मंहगाई का रोना कौन रोता है……………………संजीव सिन्‍हा

उच्‍च वर्ग के पास बेहिसाब पैसा है, तो उन्‍हें मंहगाई का रोना रोने की जरूरत क्‍या है।
निम्‍न वर्ग के पास सबसे कम जरूरत हैं और काम से फुरसत नहीं है तो उनके पास इसके लिए समय नहीं है कि मंहगाई का रोना रोये।
तो अब मंहगाई-मंहगाई चिल्‍लाता कौन है—- मध्‍यम वर्ग।

अपनी औकात से ज्‍यादा पाने की सोच तो रखेंगे पर सिवा चिल्‍लाने के कुछ करना नहीं चाहते, अतिरिक्‍त आय चाहिए तो भ्रष्‍ट तरीके सबसे पहले दिमाग में आते हैं।
मंहगा मोबाइल फोन, मंहगी कारें, होटलों में खाना इन सब पर मंहगाई नजर नहीं आती। हर 6 महीने में मोबाइल का मॉडल बदलता है, तो मंहगाई नजर नहीं आती। शिक्षा के नाम पर अंग्रेजी स्‍कूलों की भेडचाल में बच्‍चों की शिक्षा को अनावश्‍यक मंहगा बना दिया जाना नजर नहीं आता। ब्रांडेड के नाम पर अनावश्‍यक के मंहगे कपडे, जूते, पर्स, मेकअप का खरीदा जाने वाले सामानों पर मंहगाई नजर नही आती। मोबाइल के बिल, इंटरनेट खर्च पर मंहगाई नजर नहीं आती।

इस वर्ग को और हमारी मीडिया को भी मंहगाई नजर कहां आती है सिर्फ आटा, चावल, दाल, तेल, सब्जियों और पेट्रोल पर। जिसको देखों इसी पर हाय-हाय मचाये हुए है। एक किसान को अच्‍छे से रहने का हक नहीं है। अपनी महीने भर की आय में आप कितना हिस्‍सा खाने पर खर्च करते हैं,

एक बार हिसाब लगा कर देखिये तो पता चल जायेगा कि मासिक आय का मात्र 10 से 15 प्रतिशत हिस्‍सा ही हम अपने खाने पर खर्च करते हैं और बाकी सब हमारी फिजूलखर्चियों में व्‍यय होता है, जिन पर अंकुश लगाया जा सकता है।
मगर नहीं, उस फिजूलखर्ची पर अंकुश नहीं लगायेंगे और न ही अपनी आय का साधन बढायेंगे, सिर्फ मंहगाई-मंहगाई चिल्‍लायेंगे।
अपने तो कुछ करते नहीं, मगर जो कर रहा है, उसमें कमियां निकालने अवश्‍य बैठ जायेगे।

सबके सब ढपोरशंख हैं, जो सिर्फ चिल्‍लाते हैं, मगर जब करने का मौका आता है तो पीठ दिखा कर चल देते हैं।

संजीव सिन्‍हा