“आखिर ये हो क्या रहा है ? मुझे कोई कुछ बताता क्यों नहीं ?” धृतराष्ट्र कम से कम बीच बीच में यह डायलॉग तो बोल देते थे। आज राष्ट्र तो धृतराष्ट्र से भी आगे निकल गया है। मूक दर्शक बन कर देख रहा है। कुछ बोल नहीं रहा है। हमेशा की तरह दिल्ली के खिलाफ जंग चल रही है। शिखंडियों ने मोर्चा संभाल लिया है। सामने किसान और किसानों के नाम पर जाने किस किस को बिठा रखा है। विपक्षी ललचाई नज़रों से देख रहे हैं। पर सूत्रधार इनको भी घास नहीं डाल रहे हैं। खेल कुछ ज्यादा ही ऊंचा नज़र आ रहा है।
भीष्म चुप हैं। विदुर मौन हैं। बोलने से किसान विरोधी होने का कलंक माथे पर लग सकता है। किसानों के खिलाफ बोलना पाप जो ठहरा। किसान भोले भाले जो होते हैं। किसान अन्नदाता जो होते हैं। हमारे कवियों ने उन्हे कभी ग्राम देवता जो कह दिया था। अब उनके खिलाफ कैसे बोला जाये भला। किसानों का वोट बैंक भी तो खिसक सकता है। विपक्ष कसमसा कर रहा जा रहा है। बड़ी समस्या है।
भोले भाले किसानों का कोई नेता नहीं है। बस मुखिया हैं।
किसानों के मुखिया ने अपने भोलेपन में छब्बीस जनवरी से पहले कभी कह दिया था कि सब दिल्ली आ जाओ। साथ में मोटे मोटे डंडे भी ले आना। हाँ उनमे झंडे जरूर लगा लेना। सरकार जरा बिगड़ रही है। उसे सही करना है। और बहुत सारे भोले भाले किसान अपने अपने डंडों के साथ दिल्ली आ लिए। झंडे का डांडा और किस किस काम आ सकता है, यह हमारे किसानों को भली भांति पता है। वह तो आदि काल से जिसकी लाठी उसकी भैंस का हिमायती रहा है। उसकी डोरी खींचने वालों को भी भली भांति यह पता है।
भोले किसानों की जिद थी कि छब्बीस जनवरी को हम भी परेड निकालेंगे। क्यों न निकालते। भारत सरकार से बराबरी की टक्कर जो थी। एक मेज पर बैठ कर बात जो कर रहे थे। जब सरकार परेड निकाल सकती है तो उससे टक्कर लेने वाले किसान क्यों नहीं। बिलकुल निकाल सकते हैं। सरकार आखिर है क्या ! सरकार भी तो जनता की प्रतिनिधि है। किसान भी जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रतिनिधि प्रतिनिधि दोनों बराबर। तो किसान भी परेड निकालने का हक़ रखते हैं। सरकार ने जिद्दी बच्चे की बात मान ली। जिद्दी बच्चा परेड पर निकला।
बीच में उसका मन बदल गया। वह मचल गया कि छब्बीस जनवरी को ही पंद्रह अगस्त भी मनायेंगे। लाल किले पर झण्डा भी फहरायेंगे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भी तो नारा दिया था ‘दिल्ली चलो।‘ वह भी तो लालकिले पर झण्डा फहराने ही आ रहे थे। सीधे सादे भोले भाले किसान तो एक ही बात जानते हैं कि देशप्रेम का मतलब है लालकिले पर झण्डा फहराना। सो फहरा दिया। इस बाल सुलभ घटना को सत्ता के मद में चूर लोग देशद्रोह जैसा घटिया नाम दे रहे हैं। सत्ता पक्ष इस देशप्रेम को देशद्रोह मान रहा है तो कोई क्या करे।
उनकी तो छोटी सी मांग है कि सरकार घुटने टेके। उन्होने और उनके सूत्रधारों ने बहुत दिनों से घुटने टेकती हुई सरकार जो नहीं देखी है। पता नहीं सरकार को इसमे समस्या क्या है! पहले तो सरकारें बात बात पर घुटने टेक देती थीं। यह सरकार घमंडी है। अपने मद में चूर है। किसानों और उनके सूत्रधारों की छोटी सी बात नहीं मान सकती। सरकार की यह हठधर्मिता किसानों के सूत्रधारों को भी नहीं पसंद, तो भला इसमे किसान क्या करे। सरकार ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। नहीं बनाना चाहिए।
किसान तो बेचारा भोला भाला है।बुलाने पर हमेशा बात करने गया है। कभी मना नहीं किया। पर सरकार उसकी छोटी सी बात नहीं मान सकती। वार्ता से पहले कानून क्यों नहीं समाप्त कर सकती! उसने तो पहले ही कह दिया था कि हम वार्ता तो कर रहे हैं पर कानून वापस लेने से कम पर कोई बात नहीं होगी। कानून अच्छा है या बुरा, इस पर भी बात कर लेंगे। पर तुम पहले कानून तो वापस लो। पर सरकार अड़ी है। कानून वापस ही नहीं ले रही है। किसान भी क्या करे। उसने भी तो यही सीखा है कि कह दिया तो कह दिया।खटोला यहीं बिछेगा ! गेंद हमेशा की तरह सरकार के पाले में है।
विपक्ष को पता है कि भोला भाला किसान जिदिया गया है। बालसुलभ ढिठाई पर उतर आया है। भोला भाला किसान सड़क पर टेंट लगा कर बैठा है। वो तो लंगर वाले हैं कि लाख मना करने पर भी मान नहीं रहे हैं।अपने आप पैरों में मालिश करने वाली मशीनें ले आए हैं तो भला कैसे मना कर दें। सदियों से थका मांदा किसान जरा सा मसाज क्या कराने लगा कि अमीरों के कलेजे पर साँप लोट गया। सबने इसी को इशू बना लिया। उन्हे लगता है कि किसान तो सिर्फ फटे पुराने कपड़े ही पहन सकता है और सिर्फ आल्हा सुन सकता है। रिहाना ने उसके लिए ट्वीट कर दिया तो अमीरों से देखा नहीं गया।
अमीरों को लगता है कि किसान तो सिर्फ जय संतोषी माता की फिल्म ही देख सकता है। उसकी सीमा माता की चौकी और जगराता तक ही है। मिया खलीफा थके मांदे किसानों के लिए आगे क्या आ गयी कि अमीरों में भूचाल आ गया। किसान तो खुले दिल से सबको अपनाता है। मिया खलीफा के आने को लगभग सारे किसान सर्वधर्म समभाव के तौर पर देख रहे हैं। अपनी बेटियों को बता रहे हैं कि खलीफा भी किसान आंदोलन का साथ दे रहे हैं। धर्मांध विपक्ष इसे अनावश्यक धार्मिक हस्तक्षेप के तौर पर देख रहा है।
उधर कनाडा के प्रधानमंत्री से किसानों की दारुण दशा देखी नहीं जा रही है। माइनस तापमान के बावजूद भी उनका हृदय पिघला जा रहा है। उन्हे चिंता है कि कहीं यह किसान कनाडा जैसे ठंढे देश में खालिस्तान बनाने की मांग न कर दें।क्या होगा उनके बूढ़े बेबे और दारजी का। बेचारे इतनी ठंढ में रहेंगे कैसे। इसलिए ट्रूडो चाहते हैं कि खालिस्तान अगर बने तो हिंदुस्तान में ही बने।
वैसे इस सब से दिल्ली निश्चिंत है। दिल्ली को तो आदत है। उसे पता है कि गोरी नहीं तो अबदाली आएगा। नहीं तो तैमूर लंग। इससे बची तो अंग्रेज़। कोई न कोई तो उसे रौंदने आ ही जाएगा। पर इस बार इतनी जल्दी जयचंदों और मीर जाफ़रो की जमात एकजुट हो जाएगी, यह उसने सपने में भी नहीं सोचा था।
दिल्ली को रह रह कर इंद्रप्रस्थ के जमाने की याद आ रही है। एक बार फिर विदुर चुप हैं। भीष्म मौन हैं। अन्य महारथियों की निष्ठा एक बार फिर सत्ता की संभावना के साथ है। वोट की शक्ति ने उनके मुंह पर ताला लगा दिया है। जनता ने हमेशा की तरह गांधारी की भांति आँखों पर पट्टी बांध ली है। सिंघू , टिकरी और गाजीपुर बार्डर पर सेनाएँ आमने सामने हैं। कोई कृष्ण कहीं नज़र नहीं आ रहा है। इस बार तो धृतराष्ट्र का ‘यह क्या हो रहा है?’ वाला कातर स्वर भी सुनाई नहीं दे रहा है।
के के अस्थाना
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