अमर आनंद l दिल्ली की रणनीति और लखनऊ की राजनीति घोसी में अलग – अलग रूप – रंग में नजर आई है। यह भी कि राजभर यूपी में योगी की राजनीति के सामने रत्ती भर भी टिक नहीं पाए। दारा सिंह को अपने दम पर सियासी चौहान बनाने का अरमान लेकर चुनावी इम्तिहान में खड़े पीत वस्त्रधारी ओम प्रकाश का अति आत्म विश्वास अंधकार की ओर बढ़ता नजर आ रहा है। मोदी और योगी दोनों के लिए अलग अलग कारणों से अहम रहा है घोसी लेकिन योगी के लिए फिल्म बाजीगर की ये लाइन फिट नजर आती है। हारकर भी जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं।
घोसी सीट पिछले चुनाव में योगी की आलोचना कर साइकिल को जितवाई थी और इस बार तारीफ करके जितवाई थी। जहां तक योगी की बात है वो उनके साथ तो थे लेकिन उन्हें पुरानी आलोचनाओं के लिए मन से माफ नहीं कर पाए थे।
घोसी में कमल नहीं खिला, साइकिल थोड़ी और आगे बढ़ गई यह तो एक तात्कालिक सियासी घटना है लेकिन 2024 में क्या होगा, इसका आकलन तो अभी से होने लगा है क्योंकि एनडीए के ये तीन सियासी किरदार मोदी, योगी और राजभर तो तब भी पूरे असर के साथ मौजूद रहेंगे।
योगी यानी यूपी की 80 सीटों की जिम्मेदारी वाला आत्मविश्वास और हिंदुत्व से ओतप्रोत गेरुआ वस्त्रधारी एक ऐसा चेहरा जो मोदी के बाद और कहीं – कहीं मोदी से ज्यादा प्रभावी नजर आता है। हालांकि योगी भी ये मानते हैं कि दिल्ली की कुर्सी उनसे अभी दूर है लेकिन दिल्ली 2024 के मामले में उन पर बहुत ज्यादा निर्भर है, यह भी एक सच्चाई है। गुजरात के बाद यूपी या उससे पहले यूपी ही ऐसा राज्य है जहां मोदी अपने आपको कंफर्ट जोन में महसूस करते रहे है लेकिन वसुधैव कुटुंबकम् और हिंदुत्व के सियासी ब्रांड मोदी खुद को पिछड़ों के ब्रांड के रूप में पेश करने लगते है तो थोड़ा अजीब लगता है और पिछड़ों को लेकर वोटों का गणित बनाते हुए राज्य के सबसे नेता ठाकुर बिरादरी वाले संत योगी को तकरीबन नजर अंदाज कर देते है और भी ज्यादा अजीब। ओम प्रकाश और राजभर की पुनर्वापसी के समय न तो योगी को न तो तीन में रखा गया और न तेरह में। नतीजा यह हुआ कि घोसी में पार्टी तीन – तेरह हो गई और जीत के बाद पौ बारह की उम्मीद करने वाले तमाम पिछड़े ‘ पराक्रमी ‘ नेता हार के बाद नौ – दो ग्यारह।
योगी के साथ पहली बार ऐसा नहीं हुआ है । ए के शर्मा की इंट्री को लेकर भी उनसे कोई राय नहीं ली गई थी और पिछले कैबिनेट में दिल्ली की तमाम इच्छा के बावजूद योगी ने उनको डेप्युटी सीएम के रूप में शपथ नहीं दिलवाई थी। बाद में गुजरात कैडर के पूर्व नौकरशाह और पीएमओ में रहे मोदी प्रिय ए के शर्मा धीरे धीरे पार्टी और फिर दूसरी पारी में मंत्री के रूप में सरकार में एडजस्ट किया गया।
मोदी और योगी दोनों ही हिंदुत्व के ब्रांड वाले बड़े नेता हैं। कभी – कभी साथ तो कभी – कभी आमने – सामने भी नजर आते हैं। लखनऊ के राजभवन में योगी के कंधे पर मोदी का हाथ रखकर खिंचाई गई तस्वीर उन्हें साथ – साथ बताती है तो घोसी और उसके आसपास बनाई गई रणनीति दूर -दूर। 2024 के मामले में मोदी के लिए दो नेता बहुत ही अहम है पहला अमित शाह जो उनके जन्मस्थान और कर्म स्थान दोनों से ताल्लुक रखते है और उनकी परिक्रमा वाली मुद्रा में रहते हैं। जहां तक योगी की बात है तो वह मोदी के सिर्फ कर्म स्थान में हैं परिक्रमा की बजाय प्रदक्षिणा (अपनी जगह पर घूमना) में ज्यादा यकीन रखते हैं लेकिन शाह से यूपी के मामले में कई गुना ताकतवर भी हैं। इसी वजह से कई बार उनके निशाने पर रहते हैं। जहां तक मोदी की बात है तो वहदोनों को ही तरजीह देते है, लेकिन जरूरत के मुताबिक और कई मामलों में कम – ज्यादा तरजीह देकर दोनों के बीच संतुलन बनाए हुए भी मोदी को देखा और समझा गया है। एक तरफअयोध्या, काशी और मथुरा की हिंदुत्व वाली राजनीति और दूसरी तरफ पिछड़ों और दलितों की चुनावी राजनीति दोनों का विरोधाभास साथ लेकर चलने वाली बीजेपी ने जाने अंजाने यूपी को एक ऐसा चेहरा दिया है जो कानून – व्यवस्था के मामले में देश की अधिकतर जनता को पसंद है। एक ऐसा दम दिया है जो जो अपनों परायों की ओर से तैयार किए गए चक्रव्यूह को काटकर निकलता है और अपनी जीत तय करता है। मोदी और योगी की खास बात यह भी है कि ये अपने दुश्मनों को कभी माफ नहीं करते लेकिन दोनों इस मामले में अलग हैं कि मोदी जहां अपनी दोस्ती की लगातार समीक्षा करते रहते हैं वहीं योगी अपनी दोस्ती पर हर हाल में कायम रहते हैं। 2000 के 2005 के बीच बीजेपी की राजनीति में हिंदुत्व के ब्रांड को लेकर उभर रहे दोनों नेता एक- दूसरे को बहुत कम ही पसंद करते थे, लेकिन आज के दौर में साथ -साथ हैं। 2024 की जीत दोनों का ही लक्ष्य है। योगी की अपनी ताकत ऐसी है कि उन्हें लोकसभा चुनाव के दौरान नजर अंदाज किया जाना पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है और उनकी रजामंदी के बगैर फैसला लेना घोसी जैसे परिणाम को आमंत्रित कर सकता है।
यह योगी का उत्तर प्रदेश है, जहां 2024 के प्रश्नों के तमाम उत्तर है। यह शिवराज का मध्य प्रदेश और वसुंधरा का राजस्थान नहीं। यहां गुणा – गणित के मामले में मोदी और उनके रणनीतिकार अमित शाह को फूंक – फूंक कर कदम रखना होगा। यह जीत के लिए जरूरी भी है और मजबूरी भी।