लोकपाल विधेयक जिस हड़बड़ी में कानून बनने जा रहा है, वह अटपटा है, क्योंकि इसके कई मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर संसद में ही नहीं, संसद के बाहर भी जमकर बहस होनी चाहिए। देश की सारी अक्ल का ठेका संसद ने ले रखा हो, ऐसा नहीं है। संसद ने यों अब तक काफी संतुलित और प्रामाणिक कानून बनाए हैं, लेकिन आपात्काल और राजीव-काल के ऐसे उदाहरण भी हैं, जबकि उसने अनेक हास्यास्पद और घोर आपत्तिजनक विधेयक पारित किए हैं। ऐसा भी हुआ है कि जिस विधेयक को एक सदन ने पारित कर दिया, उसे मूर्खतापूर्ण मानकर दूसरे सदन में पेश ही नहीं किया गया। लोकपाल बिल के साथ भी लगभग ऐसा ही हो रहा है। एक सदन ने उसे पारित कर दिया। फिर उसमें दर्जनों संशोधन सुझाकर दूसरे सदन की प्रवर समिति को भेज दिया। अब उस संशोधित विधेयक को दोनों सदन दुबारा पास करेंगे। यह हड़बड़ी इसलिए भी बढ़ गई है कि अन्ना हजारे अपने काठ के घोड़े पर दोबारा सवार हो गए हैं। उनका अनशन सामने हैं। सबको पता है कि रामलीला मैदान में जो लीला हुई थी, वह लोकपाल या अन्ना के लिए नहीं बल्कि भ्रष्टाचार के इलाज़ के लिए हुई थी। लोकपाल का असली पिता तो अरविंद केजरीवाल है। अन्ना को लोकपाल की समझ न तब थी और न अब है। अरविंद ने इशारे ही इशारे में कह भी दिया है कि अन्ना ने शायद उस विधेयक को ध्यान से नहीं पढ़ा है। जो भी हो, देखिए कितना मजेदार तमाशा हो रहा है। गुरु कहता है- इसे पास करो, वरना मर जाउंगा और चेला कहता है कि इस लोकपाल में दम ही नहीं है। यह चूहे को भी नहीं पकड़ सकता। यह लोकपाल नहीं, जोकपाल है। लोकपाल पर सभी पक्ष घनघोर राजनीति कर रहे हैं। अन्ना चाहते हैं, इस संसार से कूच करने के पहले उनके सिर पर पगड़ी बंध जाए। कांग्रेस और भाजपा चाहती हैं कि लोकपाल आगे जाकर चाहे जोकपाल या धोकपाल ही सिद्ध हो, उन्हें इसका श्रेय मिल जाए और इस लोकपाल का असली जनक अरविंद चाहता है कि अन्ना समेत सभी इसका श्रेय क्यों लूटें? उसका असली जनक क्या हाथ मलता रह जाएगा? कोई भी यह नहीं कह रहा है कि जो विधेयक पिछले 40 साल से अधर में लटका हुआ है, उस पर कम से कम 40 घंटे तो बहस चलाओ। राजनीतिक दल उसे आंख मींचकर पास करने पर आमादा हैं और केजरीवाल एंड कंपनी उसे जड़मूल से ही रद्द कर रही है। लोकपाल चाहे जिस ब्रांड का आप ले आएं, जब तक देश में ईमानदारी का नैतिक माहौल नहीं बनेगा, वह भी नेताओं के हाथ का खिलौना बनकर रह जाएगा।
लेखक डॉ. वेद प्रताप वैदिक वरिष्ठ पत्रकार हैं.