सिर्फ शादी के लिए धर्मातरण करना वैध नहीं : हाई कोर्ट
इलाहाबाद। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा है कि इस्लाम में आस्था और विश्वास नहीं रखने वाली किसी लड़की का किसी मुस्लिम लड़के से ‘शादी करने के उद्देश्य’ से किया गया धर्मातरण वैध नहीं कहलाएगा। न्यायाधीश सूर्य प्रकाश केसरवानी ने उत्तर प्रदेश के पांच जिलों से आई ऐसी पांच याचिकाओं को खारिज करते हुए यह आदेश सुनाया।
याचिकाओं में पांच शादीशुदा जोडों ने ‘विवाहित जोड़ों को संरक्षण’ के तहत याचिकाएं दाखिल की थीं। इनमें से हर एक मामले में लड़का मुस्लिम है और लड़की हिंदू। लड़की का ‘निकाह’ के लिए धर्म परिवर्तन कराया गया। सुप्रीम कोर्ट और पवित्र कुरान के हवाले अपने फैसले में न्यायाधीश केसरवानी ने सुप्रीम कोर्ट के वर्ष 2000 के एक आदेश का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि किसी गैर-मुस्लिम का जबकि वह मुस्लिम धर्म में आस्था और विश्वास नहीं रखता, सिर्फ विवाह के उद्देश्य से किया गया धर्मातरण वैध नहीं कहलाएगा।
हाई कोर्ट ने कहा कि ऐसी शादियां पवित्र कुरान के सूरा दो आयत 221 के आदेश के खिलाफ हैं। हाई कोर्ट ने कहा कि पवित्र कुरान के मुताबिक ऐसी किसी महिला से तब तक निकाह न करें, जब तक कि वह इस्लाम में यकीन न करने लगे।
कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता लड़कियां इस बात पर कायम रहीं कि उन्हें इस्लाम के बारे में कोई जानकारी नहीं है। याचिका और कोर्ट के समक्ष दिए बयानों में लड़कियों ने यह भी नहीं कहा कि उन्हें ईश्वर के किसी एक रूप में आस्था या विश्वास है। उन्होंने कहा कि उनका धर्म परिवर्तन का एकमात्र कारण शादी ही है। कोर्ट ने कहा कि धर्म परिवर्तन के मामले में व्यक्ति का नए धर्म के सिद्घांतों में दिल से और ईमानदारी से परिवर्तन होना चाहिए। अल्लाह और मोहम्मद साहब में यकीन और आस्था के बिना महज कुछ हासिल करने के लिए किया गया धर्म परिवर्तन जायज नहीं ठहराया जा सकता।
राज्य सरकार से सहमत इस मामले में कोर्ट ने प्रदेश सरकार से भी सहमति जताई। प्रदेश सरकार ने कहा था कि याचिकाकर्ता ‘विवाहित जोड़ों के रूप में संरक्षण पाने के अधिकारी नहीं हैं’ क्योंकि मुस्लिम पर्सनल लॉ भी हिंदू से इस्लाम के इस धर्म परिवर्तन की इजाजत नहीं देता। पांचों याचिकाएं अलग-अलग समय पर अलग-अलग जिलों में दाखिल की गई थीं। बाद में इन्हें एकसाथ हाई कोर्ट में दाखिल किया गया।