उपचुनाव: बदलेगी वेस्ट यूपी की सियासत

वैसे तो पश्चिम में सपा और भाजपा दोनों के लिए मिश्रित परिणाम रहे हैं, लेकिन भविष्य के लिहाज से यह काफी महत्वपूर्ण होंगे। बिजनौर और ठाकुरद्वारा में सपा की जीत भाजपा के लिए चिंता का सबब है।
पार्टी में जहां भविष्य के लिए लिहाज से गुटबाजी को खत्म करना अहम होगा, वहीं प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी के लिए गहन आत्ममंथन की स्थिति है। बिजनौर से रुचि वीरा के विधायक बनने से सपा में आजम खां का अंदरखाने विरोध करने वाले मुस्लिम नेताओं को भी झटका लगा है।
वहीं चुनाव से बाहर रही रालोद अब चौ. चरण सिंह स्मारक के नाम पर अपने परंपरागत जाट वोटरों को वापस खेमे में लाने की कोशिश करेगी। बसपा शांत तरीके से अपनी रणनीति बना ही रही है।
उपचुनावों में बेशक कांग्रेस ने प्रत्याशी उतारे थे, लेकिन सपा और भाजपा के बीच ही सीधी टक्कर थी। बिजनौर में सपा की जीत में भाजपा नेताओं की गुटबाजी ने भी अहम रोल निभाया। भाजपा सांसद कुंवर भारतेंद्र को भी यह हार भविष्य में काफी सालेगी।
सहारनपुर और नोएडा की जीत भाजपा को सांत्वना तो दे सकती है, लेकिन चुनावों के दौरान ही सहारनपुर में भी गुटबाजी खुलकर सामने आ गई थी। ऐसे में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी को जहां राष्ट्रीय स्तर पर अपने बड़े नेताओं को जवाब देना पड़ सकता है, वहीं स्थानीय स्तर पर भी नेताओं को साधने में मशक्कत करनी पड़ेगी। सपा में बिजनौर से रुचि वीरा के जीतने से आजम खां की पश्चिम की राजनीति में स्थिति बेहतर होगी।
एक खेमा चुनाव से पहले ही वैश्य वर्ग की महिला होने के कारण रुचि वीरा के जीतने पर उनके मंत्री बनने के कयास लगाने लगा था।
वहीं चुनाव की सफलता से जितनी सपा उत्साहित है, उनके साथ उतने ही उत्साहित रालोद नेता भी हैं। कुछ रालोद नेताओं का तो यहां तक कहना है कि बिजनौर और ठाकुरद्वारा में जाट वर्ग का काफी वोट दिल्ली में कोठी के मामले के विरोध में भाजपा के बजाय सपा प्रत्याशियों के पक्ष में चला गया। ऐसे में चौ. चरण सिंह स्मारक के नाम पर रालोद अब फिर से अपने परंपरागत जाट वर्ग सहित किसान वर्ग से जुड़ी दूसरी जातियों को भी अपने खेमे में लाना चाहता है।
लोकसभा चुनावों में जाट वोटर काफी संख्या में भाजपा में गए थे और रालोद भावनात्मक माहौल तैयार करके इन्हें वापस अपने खेमे में लाना चाहती है। इन चुनावों में दलित वोटरों की खामोशी भी सबको चौंका गई।
भाजपा उम्मीद कर रही थी कि बसपा प्रत्याशी न होने के कारण भारी संख्या में दलित वोटर उनको मिलेगा, लेकिन कई सीटों पर ऐसा हुआ नहीं। बसपा समर्थित निर्दलियों को भी नाम मात्र के ही वोट मिले। ऐसे में अब बसपा के सामने अपने दलित वोटरों को मजबूती से अपने साथ जोड़े रखने के साथ मुस्लिमों को अपने पाले में करने की चुनौती होगी। बसपा चाहेगी कि दलित-मुस्लिम समीक
रण के सहारे वह भविष्य में बेहतर सफलता हासिल करे। कांग्रेस का पश्चिम में प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। ऐसे में सबसे अधिक मैराथन कवायद कांग्रेसियों को करनी पड़ेगी। लोकसभा चुनावों में प्रदेश में भाजपा के पक्ष में लहर चली थी। विधानसभा चुनावों में सपा ने बेहतर प्रदर्शन किया था। ऐसे में पश्चिम को महत्वपूर्ण मानते हुए सभी दलों को नए सिरे से अपनी रणनीति तैयार करनी होगी। इस रणनीति में कौन से नए नेता फिट होंगे या फिर किनके पर कतरे जाएंगे, ये भी देखने वाली बात होगी।