कथा से जन्मी कथा: रात ठीक 12. 55 बजे मोबाइल घनघनाया तो मैंने उसे तपाक से उठाया और हरा बटन दबाया। ” सुभाष जी बोल रहे हैं। ” उधर से आवाज आई। ” जी, लेकिन आप ? ” मैंने खीजते हुए पूछा। ” ” आपकी जो विज्ञान कथा ‘ एक अनोखा षड़यंत्र ‘ विज्ञान प्रगति के जून 2014 अंक में छपी है, उसमें आपने जिस फ़ास्ट फ़ूड ” खो – पो ” के बारे में बताया है क्या वैसा हुआ है ?” उन्होंने सवाल किया। खुशी तो हुई कि किसी पाठक ने कभी दिन में न सही रात में तो सवाल किया है लेकिन दुःख इस बात का था कि मेरे इस पाठक ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि मैंने उस कथा में लिखा है – ” खो – पो ” नाम से एक फास्ट फूड वर्ष 2015 से बाजार में आया था और उसके आने के वर्षों बाद एक अनोखी बीमारी ने पूरे देश को अपने चपेट में ले लिया था। सन् 2029 तक इस रोग की चपेट में लाखों लोग आ चुके थे……..।” खैर, खीज को दबाते हुए मैंने उन्हें कहा, ” देखिए, ये एक विज्ञान गल्प है और इसे महज इस कल्पना के आधार पर लिखा गया है कि भविष्य में दुश्मन देश हमें नुकसान पहुँचाने के लिए ‘आहार सामग्री ‘ का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। ” वे हॅंसते हुए बोले, ” समझ गया जी लेकिन मैं यह भी पता करना चाहता था कि आप स्वदेश आ चुके हैं या नहीं। ” बहरहाल, अब मैं उन्हें कुछ और कहता भी कैसे क्योंकि मेरी नींद को ख़राब कर उन्होंने अपने मोबाइल को तत्काल सुला दिया था। इतना जरूर है कि उसके बाद मैं यह विचार करने लगा कि मोबाइल जैसे आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल करने के बावजूद आज भी मेरे देश में साइंटिफिक टेंपर यानी वैज्ञानिक सूझबूझ की कमी बनी हुई है। सवाल है कि इस समस्या से कैसे निपटा जाए ? सुबह आँख खुली तो यह लघु कथा लिख डाली ताकि आप भी इस कार्य में कुछ मदद कर सकें।
सुभाष लखेड़ा की फेसबुक वाल से