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रक्षाबंधन , श्रावणी पर्व मुहूर्त , पौराणिक महत्व के साथ मनाऐ – रविशराय गौड़

रक्षाबन्धन पर्व 3 अगस्‍त, सोमवार को है। इस बार राखी पर दुर्लभ एवं शुभ संयोगों की श्रृंखला भी बन रही है जो कि लाभदाय‍क साबित होगी। रक्षाबंधन पर सोमवार व पूर्णिमा के कारण इस वर्ष आनंद योग, सवार्थ सिद्धि योग एवं श्रवण नक्षत्र एक साथ पड़ रहे हैं। इस बार राखी का त्‍योहार कोरोना काल में आ रहा है। इसके चलते बाजारों में हमेशा की तरह चहल-पहल तो नज़र नहीं आएगी लेकिन घरों में भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक यह पर्व पारंपरिक उत्‍साह और उमंग के साथ मनाया जाएगा।यह योग वर्ष 1991 के बाद अब बना है। यह शुभ संयोग करीब तीन दशक बाद सामने आ रहा है। इस बार 3 अगस्‍त को रक्षाबंधन पर भद्रायोग सुबह 9.30 बजे समाप्‍त हो रहा है। श्रावणी उपाकर्म भी इसी दिन किए जाएंगे। मौजूदा वर्ष में प्रात: 9.30 बजे से शाम तक राखी बंधवाने के कई मुहूर्त रहेंगे। मुख्‍य रूप से वृश्चिक, कुंभ व सिंह लग्‍न में राखी बंधवाना सबसे शुभ माना जाता है। यह शुभ संयोग शाम को गोधूलि बेला तक जारी रहेगा। इस योग में यह त्‍योहार शुभता में वृद्धि करेगा एवं महामारी को सितंबर तक नियंत्रण करने में भी सहायक होगा। इससे इस साल रक्षाबंधन पर भद्रा का साया नहीं रहेगा। भद्रा समाप्ति के बाद ही राखी बंधवाना शुभ रहता है।

रक्षा बंधन को सुबह 6 बजकर 37 मिनट के बाद 28 योगों में सर्वश्रेष्ठ आयुष्मान योग इस समय विद्यमान रहेगा। सुबह 7 बजकर 18 मिनट के बाद पश्चात श्रवण नक्षत्र आ जाएगा, जो सिद्धि योग का निर्माण करेगा। सुबह 9 बजकर 28 मिनट पर भद्रा भी समाप्त हो जाएगी। इस साल पर्व पर सिद्धि और आयुष्मान योग बन रहे हैं। इन शुभ योग में रक्षाबंधन का पर्व भाई और बहनों की दीर्घायु, समृद्धि,सुख, सौभाग्य से परिपूर्ण रहेगा।

श्रावण मास के अंतिम सोमवार में भगवान शिव की विशेष पूजा की जाएगी. पंचांग के अनुसार इस दिन पूर्णिमा की तिथि है जो रात्रि 9 बजकर 28 मिनट तक रहेगी. रक्षाबंधन के दिन चंद्रमा मकर राशि में रहेंगे और इस दिन प्रात: 7 बजकर 19 मिनट तक उत्तराषाढ़ा नक्षत्र रहेगा. इसके बाद श्रवण नक्षत्र आरंभ होगा जो 4 अगस्त प्रात: 8 बजकर 11 मिनट तक रहेगा.

पूरे दिन रहेगा श्रवण नक्षत्र
रक्षाबंधन के दिन श्रवण नक्षत्र पूरे दिन रहेगा. यह एक शुभ नक्षत्र है. श्रावण मास में श्रवण नक्षत्र रक्षाबंधन का पर्व का पड़ना इस पर्व की शुभता में वृद्धि करता है. इसलिए इस दिन रक्षाबंधन का महत्व बढ़ जाता है.

29 वर्ष बाद बन रहा है विशेष योग
रक्षाबंधन के पर्व पर सर्वार्थ सिद्धि और दीर्घायु आयुष्मान का विशेष शुभ योग का निर्माण हो रहा है. जो रक्षाबंधन पर 29 साल बाद बन रहा है. इस बार रक्षाबंधन का पर्व श्रावण मास में पड़ रहा है वो भी सावन के अंतिम सोमवार को, जो भगवान शिव का दिन है.

सनातन वैदिक परंपरा में चार वर्णों, चार पुरुषार्थों में विभक्त प्राचीन वैदिक व्यवस्था में भारतवर्ष में चार ही प्रमुख राष्ट्रीय पर्व हुआ करते थे, जिनमें प्रथम वर्ण ब्राह्मण द्वारा संयोजित श्रावणी रक्षाबंधन पर्व; जो राष्ट्र की आध्यात्मिक शक्ति को पूंजीभूत करने का पर्व था। दूसरा विजया दशमी जो क्षत्रिय वर्ण द्वारा संयोजित राष्ट्र की सैन्य शक्ति को सुसज्जित करने का पर्व। तीसरा महालक्ष्मी पूजा दीपावली पर्व वैश्य वर्ण द्वारा राष्ट्र की अर्थशक्ति को व्यवस्थित करने का पर्व और चौथा होली शूद्रवर्ण के संयोजन में समग्र राष्ट्र की शक्ति को पूंजीभूत करने का समन्वयात्मक पर्व के रूप में प्रचलित था।

चारों पर्व, चारों वर्णों की आध्यात्मिक शक्ति, सैन्य शक्ति, अर्थशक्ति एवं पुरुषार्थ प्रधान शक्तियों को राष्ट्र को सुदृढ़ करने के लिए समन्वयात्मक प्रयास ही इन पर्वों के प्रमुख उद्देश्य थे। इसी कारण अनेक बार विदेशी आक्रांताओं द्वारा देश को छिन्न-भिन्न करने के क्रूर प्रयासों के बाद भी हम आज विश्व के समक्ष अपनी अस्मिता को सुरक्षित रख सके हैं और भारतवर्ष के नवसृजन में सतत अग्रसर हैं।

श्रावणी पर्व पर किए जाने वाले रक्षा विधान में वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों से अभिमंत्रित किया जाने वाला कलावा केवल तीन धागों का समूह ही नहीं है अपितु इसमें आत्मरक्षा, धर्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा के तीनों सूत्र संकल्प बद्ध होते हैं। प्राचीन मान्यताओं से इस पर्व को मानने वाले श्रद्धालु इस दिन नदियों के जल में खड़े होकर विराट भारत की महान परंपराओं का स्मरण करते हुए संकल्प करते हैं जिसे हेमाद्रि संकल्प अर्थात्‌ हिमालय जैसा महान संकल्प का नाम दिया हुआ है।

इसमें सर्वप्रथम मनुष्य को नाना प्रकार के पाप, दुराचरण और समाज विरुद्ध कर्मों से दूर रहने तथा उनके प्रायश्चित्‌ की बात कही है। इस संकल्प में प्राचीन भारत के वन प्रदेशों जैसे बद्रिकारण्य, दंडकारण्य, अरावलीवन, गुह्यरण्य, जंबुकारण्य, विंध्याचलवन, द्राक्षारण्य (अंगूर के वन), नहुषारण्य, काम्यकारण्य, द्वैतारण्य, नैमिषारण्य, अवन्तिवन आदि प्राचीन भारत के विराट एवं समृद्धशाली वन प्रदेशों का स्मरण किया जाता है।

इसके बाद पर्वत मालाओं का जिसमें सुमेरूकूट (पर्वत), निषिधकूट, शुभ्रकूट, श्रीकूट, हेमकूट (हिमालय) रजकूट, चित्रकूट, किष्किन्धा, श्वेताद्रि, विंध्याचल, नीलगिरि, सह्याद्रि कश्मेरू आदि उन समस्त पर्वत श्रृंखलाओं को याद किया जाता है जिनमें से कुछ अब वर्तमान भारतवर्ष की सीमा से बाहर हैं।

इसके बाद तीर्थ क्षेत्रों शिव-शक्ति उपासना स्थलों के साथ सिंधु और ब्रह्मपुत्र नदी एवं गंगा, गोदावरी, सतलुज, गंडकी, तुंगभद्रा, नर्मदा, कृष्णा, कावेरी आदि प्राचीन विराट भारत में प्रवाहित होने वाली पवित्र नदियों को संकल्प में पिरोया गया है।

ताकि हम अपनी प्राचीन अखंड विरासत का स्मरण कर वर्तमान में श्रावणी पर्व पर यह संकल्प लें कि भारत की सार्वभौमिक एकनिष्ठ, विश्वबंधुत्व की भावना हमें एकसूत्र में बंधने की प्रेरणा प्रदान करें तथा राष्ट्र में कोई भी विघटनकारी ताकत अपना सिर न उठा सकें। इस संकल्प के बाद वेद मंत्रों से अभिमंत्रित यज्ञोपवीत धारण कर हाथ की कलाई में रक्षासूत्र बांधा जाता है।

कुछ सदियों से रक्षा बंधन का पर्व भाई-बहन के स्नेह के पर्व के रूप में प्रसिद्ध हो गया है। इसे एक और नई उपलब्धि कहा जा सकता है क्योंकि भाई अपनी बहनों से राखी बंधवा कर उसे यह विश्वास दिलाते हैं कि इस पवित्र बंधन के माध्यम से वह तुम्हारी सदैव देखभाल करता रहेगा। चाहे कोई भी परिस्थिति, कैसी भी समस्या आ जाए, उसका भाई हमेशा उसकी रक्षा करेगा।

शुक्र और बुध का राशि परिवर्तन
रक्षाबंधन से पूर्व यानि 1 अगस्त को शुक्र का राशि परिवर्तन होने जा रहा है वहीं 2 अगस्त को बुध का राशि परिवर्तन हो रहा है. इन दोनों ग्रहों का रक्षाबंधन के पर्व से पूर्व परिवर्तन कई मामलों में शुभ फलदायी माना जा रहा है।

रक्षाबंधन का पौराणिक महत्व भी कई कथाओं से इस पर्व को जोड़ता है।

देवराज इंद्र की कथा

भविष्यत् पुराण के अनुसार दैत्यों और देवताओं के मध्य होने वाले एक युद्ध में भगवान इंद्र को एक असुर राजा, राजा बलि ने हरा दिया था. इस समय इंद्र की पत्नी सची ने भगवान विष्णु से मदद माँगी. भगवान विष्णु ने सची को सूती धागे से एक हाथ में पहने जाने वाला वयल बना कर दिया. इस वलय को भगवान विष्णु ने पवित्र वलय कहा. सची ने इस धागे को इंद्र की कलाई में बाँध दिया तथा इंद्र की सुरक्षा और सफलता की कामना की. इसके बाद अगले युद्द में इंद्र बलि नामक असुर को हारने में सफ़ल हुए और पुनः अमरावती पर अपना अधिकार कर लिया. यहाँ से इस पवित्र धागे का प्रचलन आरम्भ हुआ. इसके बाद युद्द में जाने के पहले अपने पति को औरतें यह धागा बांधती थीं. इस तरह यह त्योहार सिर्फ भाइयों बहनों तक ही सीमित नहीं रह गया.

राजा बलि और माँ लक्ष्मी

 भगवत महापुराण और विष्णु पुराण के आधार पर यह माना जाता है कि जब भगवान विष्णु ने राजा बलि को हरा कर तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया, तो बलि ने भगवान विष्णु से उनके महल में रहने का आग्राह किया. भगवान विष्णु इस आग्रह को मान गये. हालाँकि भगवान विष्णु की पत्नी लक्ष्मी को भगवान विष्णु और बलि की मित्रता अच्छी नहीं लग रही थी, अतः उन्होंने भगवान विष्णु के साथ वैकुण्ठ जाने का निश्चय किया. इसके बाद माँ लक्ष्मी ने बलि को रक्षा धागा बाँध कर भाई बना लिया. इस पर बलि ने लक्ष्मी से मनचाहा उपहार मांगने के लिए कहा. इस पर माँ लक्ष्मी ने राजा बलि से कहा कि वह भगवान विष्णु को इस वचन से मुक्त करे कि भगवान विष्णु उसके महल मे रहेंगे. बलि ने ये बात मान ली और साथ ही माँ लक्ष्मी को अपनी बहन के रूप में भी स्वीकारा.

संतोषी माँ का प्रादुर्भाव: 

भगवान विष्णु के दो पुत्र हुए शुभ और लाभ. इन दोनों भाइयों को एक बहन की कमी बहुत खलती थी, क्यों की बहन के बिना वे लोग रक्षाबंधन नहीं मना सकते थे. इन दोनों भाइयों ने भगवान गणेश से एक बहन की मांग की. कुछ समय के बाद भगवान नारद ने भी गणेश को पुत्री के विषय में कहा. इस पर भगवान गणेश राज़ी हुए और उन्होंने एक पुत्री की कामना की. भगवान गणेश की दो पत्नियों रिद्धि और सिद्धि, की दिव्य ज्योति से माँ संतोषी का अविर्भाव हुआ. इसके बाद माँ संतोषी के साथ शुभ लाभ रक्षाबंधन मना सके

कृष्ण और द्रौपदी की कथा :

महाभारत युद्ध के समय द्रौपदी ने कृष्ण की रक्षा के लिए उनके हाथ मे राखी बाँधी थी. इसी युद्ध के समय कुंती ने भी अपने पौत्र अभिमन्यु की कलाई पर सुरक्षा के लिए राखी बाँधी.

यम और यमुना सम्बंधित कथा

एक ओर अन्य पौराणिक कहानी के अनुसार, मृत्यु के देवता यम जब अपनी बहन यमुना से 12 वर्ष तक मिलने नहीं गये, तो यमुना दुखी हुई और माँ गंगा से इस बारे में बात की. गंगा ने यह सुचना यम तक पहुंचाई कि यमुना उनकी प्रतीक्षा कर रही हैं. इस पर यम युमना से मिलने आये. यम को देख कर यमुना बहुत खुश हुईं और उनके लिए विभिन्न तरह के व्यंजन भी बनायीं. यम को इससे बेहद ख़ुशी हुई और उन्होंने यमुना से कहा कि वे मनचाहा वरदान मांग सकती हैं. इस पर यमुना ने उनसे ये वरदान माँगा कि यम जल्द पुनः अपनी बहन के पास आयें. यम अपनी बहन के प्रेम और स्नेह से गद गद हो गए और यमुना को अमरत्व का वरदान दिया. भाई बहन के इस प्रेम को भी रक्षा बंधन के दिन याद किया जाता है.

केसे मनाए रक्षाबन्धन पर्व

चूंकि इस दिन का बहनें अपने भाई की कलाई पर राखी बांधने के लिये वर्ष भर इंतजार करती हैं इसलिये इसकी तैयारी भी वे पूरे आध्यात्मिक वातावरण में करती हैं। बहनों में इस दिन विशेष का उल्लास देखने को मिलता है। कई धर्म निष्ट बहने अपने भाई के हाथ पर राखी बांधे बिना अन्न का ग्रास तक ग्रहण नहीं करती। वे प्रात: साफ सफाई कर घर में सजावट करती हैं। स्नान-ध्यान कर व धूप जलाती हैं एवं स्वादिष्ट व्यंजंन बनाती हैं। फिर फल, फूल, मिठाई, रोली, चावल और राखी एक थाल में रखकर उसे सजाती हैं। इसके बाद शुभ मुहूर्त के समय अपने भाई की लंबी उम्र और मुसीबतों से भाई की रक्षा की कामना करते हुए दायें हाथ पर राखी बांधती हैं। बदले में भाई भी अपनी बहन को हर संभव सुरक्षा का वचन देता है। वर्तमान में तो भाई कीमती भेंट भी बहनों को देते हैं।

रक्षाबंधन की तैयारी

वैदिक रक्षा सूत्र

रक्षासूत्र मात्र एक धागा नहीं बल्कि शुभ भावनाओं व शुभ संकल्पों का पुलिंदा है । यही सूत्र जब वैदिक रीति से बनाया जाता है और भगवन्नाम व भगवद्भाव सहित शुभ संकल्प करके बाँधा जाता है तो इसका सामर्थ्य असीम हो जाता है। प्रतिवर्षश्रावणी-पूर्णिमा को रक्षाबंधन का त्यौहार होता है, इस दिनबहनें अपने भाई को रक्षा-सूत्र बांधती हैं । यह रक्षासूत्र यदि वैदिक रीति से बनाई जाए तो शास्त्रों में भी उसका बड़ा महत्व है ।

कैसे बनायें वैदिक राखी ?

वैदिक राखी बनाने के लिए सबसे पहले एक छोटा-सा ऊनी, सूती या रेशमी पीले कपड़े का टुकड़ा लें।

(१) दूर्वा

(२) अक्षत (साबूत चावल)

(३) केसर या हल्दी

(४) शुद्ध चंदन

(५) सरसों के साबूत दाने

इन पाँच चीजों को मिलाकर कपड़े में बाँधकर सिलाई कर दें । फिर कलावे से जोड़कर राखी का आकार दें । सामर्थ्य हो तो उपरोक्त पाँच वस्तुओं के साथ स्वर्ण भी डाल सकते हैं।

वैदिक राखी का महत्त्व

वैदिक राखी में डाली जानेवाली वस्तुएँ हमारे जीवन को उन्नति की ओर ले जानेवाले संकल्पों को पोषित करती हैं ।

(१) दूर्वा

जैसे दूर्वा का एक अंकुर जमीन में लगाने पर वह हजारों की संख्या में फैल जाती है, वैसे ही ‘हमारे भाई या हितैषी के जीवन में भी सद्गुण फैलते जायें, बढ़ते जायें…’ इस भावना का द्योतक है दूर्वा । दूर्वा गणेशजी की प्रिय है अर्थात् हम जिनको राखी बाँध रहे हैं उनके जीवन में आनेवाले विघ्नों का नाश हो जाय ।*

(२) अक्षत (साबूत चावल)

हमारी भक्ति और श्रद्धा भगवान के, गुरु के चरणों में अक्षत हो, अखंड और अटूट हो, कभी क्षत-विक्षत न हो – यह अक्षत का संकेत है । अक्षत पूर्णता की भावना के प्रतीक हैं । जो कुछ अर्पित किया जाय, पूरी भावना के साथ किया जाय ।

(३) केसर या हल्दी

केसरकेसर की प्रकृति तेज होती है अर्थात् हम जिनको यह रक्षासूत्र बाँध रहे हैं उनका जीवन तेजस्वी हो । उनका आध्यात्मिक तेज, भक्ति और ज्ञान का तेज बढ़ता जाय । केसर की जगह पिसी हल्दी का भी प्रयोग कर सकते हैं । हल्दी पवित्रता व शुभ का प्रतीक है । यह नजरदोष व नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करती है तथा उत्तम स्वास्थ्य व सम्पन्नता लाती है ।

(४) चंदन

चंदन दूसरों को शीतलता और सुगंध देता है । यह इस भावना का द्योतक है कि जिनको हम राखी बाँध रहे हैं, उनके जीवन में सदैव शीतलता बनी रहे, कभी तनाव न हो । उनके द्वारा दूसरों को पवित्रता, सज्जनता व संयम आदि की सुगंध मिलती रहे । उनकी सेवा-सुवास दूर तक फैले ।

(५) सरसों

सरसोंसरसों तीक्ष्ण होती है । इसी प्रकार हम अपने दुर्गुणों का विनाश करने में, समाज-द्रोहियों को सबक सिखाने में तीक्ष्ण बनें ।

अतः यह वैदिक रक्षासूत्र वैदिक संकल्पों से परिपूर्ण होकर सर्व-मंगलकारी है ।

रक्षासूत्र बाँधते समय यह श्लोक बोला जाता है :

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वां अभिबध्नामि१ रक्षे मा चल मा चल।।

रक्षासूत्र बाँधते समय एक श्लोक और पढ़ा जाता है जो इस प्रकार है-

ओम यदाबध्नन्दाक्षायणा हिरण्यं, शतानीकाय सुमनस्यमाना:। तन्मSआबध्नामि शतशारदाय, आयुष्मांजरदृष्टिर्यथासम्।।

इस मंत्रोच्चारण व शुभ संकल्प सहित वैदिक राखी बहन अपने भाई को, माँ अपने बेटे को, दादी अपने पोते को बाँध सकती है । यही नहीं, शिष्य भी यदि इस वैदिक राखी को अपने सद्गुरु को प्रेमसहित अर्पण करता है तो उसकी सब अमंगलों से रक्षा होती है भक्ति बढ़ती है

महाभारत में यहरक्षा सूत्र माता कुंती ने अपने पोते अभिमन्यु को बाँधी थी । जब तक यह धागा अभिमन्यु के हाथ में था तब तक उसकी रक्षा हुई, धागा टूटने पर
अभिमन्यु की मृत्यु हुई । इस प्रकार इन पांचवस्तुओं से बनी हुई वैदिक राखी को शास्त्रोक्त नियमानुसार
बांधते हैं हम पुत्र-पौत्र एवं बंधुजनों सहितवर्ष भर सूखी रहते हैं ।

रक्षा सूत्रों के विभिन्न प्रकार

विप्र रक्षा सूत्र- रक्षाबंधन के दिन किसी तीर्थ अथवा जलाशय में जाकर वैदिक अनुष्ठान करने के बाद सिद्ध रक्षा सूत्र को विद्वान पुरोहित ब्राह्मण द्वारा स्वस्तिवाचन करते हुए यजमान के दाहिने हाथ मे बांधना शास्त्रों में सर्वोच्च रक्षा सूत्र माना गया है।

गुरु रक्षा सूत्र- सर्वसामर्थ्यवान गुरु अपने शिष्य के कल्याण के लिए इसे बांधते है।

मातृ-पितृ रक्षा सूत्र- अपनी संतान की रक्षा के लिए माता पिता द्वारा बांधा गया रक्षा सूत्र शास्त्रों में “करंडक” कहा जाता है।

भातृ रक्षा सूत्र- अपने से बड़े या छोटे भैया को समस्त विघ्नों से रक्षा के लिए बांधी जाती है देवता भी एक दूसरे को इसी प्रकार रक्षा सूत्र बांध कर विजय पाते है।

स्वसृ-रक्षासूत्र- पुरोहित अथवा वेदपाठी ब्राह्मण द्वारा रक्षा सूत्र बांधने के बाद बहिन का पूरी श्रद्धा से भाई की दाहिनी कलाई पर समस्त कष्ट से रक्षा के लिए रक्षा सूत्र बांधती है। भविष्य पुराण में भी इसकी महिमा बताई गई है। इससे भाई दीर्घायु होता है एवं धन-धान्य सम्पन्न बनता है।

गौ रक्षा सूत्र- अगस्त संहिता अनुसार गौ माता को राखी बांधने से भाई के रोग शोक डोर होते है। यह विधान प्राचीन काल से चला आ रहा है।

वृक्ष रक्षा सूत्र – यदि कन्या को कोई भाई ना हो तो उसे वट, पीपल, गूलर के वृक्ष को रक्षा सूत्र बांधना चाहिए पुराणों में इसका विशेष उल्लेख है।

वैदिक रक्षासूत्र

रक्षासूत्र मात्र एक धागा नहीं बल्कि शुभ भावनाओं व शुभ संकल्पों का पुलिंदा है । यही सूत्र जब वैदिक रीति से बनाया जाता है और भगवन्नाम व भगवद्भाव सहित शुभ संकल्प करके बाँधा जाता है तो इसका सामर्थ्य असीम हो जाता है। प्रतिवर्षश्रावणी-पूर्णिमा को रक्षाबंधन का त्यौहार होता है, इस दिनबहनें अपने भाई को रक्षा-सूत्र बांधती हैं । यह रक्षासूत्र यदि वैदिक रीति से बनाई जाए तो शास्त्रों में भी उसका बड़ा महत्व है ।

आज का दिन श्रावण मास का अंतिम दिवस्य है शिवाराधना करते रहे।

श्रावण मास में यह रही विशेषता शिवजी की आराधना का दिव्य माह आज पूर्ण हो जावेगा

558 साल पहले यानी 1462 में बना था। सोमवार से शुरू होकर सोमवार को सावन खत्म होने से इस माह का महत्व विशेष हो जाता है।

4 ग्रह रहें वक्री इस बार सावन में गुरु, शनि, राहु केतु

558 साल पहले सन 1462 में भी गुरु, शनि, राहु-केतु एक साथ वक्री थे और सावन आया था। उस समय गुरु स्वयं की राशि धनु में वक्री, शनि अपनी राशि मकर में वक्री, राहु मिथुन में और केतु धनु राशि में वक्री था। ऐसा ही योग 2020 में भी बना है। उस समय सावन 21 जून से 20 जुलाई 1462 तक था।

कोरोना को हराना है पर्व भी मानना है

सर्वे भवन्तु सुखिनः

रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद
अध्यात्मचिन्तक

एन सी आर खबर ब्यूरो

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