संपादकीय

शिव की जल समाधि ने दिया प्रलय का संकेत

flood-shiv-51c168d81baf5_lउत्तराखंड में आई आपदा ने माया और मुक्ति के बीच खड़ी इंसानियत को जार-जार रोने को बाध्य कर दिया। बात इतनी होती तो शायद इस पर चरचा बेमानी थी। लेकिन, इस दैवी आपदा ने समाज में विशेष भूमिका निभाने वालों की संवेदनहीनता की ही पोल पट्टी खोल दी। ऐसे में इस पर चरचा जरूरी हो जाता है। कहना गलत नहीं होगा कि प्रलय और प्रलाप के बीच इस देश की इंसानियत तड़पती रही और हम तमाशबीन बने रहे।

धर्म के सहारे माया से मुक्त होकर मोक्ष की कामना करने वाले हर साल चारधाम यात्रा पर आते हैं। इस बार भी वे आए। लेकिन शायद नियति उनके साथ नहीं थी। तभी तो यात्रा प्रारंभ हुए बमुश्किल डेढ़ माह हुए थे और बारिश शुरू हो गई। बारिश भी ऐसी वैसी नहीं, जानलेवा।

कहीं सड़कें बह गई तो कहीं पुलिया। उफनती नदी में घर के घर जमींदोज हो गए। कुदरत का कहर यहीं खत्म नहीं हुआ। पूरी केदारघाटी में जिसमें मंदिर परिक्षेत्र भी शामिल हैं सैलाब की चपेट में आ गया। दशकों बाद ऐसा हुआ जब मंदिर को किसी दैवी आपदा से नुकसान हुआ।

पर्यावरण से हो रही छेड़छाड़ का परिणाम
धर्मावलंबियों की माने तो शिव ने कहर बरपाया वहीं पर्यावरणविदों की माने तो पर्यावरण से हो रही छेड़छाड़ का यह परिणाम था। बात कुछ भी लेकिन इस आपदा में उन लाखों आस्थावान लोगों की जान पर बन आई जो देवों के दर्शन को आए थे।

जब जान पर बनी तो कहां मोक्ष और कहां आस्था, दिखी तो सिर्फ और सिर्फ माया। लोग बेहिसाब भागे, उनके पैरों के नीचे भगवान की मूर्ति आ रही है या फिर किसी की लाश, इसकी परवाह किसी ने नहीं की। खैर यहां जान बचाने के लिए की गई कसरत पर चरचा करना मेरा उद्देश्य नहीं है।

बल्कि उसके बाद उत्पन्न हालात पर चरचा जरूरी है। केदारघाटी में फंसे लोग वहां से निकलने के लिए मानव फितरत के अनुसार जो भी कर सकते थे किया। कुछ ने खुद को बीमार दिखाकर हेलीकाप्टर में जगह ले ली तो कुछ ने ऊपर से सिफारिश लगवा ली। बाहर आए तो मीडिया के सामने लगे आपबीती सुनाने।

कहते हैं कि एक बीमार उनके सामने ही दम तोड़ दिया, यदि थोड़ा सा और हिम्मत करता तो सुरक्षित स्थान पर पहुंच सकता था। वहीं कोई यह कहता है कि मेरे सामने ही एक बुजुर्ग मलबे में दब गया, वह बीमार था और तेजी से पहाड़ी पर चढ़ नहीं सका।

टीवी पर उनकी बातें सुनते हुए अनायास ही मेरी नजर उनके पीठ पर टंगे उस बड़े थैले पर जाती है, जिसका वजन 40 किलो से कम तो कदापि नहीं होगा। एक कसक होती है, यदि यह सज्जन बैग फेंककर अपने साथी को सहारा दे देता तो शायद एक और जान बच सकती थी। सवाल यह है कि ऐसे संवेदनशून्य लोगों को क्या मोक्ष की आवश्यकता है। निश्चित रूप से इसका जवाब नकारात्मक होगा।

खैर ये आम जन है जिनकी सोच अपने और अपनों तक की है। अब बात करते हैं उन समाज सेवकों की जिनपर इन आम जानों का भी भार है। सत्ता और स्वांग के फंसे बीच जनसेवकों की संवेदना तो इनसे भी ज्यादा हीन है। विनाश के इस तांडव में अपने-अपने हिस्से का लाभ लेने के लिए ये न जाने कहां-कहां से आ गए। आए ही नहीं अपने साथ राहत का सामान और सहानुभूति के नाम पर भाईचारे को तिलांजलि देने की सीख भी लेते आए।

परिणाम मददगार भी पूछने लगे राज्य, जाति और धर्म। जब गए तो जिंदा लाशों की सियासत लेते गए। फिर शुरू हुई नीचा दिखाने और सच्चा शुभचिंतक बनने का दौर। किसी ने किसी को रैम्बो और स्पाइडर मैन कहा तो किसी ने किसी को लापरवाह और छलावा कहा। यह जंग इसलिए छिड़ी हुई थी क्योंकि घाटी से जिंदा लौटे लोगों की सहानुभूति पर वोट की फसल बोई जा सके।

इस सबके बीच किसी का उन लाशों की ओर ध्यान नहीं गया, जो घाटी में पड़ी थी। ऐसा नहीं कि लाशों ने प्रलाप नहीं किया। उसने भी किया, अपने को सड़ा कर दुर्गंध फैला दी। दुर्गंध नाकों तक पहुंची भी लेकिन वहीं दफन करने की तैयारी शुरू कर दी गई। ऐसा इसलिए हुआ कि लाशें वोट नहीं देती। खैर ये भी सामान्य इंसानों में ही शुमार होते हैं, जो माया और स्वार्थ की प्रतिमूर्ति कहे जाते हैं।

संन्यासी भी स्वार्थों और अहम की लड़ाई में शा‌मिल
वहीं कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें लोग भगवान से पहले याद करते हैं। लेकिन इस आपदा में ये भी माया में घिरे नजर आए। संत और साधक कहे जाने वाले और खुद को भगवान के बाद बताने वाले ये संन्यासी भी स्वार्थों और अहम की लड़ाई लड़ते नजर आ रहे हैं। इन्हें देव की मूर्ति का ख्याल है, आदि शंकराचार्य की समाधि पर खर्च किए गए पैसों का हिसाब याद है, लेकिन वहां तड़प-तड़प कर मर रहे लोगों की कराह सुनाई नहीं देती।

कहने को कहते हैं कि भगवान सर्वत्र हैं, लेकिन जब पूजा की बारी आती है तो मंदिर का राग अलापने लगते हैं। अगर इन संतों की बात पर विश्वास करते हुए यह मान भी लें कि यह प्रलय भगवान के क्रोध का परिणाम है तो यह कहना मुनासिब होगा कि अच्छा हुआ जो इस प्रलय के शुरू होने के साथ ही भगवान शिव ने ऋषिकेश में जल समाधि ले ली नहीं तो प्रलय के प्रलाप सुनकर उनको समाधि लेनी ही पड़ती।

NCR Khabar News Desk

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