सनातन हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार बौद्धधर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध की एक पौराणिक कथा से आज की चर्चा प्रारम्भ करते है
एक समय दैत्यों की शक्ति बहुत बढ़ गई। देवता भी उनके भय से भागने लगे। राज्य की कामना से दैत्यों ने देवराज इंद्र से पूछा कि हमारा साम्राज्य स्थिर रहे, इसका उपाय क्या है। तब इंद्र ने शुद्ध भाव से बताया कि सुस्थिर शासन के लिए यज्ञ एवं वेदविहित आचरण आवश्यक है। तब दैत्य वैदिक आचरण एवं महायज्ञ करने लगे, जिससे उनकी शक्ति और बढऩे लगी। तब सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने देवताओं के हित के लिए बुद्ध का रूप धारण किया। उनके हाथ में मार्जनी थी और वे मार्ग को बुहारते हुए चलते थे।
इस प्रकार भगवान बुद्ध दैत्यों के पास पहुंचे और उन्हें उपदेश दिया कि यज्ञ करना पाप है। यज्ञ से जीव हिंसा होती है। यज्ञ की अग्नि से कितने ही प्राणी भस्म हो जाते हैं। भगवान बुद्ध के उपदेश से दैत्य प्रभावित हुए। उन्होंने यज्ञ व वैदिक आचरण करना छोड़ दिया। इसके कारण उनकी शक्ति कम हो गई और देवताओं ने उन पर हमला कर अपना राज्य पुन: प्राप्त कर लिया।
सनतान धर्म मे आस्थावान बहुतायत से ऐसे लोगों की संख्या विश्व में व्याप्त है, जो बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं । वहीँ कई ऐसे लोग हैं, जो बुद्ध को भगवान का अवतार स्वीकार ही नहीं करते । अस्तु, प्रथम तो हम बुद्ध शब्द पर ध्यान देते हैं । बुद्ध का शाब्दिक अर्थ है, जागृत होना, सतर्क होना तथा जितेन्द्रिय होना । वस्तुतः बुद्ध एक व्यक्तिविशेष का परिचायक न होकर स्थितिविशेष का परिचायक है । वर्तमान समय में बुद्ध शब्द का व्यापक प्रयोग राजकुमार सिद्धार्थ के परिव्राजक रूप के लिए किया जाता है । हमारे धर्मग्रन्थ तथा ऋषियों ने इस सन्दर्भ में क्या कहा है, क्या हम कभी उस पर भी विचार करेंगे
सनातन धर्म की प्रवृत्ति प्रारम्भ से ही बड़ी उदार है हमारे यहाँ किसी भी विषय, सिद्धांत और मत पर व्यापक चर्चा एवं विमर्श का स्थान उपलब्ध है । इसीलिए हमारे धर्मशास्त्रों में एक अंग दर्शनग्रन्थ का भी है दर्शन का अर्थ है, देखन । यहाँ दर्शन का अर्थ है, धर्म को देखने का नजरिया आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन, दोनों की व्यवस्था हमारे यहाँ की गयी है, क्योंकि यदि अन्धकार न रहे तो प्रकाश की परवाह कौन करे ? अज्ञान न रहे तो ज्ञान का महत्त्व कैसे प्रतिपादित होगा ? आस्तिक दर्शन में पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन का नाम आता है, तथा नास्तिक दर्शन में बौद्ध, जैन तथा चार्वाक दर्शन का ।
एक भ्रम लोगों में बहुतायत से व्याप्त है कि गौतम ही बुद्ध थे । एक दूसरा भ्रम यह भी व्याप्त है कि गौतम बुद्ध नहीं थे, बल्कि बुद्ध कोई और थे । जबकि सत्य यह है कि गौतम ही नहीं, गौतम भी बुद्ध थे । वस्तुतः बुद्ध एक नहीं बहुत हैं । जैसे कि पूर्व में बताया गया कि बुद्ध मात्र एक स्थिति विशेष का नाम है, तो उस स्थिति में पहुँचने वाला हर प्राणी बुद्ध कहलाया । ग्रंथों में गर्ग मुनि इत्यादि के मत का वर्णन आता कि तीन अवतार ऐसे हैं, जो हर द्वापर तथा कलियुग में होते है । ये तीन अवतार हैं, व्यास, बुद्ध तथा कल्कि । शेष सभी अवतार कल्प में एक बार होते हैं । इनमें व्यास का कार्य है, वेदों का विभाजन, पुराणों का संकलन, तथा ग्रंथों का संरक्षण । बुद्ध का कार्य है, समाज में जो लोग धर्म के नाम पर पाखंड तथा पशुहिंसा आदि करें, ऐसी आसुरी सम्पदा से युक्त पुरुषों को मायामय उपदेश के द्वारा सनातन से विमुख करना, जैसे किसी फोड़े को शरीर से काट कर इसीलिए अलग कर दिया जाता है कि वह अन्य अंगो को नुकसान न पहुंचा सके । कल्कि का उद्देश्य है, बौद्ध, इत्यादि तथा म्लेच्छों का विनाश करके पुनः विशुद्ध सनातन को स्थापित करना तथा व्यवस्था परिवर्तन करना ।
पौराणिक, वैदिक और शास्त्री एक ही है। इनमें कोई भेद नहीं क्योंकि धर्ममय वृक्ष के वेद मूल हैं, शास्त्र शाखा हैं, पुराण पत्ते हैं, काव्य और प्रकरण ग्रन्थ ही पुष्प हैं, अभ्युदय फल है तथा कल्याण ही उसका रस है। मूल के बिना वृक्ष का अस्तित्व नहीं। अतः रुद्रयामल तन्त्र, श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, स्मृतिग्रन्थ, भविष्य पुराण आदि में वेदों को स्वतः प्रमाण तथा अन्य को परतः प्रमाण की संज्ञा दी गयी है। वेदमूल धर्म की शाखा व्याकरण, निरुक्त आदि वेदांग शास्त्र हैं जो इसे समझने में सहायता करते हैं। पुराण वेदवाक्यों को अपनाने का सुपरिणाम और उल्लंघन के दुष्परिणाम के दृष्टान्त देकर समझाते हैं, काव्य उनके प्रचार का प्रत्यक्षीकरण करते हैं। अतः “अधीतिबोधाचरणप्रचारणै:” में क्रमशः वेद, शास्त्र, पुराण तथा काव्य का ही संकेत है।
पुराण विरोधी आर्य समाजी जन वेदसमर्थन का दावा करने पर भी धर्मवृक्ष का छेदन करने वाले ही हैं क्योंकि शाखा पत्रादि के अभाव में मूल का पोषण नहीं हो पाता। बीज भी अपने विकास हेतु प्रथम पत्रादि का ही सृजन करता है। वेदनिंदक बौद्ध तथा कथानकों का समर्थन करने पर भी धर्मवृक्ष का छेदन करने वाले ही हैं क्योंकि इस संसार में वेद से इतर कुछ भी नहीं। इस संसार में स्वतः प्रमाण वेद भगवान का समर्थन और प्रतिपादन न करने वाला वाक्य मान्य और प्रामाणिक नहीं। अतः एक सच्चा वैदिक वही है जो पुराण द्वेष न करे क्योंकि वेदों के पोषक पुराण ही हैं । एक सच्चा पौराणिक वही है जो वेद निंदा न करे क्योंकि वेद सभी तत्वों के मूल हैं।
बुद्ध एक नहीं हुए हैं ।
बुद्ध एक नहीं हुए हैं सहस्रों बुद्धों का आगमन हो चूका है, तथा सहस्रों बुद्ध आयेंगे । इसीलिए वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड में बौद्ध को चोरों की भांति दंड देने कि बात आई है इससे सिद्ध होता है कि वाल्मीकि के आगमन से पूर्व भी बौद्ध मत था । प्रवीण, निपुण, अभिज्ञ, कुशल, मैत्रेय, गौतम, कश्यप, शक्र, अर्यमा, शाक्यसिंह , क्रतुभुक, कृती, सुखी, शशांक, निष्णात, सत्व, शिक्षित, सर्वग्य, सुनत, रुरु, मारजित्, बुद्ध, प्रबुद्ध आदि कई बुद्ध का वर्णन आता है ।
इनमें वर्तमान कलियुग में बुद्ध के तीन अवतार हुए । भगवान् बुद्ध , सिद्धार्थ बुद्ध और गौतम बुद्ध तीनों अलग अलग हैं , भगवान् बुद्ध 2102-1982 ई पू में हुए , सिद्धार्थ बुद्ध 1887-1807 ई पू में हुए और गौतम बुद्ध 563-483 ई पू में हुए । अर्थात, गौतम ही नहीं, गौतम भी बुद्ध हैं ।
अब बौद्धावतार का कारण बताते हैं ।
मिश्रदेशोद्भवाम्लेच्छाः काश्यपेनैव शासिताः ….. शिखासूत्रं समाधाय पठित्वा वेदमुत्तमम् । यज्ञैश्च पूजयामासुर्देवदेवं शचीपतिम् ….. अहं लोकहितार्थाय जनिष्यामि कलौयुगे ….. कीकटे देशमागत्य ते सुरा जज्ञिरे क्रमात् । वेदनिन्दां पुरस्कृत्य बौद्धशास्त्रमचीकरन् ….. वेदनिन्दाप्रभावेण ते सुराः कुष्ठिनोभवन् ….. विष्णुदेवमुपागम्य तुष्टुवुर्बौद्धरूपिणम् । (भविष्य पुराण)।
कलियुग के आने पर मिस्र देश में उत्पन्न कश्यप गोत्रीय म्लेच्छों ने शिखा रख कर तथा जनेऊ धारण करके स्वयं को ब्राह्मण घोषित कर दिया तथा स्वयं भी वेदपाठ करते हुए देवताओं का पूजन करने तथा कराने लगे । इससे त्रस्त होकर देवताओं ने देवराज इंद्र के समक्ष जाकर समाधान हेतु निवेदन किया । देवराज ने उनकी प्रार्थना पर उन असुर म्लेच्छों को मोहित करने के लिए बौद्धमार्ग का विस्तार करके वेदों कि निंदापरक ग्रंथों को लिखने के लिए बारहों आदित्य के साथ कीकट में अवतार लिया । वेदनिन्दा करने के कारण उन्हें कुष्ठ हो गया अतः वे समस्त देवगण बुद्धरूपधारी विष्णु जी के पास गए जिन्होंने अपने योगबल से उनका रोगनाश किया । तो वस्तुतः बुद्ध का आगमन सनातन धर्म के अंदर जिन म्लेच्छों ने घुसपैठ कर रखी थी, उनके विनाश के लिए हुआ था
श्रीमद्भागवत में भी वर्णन है “धर्मद्विषां निगमवर्त्मनि निष्ठितानां……वेषं विधाय बहुभाष्यत औपधर्म्यं” तथा “ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम् । बुद्धो नाम्नाजिन सुतः, कीकटेशु भविष्यति” । असुरों को मोहित करने के लिए बुद्ध का अवतार हुआ था । सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि का उपदेश देने के कारण उन्हें अधार्मिक तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु वेद तथा ईश्वर निंदक होने के कारण वे धार्मिक भी नहीं कहलाये अतः उन्हें उपधार्मिक कहा गया है ।
कुछ अन्य जन यह बात भी करते हैं कि वस्तुतः विष्णु के अवतारों में पहले बलराम तथा कृष्ण को अलग अलग गिना गया था तथा बाद में आदि गुरु शंकराचार्य जी ने बलराम को हटा कर बुद्ध को सम्मिलित कर दिया लेकिन इसका कोई प्रमाण न आदिशंकराचार्य जी के किसी ग्रन्थ में में मिलता है और न ही वर्तमान में किसी शांकरपीठ के पास इसका प्रमाण है । साथ ही कभी शंकराचार्य जी ने भी नहीं कहा कि बुद्ध विष्णु के अवतार नहीं थे और न ही दलाई लामा इसे अस्वीकार करते हैं । हाँ, इस बात के कई प्रमाण अवश्य हैं कि तंत्रग्रंथों तथा पुराणों में शंकराचार्य जी के आगमन से बहुत पूर्व से ही विष्णु भगवान के बौद्धावतार की बात कही गयी थी । और श्रीमद्भागवत आदि कई ग्रन्थों में बलराम जी को अवतारों की सूची से हटाये बिना ही बौद्धावतार का उल्लेख है । ऐसे ही प्रमाण देवीभागवत, विष्णु पुराण, स्कन्द पुराण, नृसिंह पुराण आदि में भी प्राप्य हैं ।
अस्तु । अब लोग बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार तो स्वीकार कर लेंगे परन्तु यह कहेंगे कि यहाँ तो कीकट प्रान्त में अजिन के पुत्र के रूप में वर्णन हैं । फिर हम गौतम को क्यों माने कि वे बुद्ध थे और भगवान के अवतार थे ? इसका प्रमाण भी पुराणों में प्राप्य है ।
एतस्मिनैव काले तु कलिना संस्मृतो हरिः । काश्यपादुद्भवो देवो गौतमो नाम विश्रुतः । बौद्धधर्मं समाश्रित्य पट्टणे प्राप्तवान्हरिः । (भविष्य पुराण)
कलियुग की प्रार्थना पर काश्यप गोत्र में भगवान विष्णु ने गौतम के नाम से अवतार लेकर बौद्धधर्म का विस्तार करते हुए पटना चले गये ।
पुनः लोग यह शंका करेंगे कि हमें राजा शुद्धोदन का भी नाम चाहिये, तो इसका प्रमाण भी उपलब्ध होता है ।
शुद्धोदनस्तमालोक्य महासारं रथायुतैः । प्रावृतं तरसा मायादेवीमानेतुमाययौ …. बौद्धा शौद्धोदनाद्यग्रे कृत्वा तामग्रतः पुनः । योद्धुं समागता म्लेच्छकोटिलक्षशतैर्वृताः । (कल्कि पुराण )
इस प्रसंग में वर्णन है कि जब कल्कि जी बौद्धों और म्लेच्छों का विनाश करने लगेंगे तो बुद्ध, उनके पिता शुद्धोदन तथा माता मायादेवी पुनः प्रकट होंगे तथा म्लेच्छों के साथ मिलकर कल्कि जी से युद्ध करेंगे । इसी युद्ध के वर्णन के अंतर्गत वर्णन है कि जब शुद्धोदन हार कर मायादेवी को बुलाने चला गया तो बौद्धों ने शुद्धोदन के पुत्र का आश्रय लेकर लाखों करोड़ों म्लेच्छों कि सहायता से युद्ध करना आरम्भ किया ।
इस प्रकार से सभी प्रमाणों को एक साथ देखा जाय तो बुद्ध कई हैं, तथा सभी अवतार ही हैं जो उद्देश्य विशेष से यथासमय आते हैं । यदि प्रकाश में व्यक्ति हत्या कर रहा हो तो जान बचाने वाला अन्धकार कर देता है । वैसे ही जब धर्म का नाम लेकर म्लेच्छों में ब्राह्मण बन कर अधर्म प्रारम्भ किया तो उन्हें ठीक करने के लिए भगवान ने बुद्ध के रूप में आकर कहा कि जिस ईश्वर और धर्म के नाम पर तुम ये सब कर रहे हो, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है । बाद में जयदेव कवि आदि ने भी कारुण्यमातान्वते, निन्दसि यज्ञविधे, सदय पशुघातम् आदि शब्दों के द्वारा इसी बात को प्रमाणित किया कि श्रीहरि का ही अवतार भिन्न भिन्न समयों में बुद्ध को रूप में हुआ था ।
वर्तमान में कथित नवबौद्ध आदि बुद्ध के मूल सिद्धांत को न जानने के कारण घोर अनर्थ करते हैं । क्योंकि बुद्ध ने फोड़े को काट कर हटाया और शेष को सुरक्षित किया । लेकिन कथित बौद्धगण स्वस्थ देह का गला ही काट दे रहे हैं । वस्तुतः यह सब कुछ पूर्व नियोजित था कि सनातन में घुसपैठ किये म्लेच्छों को नास्तिक बौद्ध दर्शन का आश्रय लेकर विष्णु भगवान भ्रमित करके उन्हें सनातन से वापस दूर करेंगे तथा इस प्रक्रिया में जो भी कुछ सनातनियों में भ्रम व्याप्त होगा उसे बाद में उचित अवसर पाकर कुमार कार्तिकेय तथा भगवान शिव क्रमशः आचार्य कुमारिल भट्ट तथ आदिगुरू शंकराचार्य के रूप में आकर ठीक करेंगे । तो निष्कर्ष यह निकलता है कि बुद्ध निःसंदेह नारायण के अवतार हैं तथा उनका उद्देश्य तथा कर्तव्य सही था । बुद्ध सही थे, बौद्ध नहीं ।
अजिन पुत्र बुद्ध (भागवत)
गौतम बुद्ध (भविष्य पुराण)
शुद्धोदन पुत्र बुद्ध (कल्कि पुराण)
तीनों का वर्णन मिलता है।
प्रातः स्मरणीय, धर्मसम्राट् पूज्य स्वामी श्री करपात्री जी ,विरक्त शिरोमणि , परमहंस स्वामी वामदेव जी आदि ने इसिलिये गौतम बुद्ध को अवतरण नहीं माना क्योंकि डॉअम्बेडकर के बौद्ध बन जाने से अंग्रेजों ने सवर्ण तथा दलित नाम का जो कथित विभाजन किया था, उसमे दलित भाई जन सनातन विरोधी हो रहे थे। साथ ही वे यह भी मानते थे कि गौतम ही एक मात्र बुद्ध हैं। उससे पहले कोई बुद्ध नहीं हुआ। इसीलिए करपात्री जी ने गौतम को अवतरण नहीं मानने की दूरगामी नीति अपनायी ताकि लोग बाद में भ्रमित न हों। साथ ही उन्होंने अजिन पुत्र पर भी जोर दिया। यदि गौतम से विरोध होता तो आचार्य शंकर, आचार्य कुमारिल तथा आचार्य उदयन आदि, जो गौतम से कुछ ही समय बाद हुए थे, कभी न कभी कहीं न कहीं यह ज़रूर कहते कि अजिन पुत्र ही वास्तव में बुद्ध अवतार हैं। यह गौतम नाम का आदमी फ़र्ज़ी बुद्ध था। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। क्योंकि वे इस बात को अच्छे से जानते थे।
आदिगुरु ने कभी गौतम के अवतार न होने की बात कही ? या ये कि वो फ़र्ज़ी बुद्ध है। एक मात्र अजन पुत्र ही बुद्ध हैं। और केवल वे ही अवतार हैं। कुमारिल भट्ट या आचार्य उदयन ने भी नहीं कहा। जबकि गौतम के सबसे निकट समकालीन बौद्ध खंडक तो वही लोग थे।
कारण मैं बता रहा हूँ। डॉअम्बेडकर के बौद्ध बनने से सनातनियों का बड़ा वर्ग जो अंग्रेजों की कूटनीति का शिकार था, बुद्ध की ओर आकर्षित हुआ। यदि धर्मसम्राट जी जैसा महापुरुष अतिमान्य व्यक्तित्व यह कहता कि गौतम बुद्ध विष्णु के अवतार हैं तो बाकी सुधरे हुए सनातनियों में यह भ्रम होता कि विष्णु के कृष्ण और बौद्ध अवतार के उपदेश में इतनी विसंगति क्यों है। मूल उद्देश्य जो अवतारों का था, उससे वे परिचित तो थे नहीं। अब बुद्ध का मत भौतिकवादी है। मायाप्रधान है। बहुत लुभावना है, बहुत आकर्षक है।
अतः यदि उन्हें विष्णु का अवतार कह देते तो लोग और तेजी से बुद्ध की ओर भागते। ये कह कर कि बौद्ध बनने से हमें भौतिकवाद का लाभ मिलेगा और लोग हमें गलत भी नहीं कहेंगे क्योंकि बुद्ध तो विष्णु के अवतार थे। अतः उन्होंने सीधा कह दिया कि गौतम बुद्ध विष्णु के अवतार ही नहीं है। यहाँ ध्यान दें कि नीति उन्होंने वही अपनायी जो विष्णु भगवान् ने बौद्धवतार में लगायी थी। ईश्वर के नाम पर अधर्म करने वालों को यह कह कर रोका कि ईश्वर ही नहीं है। इस प्रकर धर्मसम्राट करपात्री स्वामी जी ने सनातन का बहुत बड़ा वर्ग बचा लिया जो बौद्ध बनने जा रहे थे। अब जैसे हमारे हज़ारों जन्मों में हज़ारों माता पिता हुए, पर हमने उसी को प्रधानता दी, उसी से प्रभावित हुए जो सबसे अर्वाचीन है। वैसे ही सभी लोग अजन पुत्र की अपेक्षा गौतम से अधिक प्रभावित हुए। अब गौतम का विरोध करने से ऐसे लोग, जो यह सोच रहे थे कि बौद्ध मत का लाभ लेंगे लेकिन धर्मभीरु होने से बौद्ध मत को भी सनातन ही मान रहे थे, यह कह कर कि गौतम बुद्ध विष्णु के अवतार हैं, अतः हम सही हैं, ऐसे लोगों पर विराम लग गया।
लेकिन बौद्ध अवतार हुआ तो था, अतः उन्होंने अजन पुत्र को अवतार माना। इससे बुद्ध का विरोध हुआ भी, और नहीं भी हुआ। दोनों कार्य साध लिये। और वेदविरोधी होने से भगवान् का बुद्ध विग्रह श्रेष्ठ नहीं माना गया, अतः उनका विरोध भी पापकारक नहीं हुआ।
रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद
अध्यात्मचिन्तक
लेख में दिए विचार लेखक के अपने हैं एनसीआर खबर का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं है