मटमैले रंग की गबाडीन की पैंट, सूती बू शर्ट, सस्ता सा स्वेटर और मफलर ओढ़कर अरविन्द केजरीवाल ने राजनीती को आज बदलने की कोशिश की है. लेकिन २५-३० साल पहले आम आदमी के ये लिबास पहन कर फारूख शेख ने ग्लैमर के परदे को सादगी से जीता था. वो दौर था जब अमोल पालेकर, नसीर या फिर फारूख शेख बॉलीवुड को नये सिरे से परिभाषित कर रहे थे . ये वो आम आदमी जैसे एक्टर थे जो अपने घर और पड़ोस से आये लगते थे और शायद इसीलिए हम परदे पर उनके इमोशंस के साथ आसानी से रो देते थे या हँसते थे. दोस्तों, बाप अमिताभ बच्चन में नही बाप किसी बलराज साहनी , किसी अमोल पालेकर किसी फारूख शेख में ही दीखता है.
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फारूख शेख के स्क्रीन पर बिखरे बाल, बदन पर चिकन का कुर्ता और बिना modulated आवाज़ के संवाद आम ज़िन्दगी पर जो छाप छोड़ गये वो छाप मनमोहन देसाई और सिप्पी की फिल्मे नही छोड़ पायी . मायानगरी के ग्लैमर पर ये एक नेचुरल सी सादगी का असर था.
बाज़ार, उमराव जान , साथ-साथ ,गमन, शतरंज के खिलाडी …जी हाँ ये वो फिल्मे थी जिसने पहली बार देश में हिंदी सिनेमा को एक इलीट स्टेटस दिया. ये वो फिल्मे थी जिनकी कमाई भले ही बॉलीवुड की फार्मूला फिल्मों को बॉक्स ऑफिस में न छू पायी हों पर ये फिल्मे इतिहास के बॉक्स में बहुत कुछ कमा गयी .
मित्रों, सच यही है की हम ग्लैमर के झांसे में भले ही आ जाएँ , लेकिन जब हम किसी की सादगी पर फ़िदा होते हैं तो भीतर से भी उसी के हो जाते हैं. मौका मिले तो बाज़ार और उमराव जान की कुछ ग़ज़लें ज़रूर सुनियेगा….और परदे के इस आम आदमी को एक बार फिर याद करिएगा.
दीपक शर्मा (आज तक)