सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के पौत्र तेज प्रताप के तिलक समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल क्या हुए कि इसके राजनीतिक निहितार्थ तलाशे जाने लगे। सवाल उठा कि यह क्या इसके पीछे मोदी और मुलायम सिंह की कोई नई राजनीतिक रणनीति है?
क्या भाजपा राज्यसभा में सपा का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन चाहती है ताकि जरूरी बिलों का पास करवा सके? क्या एनसीपी मुखिया शरद पवार के साथ मंच साझा करने के पीछे भी मोदी की यही मंशा थी? जब कांग्रेस और अन्ना ने भाजपा के खिलाफ जंग छेड़ने का ऐलान कर दिया हो और जब दिल्ली के बाद बिहार के राजनीतिक संग्राम में भाजपा गच्चा खा चुकी हो, तब क्या मोदी के लिए विपक्षी दलों को साधना जरूरी हो गया है?
कहते हैं कि राजनीति में कोई किसी का न तो स्थायी दुश्मन होता है और न ही दोस्त। अंदरखाने में हर कोई जरूरत पर एक-दूसरे का हाथ पकड़ लेता है पर यह अलग बात है कि राजनीतिक वैज्ञानिक ही इस केमेस्ट्री को पकड़ पाते हैं। याद कीजिये 2004 में यूपी का सीन। मायावती को समर्थन देकर भाजपा ने उन्हें मुख्यमंत्री बनवा दिया पर जब खुद फल चखने की बारी आई तो बसपा ने किनारा कर लिया।
कहते हैं तब भाजपा ने अंदरखाने में अप्रत्यक्ष समर्थन कर मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री बनवा दिया था। तब केंद्र में भाजपा की सरकार थी और प्रधानमंत्री थे अटल बिहारी वाजपेयी। अब किसी को बताने की जरूरत नहीं कि अटल का मुलायम सिंह पर कितना आशीर्वाद था।अब जरा आज इटावा के तिलक समारोह के पीछे छिपी सियासत पर नजर डालते हैं। जिस प्रकट आत्मीयता से मोदी और मुलायम मिले, गले मिले, कसकर हाथ पकड़े रहे, क्या कोई कह सकता है कि ये चुनाव के दौरान एक-दूसरे पर कितने घातक शब्दभेदी वाण चलाते थे। अब तो ऐसे गलबहियां डाले हैं जैसे दोनों एक-दूजे केलिए ही हों। हमने हर प्रमुख दल के नेताओं से बातचीत कर मोदी-मुलायम की हालिया जुगलबंदी को जानने की कोशिश की तो लब्बोलुआब निकला कि फिलहाल दोनों को एक-दूसरे की जरूरत हो सकती है।
राज्यसभा की 250 सीटों में 67 कांग्रेस के पास हैं और मात्र 46 भाजपा के पास। अब भाजपा के घटकदल समर्थन में भी खड़े भी हो जाएं तो एनडीए 125 (बहुमत) तक नहीं पहुंचती। अब तो जद-यू (12 सीटें) भी जानी दुश्मन की भूमिका में है। तूणमूल कांग्रेस (11 सीटें) की ममता को भाजपा से ममता नहीं है। कम्युनिस्ट (2 सीटें) और कम्युनिस्ट (मार्क्सवादी-9 सीटें) भाजपा के साथ जाने से रहीं। 12 नामित सदस्यों में ज्यादातर कांग्रेस की कृपा से ही आए हैं। सपा (15) और बसपा (10 सीटें) की राज्यसभा में बड़ी निर्णायक स्थिति में हैं।
एनसीपी (6 सीटें) के शरद पवार भी महत्वपूर्ण भूमिका में है। जाहिर है कि यदि इनका रूझान एनडीए की तरफ हो जाए तो राज्यसभा में महत्वपूर्ण बिल (जैसे भूमि अधिग्रहण, खाद्य सुरक्षा, एफडीआई, कोयला खनन आदि) पास करवाना आसान होगा और यह भाजपा की अग्निपरीक्षा है, वरना वह पब्लिक में किए गए वादों को कैसे पूरा करेगी। किरकिरी होगी वो अलग। सामने अन्ना और कांग्रेस के आंदोलन से निपटना भी एक चुनौती है। एनडीए के विपक्षी दल बजट सत्र में उसे घेरने की रणनीति तैयार करने में जुटे हैं।
उधर, दो साल बाद यूपी में चुनाव है। जनता से किए गए वादे पूरे करने लिए मुलायम को केंद्र सरकार की मदद की जरूरत है। यूपी की सपा सरकार को केंद्र से भारी धनराशि की जरूरत है जिसका चिट्ठा सीएम अखिलेश यादव उसे सौंप चुके हैं। एक सूत्र ने तो यहां तक बताया सपा सांसदों को हिदायत है कि सीधे मोदी पर हमला मत करो। शायद यही कारण है ये दोनों खांटी राजनीतिज्ञ सोच रहे हैं कि दिल न मिले तो क्या, चलो हाथ ही मिला लें, ये वक्त की मांग है और समझदार सियासत भी। शायद तभी केंद्र की राजनीति में अब सपा, बसपा और भाजपा एक-दूसरे पर उतने गरम नहीं दिखते। फिलहाल तो मोदी मुंह मीठा करके गए हैं पर क्या राज्यसभा में भी मुलायम सिंह मोदी को कड़ुए घूंट से बचाएंगे? यह तो वक्त ही बताएगा।