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आप, समाज और राष्ट्र : एक विचार

पहला तो है व्यक्तिगत स्तर – कोई शक नहीं व्यक्तिगत स्तर पर कई अच्छे लोग हैं काम करते भी हैं। दूसरी जगह वातावरण से प्रभावित विचारों के आदान प्रदान होता है , सहज भी है पर बायस्ड होता है, स्वतन्त्रता और सृजनात्मकता का घोर अभाव दीखता है।

दूसरा है सामाजिक – वहां थोडा गड़बड़ दिखती है। कारण कि भारतीय जनमानस का भावुक होना जो हमारे बेसिक कल्चर के विकास के तत्त्वों से प्रेरित है। कहें तो पालन पोषण के तरीके में रेशनल और भावुकता का प्रोपोर्शन असंतुलित है। ये बनाता है अवैज्ञानिक व्यवहार और जो आत्मनिर्भर स्वयं नहीं हैं , उनके मानसिक शोषण का जनक है। कोई शक नहीं जिसको रस्ते पर चलना है वो स्वतंत्र रूप से चल लेता है। बाकि उसी वातावरण से प्रभावित होकर उसी गड़बड़ झमेलो को पोषित करते रहते हैं। कारण एक ही है – इसके निराकरण के लिए कोई स्टेप लिया नहीं जाता, नए प्रयोगों से डर लगा रहता है। दूसरा है मनोविज्ञान का टोटल अभाव। ह्युमन बिहेवियर के उन्नति की कोई व्यवस्था नहीं है समझने को शिक्षा प्रणाली में।

तीसरा है – राष्ट्रीय व्यहार : इस बारे में इतना ही कि जैसा समाज वैसे नेता और बाबा। इसी समाज का अक्स है कोई मंगल गृह से नहीं टपका है। इसी माहौल से पैदा हुए हैं, हमारा ही नेतृत्व हैं। प्रश्न है – आखिर गड़बड़ है कहाँ। और चूँकि धर्म की घुसपैठ और भावना का दुरूपयोग चारो तरफ दिखता है तो सहज है कि धर्म के पक्ष की ओर ही ऊँगली उठेगी। इन तीन स्तरों के भीतर ही मेरे मतानुसार सारे कारण और समाधान भी हैं। इसका कोई कितना भी विस्तार कर सकता है।

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