राजेश बैरागी । आज मंगलवार था, आज ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण में फिर जनसुनवाई थी।न जाने कितने जन अपनी सुनवाई की आस लेकर आए थे। इनमें से न जाने कितने जन या सभी जन जनसुनवाई नामक ‘मनोरंजक’ कार्यक्रम में पहली बार नहीं आए थे।वे हमेशा आते हैं। चौथे माले पर अंदर बड़े से हॉल में खड़े होकर या बाहर बैठकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं और जब धैर्य जवाब (देने नहीं) मांगने लगता है तो युगों युगों से पीड़ित जन जनकल्याण के लिए समर्पित अधिकारी के कान पर खड़े होकर अपनी व्यथा बताने लगते हैं। यही जनसुनवाई का चरमोत्कर्ष होता है।
एक अधिकारी एकसाथ कितने जन की पीड़ा जान सकता है। वह सबकी पीड़ा एक साथ सुनने और समझने का प्रहसन करने लगता है। प्रत्येक जन को लगता है कि उसी की पीड़ा सुनी जा रही है, फिर उसे लगता है कि उसी की पीड़ा नहीं सुनी गई है। वह जोर से बोलता है, अपने साथ लाए कागज दिखाता है, विधायक सांसद का सिफारिशी पत्र भी अधिकारी की नजर करता है। वह रुआंसा हो उठता है।उसे कोई रास्ता नहीं सूझता। वह पहले अधिकारी से उसके कक्ष में मिलता था,तब भी उसकी समस्या का समाधान नहीं हुआ था। अब जनसुनवाई में तो भिंडी बाजार बना हुआ है।न शिकायतों का लेखा जोखा है,न समाधान का। अधिकारी आश्वासन देकर पीड़ित जन को चलता कर देते हैं।
आमतौर पर प्राधिकरण की मुखिया जनसुनवाई करती हैं।आज वे नहीं थीं। उनके स्थान पर दो अपर मुख्य कार्यपालक अधिकारी जनसुनवाई कर रहे थे। चलने से लाचार एक वृद्ध से मैंने पूछ ही लिया,-कुछ मिला?उस वृद्ध ने मेरी ओर कातर दृष्टि से देखते हुए कहा,-अधिकारी तो वही हैं, कुछ करते तो पहले ही कर देते, जनसुनवाई का नाटक करने की क्या जरूरत है।