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ज्योतिर्विद रविशराय गौड़ से जानिये अखंड सौभाग्य के लिए गणगौर तीज व्रत, तिथि, महत्व, पूजा का शुभ मुहूर्त

गणगौर तीज व्रत के दिन माता पार्वती ने भगवान शंकर से सौभाग्यवती रहने का वरदान प्राप्त किया था तथा पार्वती ने अन्य स्त्रियों को सौभाग्यवती रहने का वरदान दिया था। यह व्रत भगवान शिव और मां पार्वती के अद्भुत प्रेम का प्रतीक भी है। गणगौर की पूजा उत्तर भारतीय राज्यों में अधिक प्रचलित हैं। इस दिन सुहागिन महिलाएं शिव-पार्वती की मूर्ति बनाकर काजल, कुमकुम, हल्दी, मेंहदी, सिंदूर से सोलह सोलह बिंदी दीवार पर लगाकर आम के पत्ते या दुर्वा से गणगौर माता का गीत गाते हुए पूजा करती हैं।

गणगौर तीज शुभ मुहूर्त 2021 
गणगौर तीज पूजा 2021- 15 अप्रैल 2021 दिन गुरुवार

गौरी पूजा आरंभ- 29 मार्च 2021 दिन सोमवार से 
गौरी पूजा समाप्त- 15 अप्रैल 2021 दिन गुरुवार

चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि आरंभ- 14 अप्रैल 2021 दोपहर 12 बजकर 47 मिनट से 
चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि समाप्त- 15 अप्रैल 2021 शाम 03 बजकर 27 तक 

गणगौर पूजा 2021 पूजन शुभ मुहूर्त- 15 अप्रैल 2021 दिन गुरूवार सुबह 05 बजकर 17 से 06 बजकर 52 मिनट तक 
पूजा की कुल अवधि- 35 मिनट

गणगौर (सौभाग्य तीज) रीति-रिवाज और उत्सव

राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और हरियाणा के कुछ हिस्सों में गौरी तृतीया, जिसे लोकप्रिय रूप से गणगौर कहा जाता है, को बड़े पैमाने पर मनाया जाता है। गणगौर त्योहार 18 दिन का त्योहार है जो चैत्र माह के पहले दिन से शुरू होता है। गणगौर पूजा भगवान शिव और देवी पार्वती को समर्पित है और यह एक हिंदू त्योहार है जो वैवाहिक सुख का उत्सव है। ‘गण’ का अर्थ है शिव और ‘गौर’ का अर्थ पार्वती है। इस दिन इस दिव्य युगल की अपने पति की लम्बी उम्र के लिए सभी महिलाओं द्वारा पूजा की जाती है।


गौरी पूजा और गणगौर त्यौहार के साथ जुड़ी रस्में रंगों और श्रद्धा से भरी हैं। गौरी तीज का उत्सव सुबह से ही शुरू होता है जब महिलाएं स्नान करती हैं और गणगौर पूजा करने के लिए पारंपरिक वेशभूषा में तैयार होती हैं। होलिका दहन की राख और गीली मिट्टी मिश्रित करती हैं और फिर गेहूं और जौ बोऐ जाते हैं और 18 दिनों तक इसे पानी दिया जाता है, जब तक गणगौर महोत्सव की समाप्ति नहीं होती। महिलाऐं इस दिन उपवास करती हैं और अपने पति के लंबे जीवन के लिए प्रार्थना करती हैं। गौरी तृतीया या गणगौर के आखिरी तीन दिनों में, उनके प्रस्थान की तैयारी शुरू हो जाती है। गौरी और इस्सर को उज्ज्वल परंपरागत पहनावे पहनने के लिए और फिर एक शुभ समय के दौरान विवाहित और अविवाहित महिलाएं दोनों देवताओं की मूर्तियों को स्थापित करती हैं और एक बगीचे में एक रंगीन और सुंदर जुलूस निकालती हैं। गौरी के अपने पति के घर जाने से संबंधित महिलाऐं गणगौर गीत गाती हैं। अंतिम दिन, गौरी और इस्सार की मूर्तियां पानी में प्रवाहित की जाती हैं। यह गणगौर त्योहार के समापन का प्रतीक है।

गणगौर व्रत की कथा 

एक बार भगवान शंकर तथा पार्वतीजी नारदजी के साथ भ्रमण को निकले। चलते-चलते वे चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन एक गांव में पहुंच गए। उनके आगमन का समाचार सुनकर गांव की श्रेष्ठ कुलीन स्त्रियां उनके स्वागत के लिए स्वादिष्ट भोजन बनाने लगीं। भोजन बनाते-बनाते उन्हें काफी विलंब हो गया। किंतु साधारण कुल की स्त्रियां श्रेष्ठ कुल की स्त्रियों से पहले ही थालियों में हल्दी तथा अक्षत लेकर पूजन हेतु पहुंच गईं। 

पार्वतीजी ने उनके पूजा भाव को स्वीकार करके सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया। वे अटल सुहाग प्राप्ति का वरदान पाकर लौटीं। इसके बाद उच्च कुल की स्त्रियां अनेक प्रकार के पकवान लेकर गौरीजी और शंकरजी की पूजा करने पहुंचीं। सोने-चांदी से निर्मित उनकी थालियों में विभिन्न प्रकार के पदार्थ थे। उन स्त्रियों को देखकर भगवान शंकर ने पार्वतीजी से कहा- ‘तुमने सारा सुहाग रस तो साधारण कुल की स्त्रियों को ही दे दिया। अब इन्हें क्या दोगी?’

पार्वतीजी ने उत्तर दिया- ‘प्राणनाथ, आप इसकी चिंता मत कीजिए। उन स्त्रियों को मैंने बाहरी पदार्थों से बना रस दिया है। मैं इन उच्च कुल की स्त्रियों को अपनी उंगली चीरकर अपने रक्त का सुहाग रस दूंगी। यह सुहाग रस जिसके भाग्य में पड़ेगा, वह तन-मन से मुझ जैसी सौभाग्यवती हो जाएगी। जब स्त्रियों ने पूजन समाप्त कर दिया, तब पार्वतीजी ने अपनी उंगली चीरकर उन पर छिड़क दी। जिस पर जैसा छींटा पड़ा, उसने वैसा ही सुहाग पा लिया। इसके बाद भगवान शिव की आज्ञा से पार्वतीजी ने नदी तट पर स्नान किया और बालू की शिव-मूर्ति बनाकर पूजन करने लगीं। पूजन के बाद बालू के पकवान बनाकर शिवजी को भोग लगाया। 
प्रदक्षिणा करके नदी तट की मिट्टी से माथे पर तिलक लगाकर दो कण बालू का भोग लगाया। इतना सब करते-करते पार्वती को काफी समय लग गया।  काफी देर बाद जब वे लौटकर आईं तो महादेवजी ने उनसे देर से आने का कारण पूछा। उत्तर में पार्वतीजी ने झूठ ही कह दिया कि वहां मेरे मायके वाले मिल गए थे। उन्हीं से बातें करने में देर हो गई। परंतु महादेव तो महादेव ही थे। वे कुछ और ही लीला रचना चाहते थे। अतः उन्होंने पूछा- ‘पार्वती! तुमने नदी के तट पर पूजन करके किस चीज का भोग लगाया था और स्वयं कौन-सा प्रसाद खाया था?’
स्वामी, पार्वतीजी ने पुनः झूठ बोल दिया- ‘मेरी भाभी ने मुझे दूध-भात खिलाया, उसे खाकर मैं सीधी यहां चली आ रही हूं…  यह सुनकर शिवजी भी दूध-भात खाने की लालच में नदी-तट की ओर चल दिए। पार्वती दुविधा में पड़ गईं। तब उन्होंने मौन भाव से भगवान भोले शंकर का ही ध्यान किया और प्रार्थना की – हे भगवन! यदि मैं आपकी अनन्य दासी हूं तो आप इस समय मेरी लाज रखिए। यह प्रार्थना करती हुई पार्वतीजी भगवान शिव के पीछे-पीछे चलती रहीं। उन्हें दूर नदी के तट पर माया का महल दिखाई दिया। उस महल के भीतर पहुंचकर वे देखती हैं कि वहां शिवजी के साले तथा सलहज आदि सपरिवार उपस्थित हैं। उन्होंने गौरी तथा शंकर का भाव-भीना स्वागत किया। वे दो दिनों तक वहां रहे। 

तीसरे दिन पार्वतीजी ने शिव से चलने के लिए कहा, पर शिवजी तैयार न हुए। वे अभी और रुकना चाहते थे। तब पार्वतीजी रूठकर अकेली ही चल दीं।  ऐसी हालत में भगवान शिवजी को पार्वती के साथ चलना पड़ा। नारदजी भी साथ-साथ चल दिए। चलते-चलते वे बहुत दूर निकल आए। उस समय भगवान सूर्य अपने धाम (पश्चिम) को पधार रहे थे। अचानक भगवान शंकर पार्वतीजी से बोले- ‘मैं तुम्हारे मायके में अपनी माला भूल आया हूं…. 

‘ठीक है, मैं ले आती हूं.’ – पार्वतीजी ने कहा और जाने को तत्पर हो गईं। परंतु भगवान ने उन्हें जाने की आज्ञा न दी और इस कार्य के लिए ब्रह्मपुत्र नारदजी को भेज दिया। परंतु वहां पहुंचने पर नारदजी को कोई महल नजर न आया। वहां तो दूर तक जंगल ही जंगल था, जिसमें हिंसक पशु विचर रहे थे। नारदजी वहां भटकने लगे और सोचने लगे कि कहीं वे किसी गलत स्थान पर तो नहीं आ गए? मगर सहसा ही बिजली चमकी और नारदजी को शिवजी की माला एक पेड़ पर टंगी हुई दिखाई दी। नारदजी ने माला उतार ली और शिवजी के पास पहुंचकर वहां का हाल बताया। 

शिवजी ने हंसकर कहा- ‘नारद! यह सब पार्वती की ही लीला है…. इस पर पार्वती बोलीं- ‘मैं किस योग्य हूं…तब नारदजी ने सिर झुकाकर कहा- ‘माता! आप पतिव्रताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं। आप सौभाग्यवती समाज में आदिशक्ति हैं। यह सब आपके पतिव्रत का ही प्रभाव है। संसार की स्त्रियां आपके नाम-स्मरण मात्र से ही अटल सौभाग्य प्राप्त कर सकती हैं और समस्त सिद्धियों को बना तथा मिटा सकती हैं। तब आपके लिए यह कर्म कौन-सी बड़ी बात है?’ महामाये, गोपनीय पूजन अधिक शक्तिशाली तथा सार्थक होता है। 
आपकी भावना तथा चमत्कारपूर्ण शक्ति को देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। मैं आशीर्वाद रूप में कहता हूं कि जो स्त्रियां इसी तरह गुप्त रूप से पति का पूजन करके मंगलकामना करेंगी, उन्हें महादेवजी की कृपा से दीर्घायु पति का संसर्ग मिलेगा। 

नवरात्रों के तीसरे दिन यानी की चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तीज को गणगौर माता याने की माँ पार्वती की पूजा की जाती है । पार्वती के अवतार के रूप में गणगौर माता व भगवान शंकर के अवतार के रूप में ईशर जी की पूजा की जाती है।प्राचीन समय में पार्वती ने शंकर भगवान को पती ( वर) रूप में पाने के लिए व्रत और तपस्या की । शंकर भगवान तपस्या से प्रसन्न हो गए और वरदान माँगने के लिए कहा ।पार्वती ने उन्हें वर रूप में पाने की इच्छा जाहिर की । पार्वती की मनोकामना पूरी हुई और उनसे शादी हो गयी बस उसी दिन से कुंवारी लड़कियां मन इच्छित वर पाने के लिए ईशर और गणगौर की पूजा करती है ।सुहागिन स्त्री पती की लम्बी आयु के लिए पूजा करती है ।गणगौर की पूजा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि से आरम्भ की जाती है। सोलह दिन तक सुबह जल्दी उठ कर बाड़ी बगीचे में जाती है दूब व फूल लेकर आती है । दूब लेकर घर आती है उस दूब से दूध के छींटे मिट्टी की बनी हुई गणगौर माता को देती है । थाली में दही पानी सुपारी और चांदी का छल्ला आदी सामग्री से गणगौर माता की पूजा की जाती है ।
आठ वे दिन ईशर जी पत्नी (गणगौर ) के साथ अपनी ससुराल पधारते है । उस दिन सभी लड़कियां कुम्हार के यहाँ जाती है और वहा से मिट्टी की झाँवली ( बरतन) और गणगौर की मूर्ति बनाने के लिए मिट्टी लेकर आती है । उस मिट्टी से ईशर जी ,गणगौर माता, मालन,आदि की छोटी छोटी मूर्तिया बनाती है । जहा पूजा की जाती उस स्थान को गणगौर का पीहर व जहा विसर्जित की जाती है वह स्थान ससुराल माना जाता है ।
गणगौर माता की पूरे राजस्थान में पूजा की जाती है । आज यानी की चैत्र मास की तीज सुदी को गणगौर माता को चूरमे का भोग लगाया जाता है । दोपहर बाद गणगौर माता को ससुराल विदा किया जाता है । यानी की विसर्जित किया जाता है । विसर्जन का स्थान गाँव का कुआ ,जोहड़ तालाब होता है । कुछ स्त्री जो शादी शुदा होती है वो अगर इस व्रत की पालना करने से निवर्ती होना चाहती है वो इसका अजूणा करती है (उधापन करती है ) जिसमें सोलह सुहागन स्त्री को समस्त सोलह श्रृंगार की वस्तुएं देकर भोजन करवाती है ।
गणगौर माता की पूरे राजस्थान में जगह जगह सवारी निकाली जाती है जिस मे ईशर दास जीव गणगौर माता की आदम कद मूर्तीया होती है । उदयपुर की धींगा गणगौर, बीकानेर की चांद मल डढ्डा की गणगौर ,प्रसिद्ध है ।
राजस्थानी में कहावत भी है तीज तींवारा बावड़ी ले डूबी गणगौर । अर्थ है की सावन की तीज से त्योहारों का आगमन शुरू हो जाता है और गणगौर के विसर्जन के साथ ही त्योहारों पर चार महीने का विराम आ जाता है।

रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद

एन सी आर खबर ब्यूरो

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