के के अस्थाना । अब जा कर पता लगा कि हिंदी की आज जो हालत है वह आखिर है क्यों ! लोग पता नहीं किस किस को दोष देते फिर रहे थे. मेरे अलावा किसी ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया. पता नहीं इतने हिंदी संस्थान और इतनी हिंदी अकादमियां सालो साल किया क्या करती हैं. इतनी छोटी सी बात पर किसी ने गौर नहीं किया. कोई शोध नहीं हुआ. सही कहते हैं कि हिंदी में शोध की बड़ी कमी है !!
बच्चन जी अर्थात हरिवंश राय बच्चन जी या फिर शायद मुंशी प्रेमचंद ने अपनी आत्मकथा में कहीं लिखा था कि उन्होंने अपने जीवन में बहुत बीमारों की सेवा की. और उन्होंने जिस जिस की सेवा की, वह सब भगवान् को प्यारे होते गए. अब आगे ध्यान देने की बात है कि इन दोनों ने भी हिंदी की बहुत सेवा की थी.
चूँकि मुंशी प्रेमचंद ने औपचारिक रूप से अपनी कोई आत्मकथा लिखी नहीं, इसलिए मान लेते हैं कि यह बात बच्चन जी ने ही लिखी थी. बच्चन जी ने आगे यह भी लिखा है कि उनके भगवान् को प्यारे हो जाने में उनकी सेवा का कोई दोष नहीं था, यह तो मात्र संयोग था ! यह तो हम भी मानते हैं कि मात्र संयोग था. पर संयोग तो था !! बच्चन जी के रिश्तेदार उनके सेवा करने के बाद कुछ दिन और जी गए होते, तो यह संयोग न होते. हिंदी की दशा आज कुछ और ही होती.
हिंदी की आज जो दशा है वह भी मात्र संयोग है !! हिंदी में बच्चन जी और प्रेमचंद के होने के बावजूद यह संयोग है !! महादेवी, पन्त और निराला के होने के बाद भी यह संयोग है. केन्द्रीय हिंदी सचिवालय और हिंदी प्रदेशों में हिंदी संस्थानों के होते हुए भी यह संयोग है. बैंकों में हिंदी सप्ताह मनाये जाने के उपरांत भी यह संयोग है. राजभाषा विभागों में इतना बजट होने के बाद भी यह संयोग है. पर वो सब बेचारे क्या करे. सब बच्चन जी के कारण है !! न बच्चन जी ने हिंदी की सेवा की होती न यह सब होता.
हालाँकि बच्चन जी या मुंशी प्रेमचंद ने कभी यह दावा नहीं किया कि उन्होंने हिंदी की सेवा की. न महादेवी वर्मा ने कभी कहा होगा कि वह हिंदी सेवी हैं. वह लोग तो अपना काम कर रहे थे. कवितायें लिख रहे थे. यह तो हम मानते हैं कि उन्होंने हिंदी की सेवा की. विश्व में हिंदी एक मात्र भाषा है जिसमे लिखने को हिंदी की सेवा करना कहा जाता है. अब पता नहीं यह परम्परा कितनी पुरानी है. पर फिलहाल यह परम्परा चलन में है.
हमें किसी दूसरी भाषा का भले ही एक शब्द न आता हो. वह भाषा हम गलत सलत बोलते हों. उस भाषा में एक वाक्य लिख न सकते हों, पर हिंदी में पहला वाक्य बोलते ही हम हिंदी की सेवा करने लगते हैं. हम तो हिंदी में हस्ताक्षर करने वाले को हिंदी सेवी मान लेते हैं. हम हिंदी का अखबार खरीद कर भी हिंदी की सेवा कर रहे होते हैं.
कवियों में आपस में चाहे कितनी भी गुटबाजी क्यों न हो, पर कविता की एक टूटी फूटी लाइन तक लिख लेने वाले को वह बड़े गर्व से हिंदी सेवी मान लेते हैं. बदले में वह भी उनको हिंदी सेवी मान लेता है. इस तरह हमारे देश में हिंदी सेवियों की एक बड़ी जमात तैयार हो चुकी है. जब दूसरे लोग हिंदी सेवी मानने लगते हैं तो धीरे धीरे वह भी खुद भी खुद को हिंदी सेवी मानने लगता है. आगे चल कर वह बुरा मानने लगता है कि वह इतना वरिष्ठ हिंदी सेवी है, फिर भी उसे साहित्य अकादमी अवार्ड नहीं दिया गया. पद्मश्री न दिए जाने पर मुंह फुला लेता है. पद्मश्री दिए जाने पर कहता है कि इतनी देर से क्यों दिया गया.
इस मामले में हम बाकी दुनिया से अलग हैं. किसी अंग्रेज ने आज तक नहीं कहा होगा कि शेक्सपियर ने अंग्रेजी की सेवा की. संगम कवियों ने तमिल साहित्य को समृद्ध किया, यह तो सब मानते हैं. पर इन कवियों ने तमिल की सेवा की, यह मैंने आज तक नहीं सुना.
यह तो हम हिंदी भाषी हैं जो मानते हैं कि हमारे साहित्यकारों ने हिंदी की बड़ी सेवा की. वह भले ही दावा न करें, पर हम तो मानते हैं उन्होंने सेवा की. उसमे बच्चन जी का नाम बहुत ऊपर है. बच्चन जी ने हिंदी की बड़ी सेवा की है. और बच्चन जी ने जिस जिस की सेवा की उसका क्या हुआ, इस बारे में बच्चन जी खुद लिख गए हैं.
मेरे इस शोध से हिंदी अकादमियों में ख़ुशी की लहर है. उन्हें पता चल गया है कि हिंदी की आज जो दशा है, उसमे उनका कोई दोष नहीं. यह सब बच्चन जी के कारण है !!
लेख में दिए विचार से एनसीआर खबर का सहमत होना आवश्यक नही है