ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट विवाद : चोरी और सीनाजोरी – योगेन्द्र यादव
योगेन्द्र यादव I ये ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट वाला विवाद एक बार फिर साबित करता है कि भ्रष्टाचार का खात्मा करने आई पार्टी राजनैतिक भ्र्ष्टाचार में दूसरी पार्टियों से भी आगे निकल चुकी है। चोरी सब करते हैं, लेकिन बाकी चोरी पकड़े जाने पर बगलें झांकते हैं, बहाने बनाते हैं। यह पार्टी पकड़े जाने पर पलट कर दूसरों को आँखे दिखाती है, चोरी को पूजा बताती है, एक बार फिर अपने आप को मोदी का शिकार दिखाती है।
मामला सीधा-सादा है। सत्ताधारी पार्टियां मंत्रीपद की रेवड़िया बाँट कर भ्रष्टाचार न कर सकें, इसलिए संविधान में संशोधन किया गया था और मंत्रिमंडल की अधिकतम संख्या बाँध दी गयी थी। दिल्ली में अधिकतम सात मंत्री और एक संसदीय सचिव बन सकता था। लेकिन अभूतपूर्व चुनावी विजय के बाद असाधारण पार्टी के अनूठे मुख्यमंत्री ने अभूतपूर्व काम किया — एक नहीं, दो नहीं सीधे 21 संसदीय सचिव नियुक्त दिए। क्यों किये, आप खुद ही सोचिये।अगर MLA को अलग-अलग विभाग की निगरानी का काम ही सौंपना था तो अनेक सीधे रास्ते थे — विधान सभा समितियों के सदस्य और अध्यक्ष इसी काम के लिए होते हैं। अगर आप याद करें की मार्च 2015 पार्टी में क्या हो रहा था तो आप समझ जायेंगे कि आनन-फानन में यह रेवड़ियां क्यों बटीं।
खैर, यह नियुक्ति अनैतिक तो थी ही, गैर कानूनी भी थी। चुनाव आयोग से नोटिस आ गया, चूंकि इस उल्लंघन की जांच स्पीकर या उपराज्यपाल नहीं करता। इस उल्लंघन का फैसला चुनाव आयोग करता है। सजा के बतौर उन MLA की सीट खाली हो सकती है। चुनाव आयोग के कारण बताओ नोटिस का कोई जवाब नहीं बन रहा था। 21 सीटें जाने का खतरा है। फैसला चुनाव आयोग करेगा तो रोने की गुंजाईश भी नहीं होगी। जंग या मोदी को दोष भी नहीं दिया जा सकता।
इसलिए दिल्ली विधान सभा से एक उल्टा कानून बनने की चाल खेली गयी। बैक डेट से 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति को वैध बनाने का कानून विधान सभा में पास करवाया गया। नेता लोग कानून बनाकर अपनी पुरानी चोरी पर पर्दा डालते हैं, यही तो राजनैतिक भ्रष्टाचार है। बीजेपी इससे परहेज़ नहीं है। अगर राजस्थान सरकार ये चोरी करना चाहती तो मोदी सरकार खुशी-खुशी ठप्पा लगा देती। लेकिन जो मोदी सरकार दिल्ली सरकार के सही काम में अड़ंगा लगती है, वो भला उसकी चोरी में पार्टनर क्यों बनेगी। इसलिए राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर नहीं किये।
बस अब रोने के लिए वो बहाना मिल गया जिस की तलाश थी। अब चुनाव आयोग से हटाकर ध्यान मोदी सरकार पर भटकाया जा सकता है। अनैतिक नियुक्तियों सवाल को अब राष्ट्रपति के स्वीकृति के सवाल पर उलझाया जा सकता है। एक बार फिर मीडिया और जनता को बरगलाया जा सकता है।
अब देखते जाइये। फुल नौटंकी शुरू!
लेखक आम आदमी पार्टी के पूर्व सदस्य हैं