धर्मनिरपेक्षता की पहली शर्त है कि कड़वा सच बोलकर किसी को शर्मिंदा नहीं करना। और कट्टरता की पहली शर्त है कड़वा सच सुनकर किसी से शर्मिंदा नहीं होना। किसी को शर्मिंदा करना अशिष्टता माना जाता है इसलिए ज़्यादातर बुद्धिजीवी कड़वा सच नहीं बोलते। ऐसा बोलने से लोकप्रियता जाने का खतरा बना रहा है। लोकप्रियता गंवाकर सच बोलना हिम्मत का काम है। लेकिन अगर आपका अंतिम लक्ष्य ‘सच’ न होकर ‘लोकप्रियता’ हो, तो आप ये हिम्मत कभी नहीं दिखाते। सच को अनदेखा कर आप लोकप्रियता बने रहते हैं।
बुद्धिजीवी का ये रवैया कट्टरता को खुला मैदान दे देता है। उसके रास्ते में कोई बाधा नहीं आती। कट्टरता खूब पनपती है। सवाल उठाने वालों के लिए वो मौत की सज़ा तय करती है। सवाल पूछने वाले अपने ही लोगों को देश निकाला देती है। और कोई भी कौम जो खुद से सवाल नहीं पूछती, वो धीरे-धीरे सड़ने लगती है। अपनी सड़ांध के लिए खुद को दोषी मानना मुश्किल काम है। इसलिए वो अपनी बर्बादी के लिए हर जगह कसूरवार ढूंढती है। कसूरवार को सबक सिखाने को वो अपना लक्ष्य बना लेती है। सज़ा देने जैसा नकारात्मक काम उसे ऊर्जा से भरता है। ऐसे कामों को वो जिहाद का नाम देकर पवित्रता बख्शती है। इसलिए ऐसी कौमें ताकत दिखाने के नाम पर सिर्फ विध्वंस करती है। वो सृजन से नहीं, विनाश से अपनी उपस्थिति दर्शाती हैं। जैसी सैंकड़ों सालों से दिखा रही है। मगर वो ये नहीं सोच पातीं कि जिन चीज़ों को वो ख़त्म करने निकली हैं उसमें वो खुद भी शामिल हैं। उसका ये लक्ष्य खुद उसकी आहुति के बिना कभी पूरा नहीं होगा।
आज एक खास तबका सिर्फ इसलिए तड़प रहा है क्योंकि देश की ज़्यादातर जनता ने उसकी कट्टरता को खुला मैदान देने से मना कर दिया है। बुद्धिजीवियों की तरह आम आदमी लोकप्रिय होने की ऐसा कोई मजबूरी को नहीं मानता। वो आपको आपकी खामियां बताता है। वो कड़वा सच बोल रहा है। वो ऐसे सवाल पूछ रहा है जिन्हें सुनने की आपको आदत नहीं थी। आप उन सवालों से बिलबिला रहे हैं। आप तर्क से उन बातों को काट नहीं सकते। इसलिए उपद्रव पर उतर आए हैं। खुद को पीडि़त साबित करने में लगे हैं। क्योंकि इसी पीडित की थ्योरी से फिर आप अलगाव का बिगुल बजाएँगे। जैसे दुनिया का हर हिस्से में बजाते आए हैं। मगर ये खेल बहुत पुराना और घिसपिटा हो चुका है। ये देश भी इसे कई बार देख चुका है। और आज इस देश के लोगों ने और मूर्ख बनने से इँकार कर दिया है और यही आपकी असली तकलीफ है।