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि के दिन किया जाता है। दशा माता का व्रत, घर-परिवार के बिगड़े ग्रहों की दशा या परिस्थिति अनुकूल बनी रहे, ऐसी कामना के साथ किया जाता है। दशा माता यानि माँ भगवती की पूजा और व्रत करके महिलायें गले में डोरा पहनती है ताकि परिवार में सुख-समृद्धि, शांति, सौभाग्य और धन संपत्ति बनी रहे।
होली के दस दिन बाद यह व्रत आता है। हिंदू पंचांग के अनुसार 6 अप्रैल दिन मंगलवार को है। व्रत मे महिलाएं दशा माता और पीपल की पूजा कर सौभाग्य, ऐश्वर्य, सुखशांति और आरोग्य की कामना करती हैं। महिलाएं शुभ मुहूर्त मे पीला धागा गले में धारण करती हैं।
दशा ख़राब हो तो अनेक प्रकार की बाधाएँ उत्पन्न हो जाती हैं, पूरी कोशिश करने पर भी कोई काम पूरा नहीं होता। ऐसे ही संकटों से उबारने वाला है दशा माता का व्रत। इस व्रत को जो व्यक्ति भक्ति-भाव से करता है, उसके घर से दु:ख और दरिद्रता दूर हो जाती है, और घर परिवार की दशा सही बनी रहती हैं।
पूजा का शुभ मुहूर्त

- चौघडिय़ा
- 6 अप्रेल 2021 मंगलवार
- प्रात:काल 09:23 से प्रात:काल 10:56 बजे तक।
लाभ चौघडि़या प्रात:काल 10:56 से दोपहर 12:29 बजे तक। - अमृत चौघडि़या दोपहर 12:29 से दोपहर 02:03 बजे तक।
भगवान श्रीहरि नारायण विष्णु की पूजा अनेक रूपों में की जाती है। मनुष्य को अपने अलग-अलग उद्देश्यों की पूर्ति के लिए श्रीहरि के अलग-अलग रूपों का पूजन करना चाहिए। चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को भी एक ऐसा व्रत आता है जो आपके बिगड़े ग्रहों की दशा सुधारकर आपको सुख-समृद्धि, सौभाग्य और धन संपत्ति की पूर्ति करवाता है। इस व्रत को दशामाता व्रत कहा जाता है। अपने नाम के अनुरूप यह व्रत-पूजा मनुष्य के परिवार की दशा को सुधार देता है। दशामाता पूजन यह व्रत उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों में किया जाता है। पश्चिम भारत के गुजरात, महाराष्ट्र आदि राज्यों के भी अनेक भागों में करने की परंपरा है।
कैसे किया जाता है दशामाता पूजन
दशामाता व्रत के दिन मुख्यत: भगवान विष्णु के स्वरूप पीपल वृक्ष की पूजा की जाती है। इस दिन सौभाग्यवती महिलाएं कच्चे सूत का 10 तार का डोरा बनाकर उसमें 10 गांठ लगाती हैं और पीपल वृक्ष की प्रदक्षिणा करते उसकी पूजा करती हैं। पूजा करने के बाद वृक्ष के नीचे बैठकर नल दमयंती की कथा सुनती हैं। इसके बाद परिवार के सुख-समृद्धि की कामना करते हुए डोरा गले में बांधती हैं। घर आकर द्वार के दोनों हल्दी कुमकुम के छापे लगाती है। इस दिन व्रत रखा जाता है और एक समय भोजन किया जाता है। भोजन में नमक का प्रयोग वर्जित रहता है। इस दिन प्रात: जल्दी उठकर घर की साफ-सफाई करके सारा कचरा बाहर फेंक दिया जाता है। इस दिन किसी को पैसा उधार नहीं देना चाहिए। प्रयास करें किदशामाता पूजा के पूरे दिन बाजार से कोई वस्तु ना खरीदें, जरूरत का सारा सामान एक दिन पूर्व ही लाकर रख लें।
दशामाता व्रत कथा : नल दमयंती की कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय राजा नल और रानी दमयंती सुखपूर्वक राज्य करते थे। उनके दो पुत्र थे। एक दिन की बात है। एक ब्राह्मणी राजमहल में आई और रानी से कहा कि दशा माता का डोरा ले लो। दासी बोली- हां महारानी जी, आज के दिन सभी सुहागिन महिलाएं दशा माता की पूजा और व्रत करती है और इस डोरे को गले में बांधती है, जिससे घर में सुख-समृद्धि आती है। रानी ने वह डोरा ले लिया और विधि अनुसार पूजा करके गले में बांध लिया। कुछ दिनों बाद राजा नल ने दमयंती के गले में डोरा बंधा देखा तो पूछा कि इतने आभूषण होने के बाद भी तुमने यह डोरा क्यों बांध रखा है और यह कहते हुए राजा ने डोरा गले से खींचकर निकालकर फेंक दिया। रानी ने डोरा उठाते हुए कहा कि यह दशामाता का डोरा है, आपने उसका अपमान करके अच्छा नहीं किया।
दशामाता एक बुढि़या के रूप में आई
रात्रि में राजा के स्वप्न में दशामाता एक बुढि़या के रूप में आई और राजा से कहा कि तेरी अच्छी दशा जा रही है और बुरी दशा आ रही है। तूने मेरा अपमान किया है। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, धीरे-धीरे राजा के ठाठ-बाट, धन-धान्य, सुख-समृद्धि नष्ट होने लगे। दशा इतनी बुरी हो गई कि राजा को अपना राज्य छोड़कर दूसरे राज्य में भेष बदलकर काम मांगने जाना पड़ा। रास्ते में राजा को एक भील राजा का महल दिखाई दिया। वहां राजा ने अपने दोनों बच्चों को अमानत के तौर पर सुरक्षित छोड़ दिया और राजा-रानी आगे बढ़ गए। राजा के मित्र का गांव आया। वे मित्र के यहां गए तो उनका खूब आदर-सत्कार हुआ। मित्र ने अपने शयनकक्ष में सुलाया। उसी कमरे में मोर की आकृति की खूंटी पर मित्र की पत्नी का हीरों जड़ा कीमती हार टंगा था। मध्यरात्रि में रानी की नींद खुली तो देखा किया वह बेजान खूंटी हीर को निगल रही है। यह देख रानी ने तुरंत राजा को जगाकर दिखाया और दोनों ने विचार किया किया सुबह मित्र को क्या जवाब देंगे। अतः इसी समय यहां से चले जाना चाहिए। रानी-राजा रात में ही वहां से चले गए। सुबह मित्र की पत्नी को हार नहीं मिला तो उन्होंने राजा पर चोरी का आरोप लगाया। इस प्रकार राजा नल और रानी दमयंती के जीवन में अनेक कष्ट आते रहे।
एक दिन वन से गुजरते समय राजा नल को वही स्वप्न वाली बुढि़या दिखाई दी तो वे उसके चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगे और बोले माई मुझसे भूल हुई क्षमा करो। मैं पत्नी सहित दशामाता का पूजन करूंगा। बुढि़या ने उसे क्षमा करते हुए दशामाता का पूजन करने की विधि बताई। चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि आने पर राजा-रानी ने अपनी सामर्थ्य अनुसार दशामाता का पूजन किया और दशामाता का डोरा गले में बांधा। इससे उनकी दशा सुधरी और राजा को पुनः अपना राज्य मिल गया।
दशा माता व्रत के नियम
दशामाता का व्रत जीवन में जब तक शरीर साथ दे, तब तक किया जाता है और इसका उद्यापन नहीं होता है। दशा माता की पूजा पीपल के पेड़ की छाँव में करना शुभ माना जाता है। घर में इस व्रत के दिन विशेष रूप से साफ-सफाई की जाती है और अनावश्यक अटाला, कचरा, टूटा-फूटा सामान बाहर फेंक दें। साथ ही सफाई से जुड़े समान यानी झाड़ू आदि खरीदने की परंपरा है।
इस दिन घर का पैसा खर्च नहीं करना चाहिए। दशामाता पूजा के पूरे दिन बाजार से कोई वस्तु ना खरीदें। यथासंभव जरूरत की वस्तुएं एक दिन पूर्व ही खरीदकर रख लें। दशामाता पूजन के दिन किसी को पैसा उधार भी ना दें। इस दिन अपने घर की कोई वस्तु भी किसी को नहीं देना चाहिए और ना ही किसी से कोई वस्तु या पैसा मांगना चाहिए।
दशामाता व्रत करने वाली महिलाएं दिन भर में मात्र एक बार अन्न का सेवन करती हैं। इस व्रत में नमक का सेवन नहीं किया जाता है। मान्यता है कि दशामाता व्रत को विधि-विधान, सच्चे मन, भक्ति भाव से करने पर, एक साल के भीतर जीवन से जुड़े दु:ख और समस्याएं दूर हो जाती हैं।
दशा माता का डोरा कब खोलते हैं?
दशा माता का डोरा साल भर गले में पहना जाता है। लेकिन यदि दशा माता का डोरा साल भर नहीं पहन सकते हैं तो वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष में किसी अच्छे दिन खोलकर रखा जा सकता है। उस दिन व्रत करना चाहिए।
इतना भी नहीं पहनना चाहें तो जिस दिन पहनते हैं उसी दिन डोरे को रात के समय उतार कर पूजा के स्थान पर रख दें और अगले वर्ष पूजा के बाद पीपल की जड़ में दबा दें।
सुबह स्नान आदि से निवृत होकर व्रत का संकल्प लेते हैं ।
इस व्रत मे दशा माता की मूरत या चित्र की पूजा की जाती है। मूर्ति/चित्र नहीं हो तो नागरबेल के पान के पत्ते (पूजा में काम आने वाला डंडी और नोक वाला पत्ता) पर चन्दन से दशा माता बनाकर पूजा की जा सकती है।
यह पूजा भगवान विष्णु के स्वरूप पीपल के पेड़ के पास या घर पर कर सकते हैं।
दशा माता के पास कुंकुम, काजल और मेहंदी की दस-दस बिंदी लगाते हैं। भोग के रूप में नैवेद्य लापसी, चावल आदि चढ़ाया जाता है और सूत का धागा बांधकर सुख सौभाग्य व मंगल की कामना करते हुए पीपल के पेड़ की परिक्रमा की जाती है। पीपल को चुनरी ओढ़ाई जाती है।
दस दस गेहूँ की दस ढ़ेरी पास में सजाई जाती है। लडडू, हलवे, लापसी या मीठे रोठ आदि का भोग दस ढेरियों के पास रखा जाता है। दस गाँठों का डोरा पूजा में रखा जाता है।
दशा माता और दस गाँठ वाले डोरे का पूजन अक्षत, पुष्प आदि से करते हैं।
धूप दीप जलाते हैं। पिछले साल का डोरा भी पास में रखते हैं।
इसके पश्चात दशा माता की आरती गाई जाती है।
इसके बाद नल दमयंती वाली दशा माता की कथा कहते और सुनते हैं। कहानी पीपल के पेड़ की पूजा के बाद भी कही सुनी जा सकती है। कुछ लोग दस कहानियाँ सुनते हैं।
पूजा करने और कथा सुनने के बाद महिलाएं दशा माता का पूजित नया डोरे को गले में बांधती हैं। इस धागे को व्रती महिलाएं पूरे साल धारण करती हैं।
इसके बाद गेहूं, भोग और पुराना डोरा लेकर पीपल के पेड़ के पास जाते हैं। गेहूं और पिछले साल का डोरा पीपल की जड़ के पास मिट्टी में दबा दिया जाता है या पीपल में बांधा जात है। पीपल के वृक्ष की पूजा की जाती है।
कहीं कहीं दशा माता के पूजन के बाद पथवारी पूजन भी किया जाता है।
पीपल के पेड़ की थोड़ी सी छाल खुरच कर गेहूं के दानों के साथ घर लाते हैं। इसे साफ कपड़े में लपेट कर तिजोरी या अलमारी में रखते हैं। पीपल की छाल को धन का प्रतीक माना जाता है। माना जाता है की पीपल की छाल इस प्रकार घर में रखने से सुख समृद्धि बनी रहती है।
व्रत के सकल्प की पूर्ति के रूप में दस पूरियां, दस सिक्के और दस चम्मच हलवा ब्राह्मणी या घर की बुजुर्ग महिला के पैर छूकर उन्हें दिया जाता है।
दशामाता की पूजा विधिपूर्वक करने से माता की कृपा सदैव बनी रहती है। घर में सुख-शांति और समृद्धि आती है।
राशि अनुसार करे माँ दशामाता का पूजन
- मेष, वृश्चिक : गुलाबी या सिन्दूरी रंग पहनें।
- वृषभ, कर्क : आसमानी रंग पहनें।
- मिथुन, कन्या : लहरिया रंग पहनें।
- सिंह : लाल रंग पहनें।
- धनु, मीन : पीला रंग पहनें।
- तुला : सफेद एवं पीला रंग पहनें।
- मकर, कुंभ : हरा व नीला रंग पहनें।
रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद