राजेश बैरागीl 61 दिनों तक ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण पर दिन रात धरना देने के बावजूद वास्तव में पीड़ित किसानों को क्या हाथ लगा? यदि एक सांसद के वफादार बनने के लिए इतना लंबा चौड़ा आयोजन किया गया तो भविष्य में किसानों की समस्याओं के समाधान की कितनी उम्मीद बचती है?
ये प्रश्न उन किसान नेताओं का पीछा कर रहे हैं जिनके आह्वान पर क्षेत्र के स्त्री पुरुष और बुजुर्ग भी जून की तपती गर्मी में प्राधिकरण के आगे दो महीने तक दिन रात धरने पर बैठे रहे। ऐसी घोषणाएं और ऐसी प्रतिज्ञाएं की जा रही थीं कि इस बार आर-पार की लड़ाई होकर रहेगी। क्षेत्र के भूमिहीनों को 40 वर्गमीटर आवासीय भूखण्ड दिलवाने का झांसा देकर धरना स्थल पर लाया गया।तब एक गांव की परिचित महिला ने मुझसे पूछा,-क्या हमें प्लॉट मिल जाएगा? मैंने कहा,- तुम्हें प्लॉट तो नहीं मिलेगा परंतु यह आंदोलन उचित मांगों को लेकर है, इसलिए तुम भी साथ दो।’ वह महिला अक्सर धरने पर बैठी दिख जाती थी। धरना उठाने से पहले उससे और उस जैसी कितनी महिलाओं से कुछ नहीं पूछा गया।
एक सांसद की इच्छा पर धरना समाप्त कर दिया गया। अब धरना आयोजित करने वाले किसान नेता गांव गांव बैठक कर प्राधिकरण से समझौता पत्र प्राप्त करने को अपनी ऐतिहासिक विजय बता रहे हैं।ऐसा करने से क्या हासिल होगा? दरअसल धरना आयोजित करने वाले किसान नेताओं को अपना अभीष्ट प्राप्त हो गया है। प्राधिकरण, पुलिस और प्रशासन में उनकी पहचान उजागर हो गई है। राजनीति का व्यापार ऐसे ही चलता है। राजनीति में पहचान ही सबसे बड़ा संकट होता है। किसान नेताओं ने इस संकट पर विजय हासिल कर ली है। किसानों का संकट ज्यों का त्यों है। उन्हें साधे रखने के लिए गांव गांव सभा की जा रही हैं। पहचान धूमिल पड़ने पर सीधे सादे किसानों और भूमिहीनों को फिर प्राधिकरण के द्वार पर खड़ा करने में सहूलियत रहेगी।तब तक समझौता पत्र का झुनझुना बजता रहेगा।