सिर्फ ईवीएम को दोष देकर अपनी कमजोरी एवं गलतियों पर पर्दा नहीं डाल सकते हैं।
सर्वप्रथम हम ईवीएम को क्लीन चिट नहीं दे रहे हैं।
ईवीएम ही इतनी बड़ी हार का कारण विपक्षी दलों के लिए नहीं बनी है बल्कि इसके पीछे उनका अहंकारी सामंतवादी सोच के साथ साथ अपने चाटुकारिता कोटरी से भी है। अगर कॉन्ग्रेस को हम छोड़ दें तो लगभग सारे विपक्षी दल किसी जाति धर्म या भाषा के आधार पर बने हैं। आम आदमी पार्टी जो भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों ने उसको वोट डालकर सिर्फ तक पहुंचाया था वह भी जातिवाद रिश्तेदारों सामंत शाही प्रवृत्ति में आकर ढलान पर तेजी से अग्रसर है।
63 पार्षद एवं तीन विधायक तृणमूल कांग्रेस के भाजपा में शामिल हो गए जो यह बताता है कि तृणमूल कांग्रेस की हार लोकसभा में जो हुई थी वह बिल्कुल सही है। यह एक बहुत बड़ी संख्या है जो जनता के बड़े आबादी को प्रतिनिधित्व देता है । स्पष्ट है कि जनता के साथ साथ उसके पार्टी के विधायक एवं अन्य नेता भी साथ नहीं थे।
जब कोई विधायक सांसद पार्षद आदि जब एक पार्टी को छोड़कर दूसरे पार्टी में जाता है तो इसमें ईवीएम की कोई भूमिका नहीं होती। अगर ममता बनर्जी के कहती हैं कि सिर्फ ईवीएम के कारण उसकी हार हुई है तो यह 100 फ़ीसदी गलत बात है। कहीं ना कहीं उनका व्यवहार और तानाशाही रवैया भी इसके लिए जिम्मेदार है । जब आप के विधायक पार्षद एवं अन्य नेता ही आपके साथ नहीं है तो फिर ईवीएम पर ठीकरा फोड़ना बिल्कुल तर्कसंगत नहीं है।
यही चीज बीएसपी सुप्रीमो मायावती जी एवं अन्य पार्टी के प्रमुख पर भी लागू होता है। वह तो सालों काम कर रहे घोषित उम्मीदवार को भी बिना ठोस कारण के बदल देती है। उन्हें अपनी मानसिकता बदलनी होगी वह सिर्फ टिकट दे सकती है लेकिन जनता उसी को चुनता है जो उम्मीदवार उसके सुख दुख में उसके क्षेत्र में शामिल रहा है । अंतिम क्षणों में प्रत्याशी को बदलने के बाद खुद नए प्रत्याशी के पास इतना समय नहीं होता है कि वह पूरे क्षेत्र की जनता के बीच में जाए और उसके सुख-दुख को सुनें। सोशल मीडिया से सिर्फ सूचना दी जा सकती है लेकिन आज के समय में वोटर उसे ही वोट करता है जिसको अपने बीच में खड़ा होते देखा है । गणतंत्र में लोकमत ही अंतिम परिणाम देता है। परिस्थितियां बदल चुकी है आप किसी एक दो जाति समीकरण के बदौलत चुनाव नहीं जीत सकते। जातियों पर आधारित पार्टियों का अहम तो सामंतवाद के चरम सिरे को भी पार कर चुका है।
अब तो जातिवादी पार्टी उम्मीदवार के समाज के प्रति समर्पण को नहीं देखती सिर्फ उसके तिजोरी को देखती है। यही कारण है कि सपा बसपा राजद आप आदि पार्टियों को चुनाव में जबर्दस्त हार मिला है। पैसे के प्रति उनका प्रेम का संदेश जिला अध्यक्ष महासचिव आदि में भी जा रहा है इसलिए वह भी आर्थिक नफा नुकसान सोच कर पार्टी सुप्रीमो को किसी उम्मीदवार के पक्ष में या विपक्ष में अपनी सूचनाएं देते हैं। इसीलिए इन पार्टियों में समाजसेवी उम्मीदवार कम, पैसे वाले उम्मीदवार को ही टिकट दिया जाता है। जाहिर सी बात है कि इन पार्टियों के सुप्रीमो के साथ हर बड़े छोटे पद पर आसित लोग भी पैसे को प्रमुखता दे रहे हैं। अब वह जमाना चला गया कि लोग सिर्फ जाति के नाम पर वोट देते हैं। क्योंकि उन्ही जातियों में सामाजिक एवं कर्मठ लोग भी होते हैं जो जनता के बीच में रहते हैं और जनता का कार्य कराने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं। ऐसे लोग को जनता अपना समर्थन के साथ साथ वोट भी देती है। सिर्फ पैसे के बल पर जिन टिकट मिलता है वह जनता का समर्थन हासिल नहीं कर पाते हैं क्योंकि जनता उनको कभी ना देखी है और ना अपने साथ खड़े होते हुए पाया है।
इस समय छोटी-छोटी पार्टियों के सुप्रीमो, के धन के प्रति, अति प्रेम एवं भव्य जीवन व्यतीत करने के कारण उन्हीं के जाति के लोग अब उन से विमुख हो रहे हैं। इसी कारण से जब वह सत्ता में रहे तो भ्रष्टाचार चरम पर था। इसलिए जब वह विपक्ष में है तो सत्तारूढ़ दल के भ्रष्टाचार पर उंगली प्रभावी ढंग से नहीं उठा पा रही हैं।
इसलिए सर ईवीएम को दोष देना बिल्कुल गलत है बल्कि इसकी आड़ में विपक्षी दल अपने तानाशाह, भ्रष्टाचार सामंती प्रवृत्ति एवं आर्थिक लोलुपता छुपा रहे हैं।
बीजेपी और उसकी सहयोगी संस्थाएं इसी कमजोरी का फायदा उठा रहे हैं और विजय भी हो रहे हैं।
शैलेंद्र वर्णवाल