जिसकी फसलों को खेतों में खाते कीट पतंगे हैं,
फिर खलिहानों से कुछ हिस्सा ले जाते भीखमंगे हैं,
बाजारों में उनकी फसलों का भी मोल नहीं मिलता,
सिर्फ सियासत करते इस पर राजनीति के नंगे हैं,
यूं तो भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है । किसानों को अन्नदाता कहा जाता है। भले ही पिछले वर्ष किसानों के साथ हुई साजिशन राजनीति ने धरती पुत्रों का बहुत नुकसान किया हो । फिर भी किसानों के बिना एक सुखद एवं समृद्ध राष्ट्र की परिकल्पना नहीं की जा सकती । सच्चाई ये है कि किसान इस देश में सदियों से छले जाते रहे हैं । जमीनी वास्तविकता ये होती है कि जो किसान पूरे देश का पेट भरने के लिए मौसम की विषम परिस्थितियों में अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है; उसे और उसके परिवार को कई बार भर पेट भोजन भी नहीं मिलता है। अच्छा खान पान, अच्छा रहन सहन, अच्छा घर मकान और सुविधाएं भी इन धरती पुत्रों से अपनी दूरी बनाए रहती हैं ।
अभी इंटरनेट में एक खबर तेजी से वायरल हो रही है कि केंद्र सरकार हरियाणा और पंजाब के किसानों का सूखा, मुरझाया हुआ, टूटा और खराब गेहूं भी खरीदेगी। वो भी सरकारी तय दामों में खरीदेगी । अब सरकार के इन नुमाइंदों से पूँछना चाहते हैं कि आप पंजाब और हरियाणा का सड़ा गला गेहूं भी खरीदने को तैयार हैं लेकिन बुंदेलों का शानदार हरा मटर भी खरीदने की क्षमता आपमें नहीं हैं।
अगर यही स्थिति रही तो दालों के लिए भी कटोरा फैलाना होगा । या फिर सड़ी मुरझाई हुई दालें खानी पड़ेगीं । मटर पनीर से हरा मटर गायब हो जाएगा । पानी पूरी से मटर और चटखारे वाली चाट भी खत्म हो जाएगी । क्योंकि मुरझाए हुए मटर से न दाल बनती है न चाट और न ही मटर पनीर की सब्जी !
बात यूं है कि गेहूं की फसल में लगातार घाटे एवं पानी की कमी व अत्यधिक लागत की वजह से बुन्देलखण्ड के महोबा, हमीरपुर, जालौन, झांसी, ललितपुर,बांदा, छतरपुर इत्यादि जिलों के किसानों ने हरे दंतेवाड़ा मटर की खेती की । जिसमें सिंचाई की कम आवश्यकता होती है। किसानों ने अच्छी गुणवत्ता का बीज लगभग 12 हजार प्रति क्विंटल से लेकर 18 हजार रूपए प्रति क्विंटल तक बुवाई के लिए खरीदा । वर्ष 2020-21 में यही हरी दंतेवाड़ा मटर 9 हजार से लेकर 12 हजार रुपए प्रति कुंतल तक किसानों से खरीदी गई थी। वही इस वर्ष ( 2021-22) हरे मटर की बुन्देलखण्ड क्षेत्र में अच्छी पैदावार हुई है । लेकिन स्थिति ये है कि कोई भी व्यापारी या सरकारी संस्थान इसे खरीदने को तैयार नहीं हैं । या फिर किसानों से व्यापारी औने पौने दाम में खरीदना चाह रहे हैं । जो हरी मटर बीज के लिए १२ हजार से लेकर 18 हजार रुपए प्रति क्विंटल तक किसानों को मिली हो । ऐसा कैसे हो सकता है कि वो हरी मटर 3000 से 4000 रुपए प्रति क्विंटल ही किसानों से खरीदी जाए । इस प्रकार तो किसानों का लागत मूल्य भी नहीं निकल रहा है । साथ ही किसानों को हरी मटर में भारी नुकसान हो रहा है । बुन्देलखण्ड में किसानों को गेहूं में लगातार नुकसान हो रहा था तो किसानों ने इस वर्ष गेहूं उगाया ही नहीं । इससे सरकारी केंद्रों में गेहूं नहीं पहुंच रहा है । सरकार के हांथ पांव फूल गए। यदि सरकारें ईमानदारी से किसानों के फसलों के दाम दें तो ये सड़े कटे मुरझाए हुए गेहूं खरीदने की नौबत नहीं आए ।
यदि समय रहते सरकारों ने स्थिति पर ध्यान नहीं दिया तो गंभीर समस्या उत्पन्न हो जायेगी । सरकार के प्रतिनिधियों को चाहिए कि इस दिशा में वार्ता करके किसानों की समस्या से अविलंब राहत दिलाएं । किसानों को यदि अपने उत्पाद के उचित दाम नहीं मिले तो भला वो कृषि क्यों करेंगे। अन्यथा आज सरकारी केंद्रों में गेहूं कम आ रहा है तो सरकारें राशन कार्ड सरेंडर करवा रही है तो आगे यदि चना, मटर का भी किसानों ने उत्पादन बंद कर दिया तो क्या चाट के ठेले, मटर पनीर की सब्जी, दालों और बेसन के उत्पादों पर भी पाबंदी लगा देगी सरकार ?
“चेतन” नितिन खरे
कवि एवं लेखक
(महोबा बुन्देलखण्ड )