आजाद हिंदुस्तान ने भारतीय महिलाओं को विश्व पटल पर छाते देखा, अंतरिक्ष पर जाते देखा, लेकिन अपनी ही भूमि पर उन्हें छला भी गया। सदियों से चली आ रही आम महिला की समानता की जंग अभी खत्म नहीं हुई। शक्ति और धैर्य की पर्याय मानी जाने वाली महिला को समानता दिलाने में पुराने कानून असमर्थ हैं।
इस छलनी में तमाम छेद हैं पर देखने वालों की नजर में सब ठीक है। 21वीं सदी में भी पति के जारकर्म (अनैतिक संबंध) के खिलाफ पत्नी अपराधिक मामला नहीं दर्ज करा सकती। मसला चाहे तलाक के बाद पति की संपत्ति पर हक का हो या कार्यालयों में छेड़छाड़ और यौन उत्पीड़न करने वालों के खिलाफ कार्रवाई का, महिलाओं के बचाव में कानून फिलहाल असमर्थ है।
सड़क दुर्घटना में हाउस वाइफ को कम मुआवजा
सड़क दुर्घटना में घरेलू महिला (हाउस वाइफ) को कम मुआवजा दिया जाता है। मोटर वाहन अधिनियम की धारा 6 में आय के आधार पर मुआवजा तय है। इस धारा में दुर्घटना के पीड़ितों को दो वर्ग में बांटा गया है। पहला न कमाने वाला व्यक्ति, दूसरा पत्नी। इसमें घरेलू महिला के दुर्घटनाग्रस्त होने या मौत पर पति की आय के एक तिहाई हिस्से को मुआवजे का आधार बनाया जाता है। यह वर्गीकरण घरेलू महिलाओं के महत्व का समुचित मूल्यांकन नहीं है। घर के सभी कामकाज महिलाओं के हवाले होते हैं। ऐसे में उनका महत्व का मूल्य स्पष्ट है।
जारकर्म (अडल्ट्री) कानून में भेदभाव
जारकर्म (अडल्ट्री) कानून पति को अपनी पत्नी के साथ संबंध रखने वाले व्यक्ति के खिलाफ भादंसं की धारा 497 के तहत कार्रवाई का अधिकार प्रदान करता है। लेकिन पत्नी को पति के साथ संबंध रखने वाली महिला पर कानूनी कार्रवाई का अधिकार नहीं है। यदि पति के साथ कोई महिला सहमति से संबंध रखती है तो पत्नी कुछ नहीं कर सकती।
पति से तलाक तो संपत्ति पर कोई हक नहीं
पति यदि तलाक लेता है तो पत्नी का उसकी संपत्ति पर अधिकार नहीं रहता। उसे गुजारे भत्ते के लिए कोर्ट जाना पड़ता है। जहां एकमुश्त या मासिक भत्ता तय किया जाता है। पति बेरोजगार है तो पत्नी के लिए और बड़ी मुसीबत। वह कुछ नहीं ले सकती। भले ही पति के पास संपत्ति हो और वह उसका उपयोग कर रहा हो।
सेना में महिलाओं को अस्थायी कमीशन
सेना अधिनियम-1950 में भी महिलाओं को समान अधिकार नहीं है। उनसे सिर्फ अस्थायी कमीशन के तहत सेवाएं ली जाती है। इस पर हाईकोर्ट महिलाओं के पक्ष में फैसला दे चुका है और अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है। सरकार भी सेना के इस तर्क से सहमत है कि महिलाओं को जंग के दौरान मोर्चे पर भेजना उचित नहीं है।
ऑफिस में छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न पर कानून नहीं
कार्यालयों में महिलाओं से छेड़छाड़ और यौन उत्पीड़न के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में फैसला दिया। इसके बावजूद सरकार कानून बनाने में हिचक रही है। तमाम सर्वेक्षणों में यह सामने आया है कि भारत में काम करने वाली महिलाओं को कार्यालयों में आए-दिन छेड़छाड़ व यौन उत्पीड़न का शिकार पड़ता है।