गुरु पूर्णिमा का व्रत 4 जुलाई के दिन रखा जाएगा, लेकिन गुरु पूर्णिमा का पर्व 5 जुलाई के दिन मान्य जाएगा।
पूर्णिमा तिथि प्रारंभ होगी 4 जुलाई 2020 शनिवार को 11 बजकर 57 मिनट पर
पूर्णिमा तिथि समाप्त होगी
5 जुलाई 2020 रविवार 10 बजकर 8 मिनट पर
गुरु पूर्णिमा के दिन मान्ध चंद्र ग्रहण
5 जुलाई को मान्ध चन्द्र ग्रहण आषाढ शुक्ल पक्ष रविवार तारीख’ 5.7.2020 ई.को मान्द्य चन्द्र ग्रहण का भारतीय समय से स्पर्श दिन में 8:37
बजे एवं मोक्ष दिन में 11:22 बजे होगा। यह ग्रहण भारत, आस्ट्रेलिया, इरान, ईराक, रूस, चीन, मंगोलिया तथा भारत के सभी पड़ोसी देशों को छोड़कर शेष: सम्पूर्ण विश्व में दृश्य होगा।
इस ग्रहण का धार्मिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं है। इसमें किसी भी प्रकार का यम-नियम सूतक आदि मान्य नहीं होगा।
गुरु पूर्णिमा पूजा विधि
इस दिन प्रातकाल स्नान के बाद साफ वस्त्र धारण कर सत्यनारायण भगवान व गुरु व्यास जी के चित्र को सुगंधित फूल या पुष्पों की माला अर्पित करे विधिवत पूजा करें। इसके बाद अपने गुरु को ऊंचे आसन पर बैठाकर पुष्पमान अर्पित करें और अपनी सामर्थ्य अनुसार कुछ न कुछ भेंट करके उनका आशीर्वाद लें। इस दिन गुरु के साथ सात परिवार के बड़ों को भी गुरु तुल्य समझकर उनका आशीर्वाद लें। शास्त्रों के अनुसार गुरु से मंत्र प्राप्त करने के लिए यह दिन श्रेष्ठ माना गया है।
गुरु पूर्णिमा पर्व महत्व
पौराणिक काल के महान व्यक्तित्व, ब्रह्मसूत्र, महाभारत, श्रीमद्भागवत और अट्ठारह पुराण जैसे अद्भुत साहित्यों की रचना करने वाले महर्षि वेदव्यास जी का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को हुआ था ऐसी मान्यता है।
वेदव्यास ऋषि पराशर के पुत्र थे। हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार महर्षि व्यास तीनों कालों के ज्ञाता थे। उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से देख कर यह जान लिया था कि कलियुग में धर्म के प्रति लोगों की रुचि कम हो जाएगी। धर्म में रुचि कम होने के कारण मनुष्य ईश्वर में विश्वास न रखने वाला, कर्तव्य से विमुख और कम आयु वाला हो जाएगा। एक बड़े और सम्पूर्ण वेद का अध्ययन करना उसके बस की बात नहीं होगी। इसीलिये महर्षि व्यास ने वेद को चार भागों में बाँट दिया जिससे कि अल्प बुद्धि और अल्प स्मरण शक्ति रखने वाले लोग भी वेदों का अध्ययन करके लाभ उठा सकें।
व्यास पूर्णिमा पूजा विधि
इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर भगवान विष्णु का स्मरण कर दिन की शुरुआत करें। इसके पश्चात धरती माता को प्रणाम कर उनसे आशीर्वाद लें। अब नित्य कर्मों से निवृत होकर गंगाजल युक्त पानी से स्नान ध्यान करें और आमचन कर व्रत संकल्प लें। इस समय निम्न मंत्र स्तुति करें-
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
तत्पश्चात, भगवान भास्कर को जल का अर्घ्य दें और फिर गुरु ( ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश) की पूजा फल, फूल, धूप-दीप, तंदुल, अक्षत, कुमकुम और रोली आदि से विधि पूर्वक करें। अंत में गुरु व्यास से बल, बुद्धि और विद्या हेतु कामना करें। खासकर विद्यार्थियों के लिए यह दिन अति उत्तम है। इसके बाद अपने गुरु को दक्षिणा दें।
गुरु का महत्व
बहुत से लोग कहते है मुझसे साधना पूरी दो, ये साधना बताओ वो मन्त्र बताओ उनके लिए मैं यह कहना चाहूंगा साधना साधरण वस्तु नही की जो मांगे उठा के दे दे ।साधना अपने आप में अनन्त शक्तियां समाए रखती है जैसे ही हम उसको करते है वो शक्तियां जागृत होने लगती है जब वो शक्ति जागृत होती है तो उसे संभालने की क्षमता हमारे शरीर में होने चाहिए .अगर वो शक्ति हम नही संभाल पाते है तो हमारे दिमाग का मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है हम पागल हो सकते है और साधना उग्र हो तो मृत्यु भी हो सकती है । इसी लिए बार बार यही कहा जाता है कोई समर्थ गुरु से दीक्षा लो गुरु के मार्गदर्शन में साधना करो क्योकि गुरु दीक्षा लेने से गुरु की शक्ति हमसे जुड़ जाती है जिससे हम साधनाये आसानी से सिद्ध कर पाते है । बहुत से लोग किताबो या यहा वहा से साधना उठाकर कर लेते है लेकिन मिलता कुछ नही फिर कहते है तंत्र मंत्र कुछ नही सब बकवास है । इसमें गलती हमारी होती है और दोष साधना को देते है । किताबो से या इधर उधर से साधनाये सिद्ध होती तो सभी सिद्ध पुरुष ना हो जाते फिर गुरु को कौन पूछता । दूसरी बात गुरु दीक्षा में नामकरण होता है सनातन धर्म के अनुसार हमारे पाप पुण्य हमारे नाम से ही जुड़ा होता है जब गुरु दारा नया नाम दिया जाता है तो पिछले सभी कर्म खत्म हो जाते है । जिससे साधनाओ में तुरन्त सफलता मिलने लगती है । और गुरु परम्परा से जुड़ने पर उन सब सिद्ध महापुरुषों का आशिर्वाद भी बना रहता है जो पहले रह चुके है ।इसलिये साधनाये उन लोगो को सिद्ध हो जाती है जो दीक्षित होते है । इसलिए साधना मार्ग पर बढ़ने के लिए समर्थ गुरु की अति आवश्यकता होती है । बहुत से कहते है आज के समय में समर्थ गुरु कहा से ढूंढे तो उनको बता दू समर्थ गुरु ढूंढने से पहले समर्थ शिष्य बनना पड़ता है । आज के शिष्य ऐसे हो रहे है पहले तो गुरु से दीक्षा लेते है 6 महीने बाद ही खुद गुरु बन जाते है फिर उसी गुरु को गालिया देकर उससे अलग हो जाते है फिर जब पता चलता है गुरु बिना कुछ नही तो फिर गुरु के पास भागते है गुरु जी गलती हो गयी क्षमा करो अपनी शरण में लो ।। मतलब ये गुरु से 1% ज्ञान लिया नही थोड़ी सी शक्तियां आयी नही की अपने आपको सर्वशक्तिमान समझने लगते है इसलिये ही कोई सिद्ध पुरुष आसानी से किसी को दीक्षा नही देता । बहुत परीक्षाएं होती है तब कहि जाकर गुरु दीक्षा मिलती है ऐसे ही नही ये रास्ता दिखने में बहुत आसान है लेकिन जब इस पँर चलते है तो कठिनाइयों का पता चलता है ।ये विषय बहुत बड़ा है लेकिन शायद इतने से ही समझने वाला समझ जायेगा ।
क्यों आवश्यक है गुरु
अध्यात्म और साधना के क्षेत्र में गुरु का महत्त्व इसलिए नहीं है कि वह मंत्र बताता है ,अथवा शुद्ध उच्चारण बताता है या देवी देवता का चुनाव करता है या शक्तिपात करता है या पूजा पद्धति बताता है |वह अपनी अर्जित शक्ति शक्तिपात आदि से अथवा अपना अर्जित ज्ञान तो देता ही है ,गुरु का महत्त्व इसलिए होता है की वह सफलता को निश्चित करने के सूत्र देता है |वह हजारों साल के अनुभव और तकनिकी से अवगत कराता है जिससे सफलता शीघ्र और निश्चित रूप से मिलती है |
कहा जा सकता है की क्या गुरु की आयु आज के समय में हजार साल हो सकती है जो वह हजार साल के अनुभव और तकनिकी देता है |नहीं ,वह हजार साल की आयु का भले नहीं हो किन्तु उसमे कई हजार साल के अनुभव होते हैं और वह देता है |गुरु को उनके गुरु से ,उन्हें उनके गुरु से ,उन्हें उनके गुरु से ,इस क्रम में हजारों सालों के अनुभव ,सफलता ,असफलता के कारण ,उनकी खोजें ,वह तकनीक जिससे इन क्रमों में सफलता निश्चित और शीघ्र मिली ,यह सब प्राप्त हुआ होता है |इसके अलावा विभिन्न गुरु स्तरों पर साधना और सूक्ष्म विचरण के अनुभव |प्राप्त ज्ञान केवल अपने योग्य शिष्यों को ही गुरु द्वारा बताया गया होता है |इस प्रकार के अनुभव क्रमिक रूप से आते हुए गुरु में एकत्र होते हैं और यह अनुभव कोई गुरु कभी न तो लिखता है न लिखने की अनुमति देता है ,वह सभी शिष्यों को सबकुछ बताता भी नहीं |इसलिए यह तकनीक और अनुभव न किताबों में लिखी जाती है न संभव है |
इन सब तकनीकियों और ज्ञान के लिए ही गुरु का महत्त्व सर्वाधिक होता है |मंत्र और पद्धतियाँ तो किताबों में भी मिल जाती हैं ,किन्तु तकनीक और अनुभव नहीं होते |गुरु द्वारा प्राप्त मंत्र भी जाग्रत और स्वयं सिद्ध होते हैं |यही कारण है की किताबों से सफलता नहीं मिलती अगर थोड़ी बहुत मिल भी जाए तो कुछ थोडा सा पाने और खुद को श्रेष्ठ समझने में ही जीवन आयु समाप्त हो जाती है और व्यक्ति अंत में सोचता है काश समय रहते किसी को गुरु बना लिया होता अथवा गुरु खोज लिया होता या कोई योग्य गुरु मिल गया होता तो अधिक सफल हो जाता और लक्ष्य पा जाता |
“गुरु कृपा चार प्रकार से होती है ।”
०१ स्मरण से
०२ दृष्टि से
०३ शब्द से
०४ स्पर्श से
1 जैसे कछुवी रेत के भीतर अंडा देती है पर खुद पानी के भीतर रहती हुई उस अंडे को याद करती रहती है तो उसके स्मरण से अंडा पक जाता है ।ऐसे ही गुरु की याद करने मात्र से शिष्य को ज्ञान हो जाता है
यह है स्मरण दीक्षा ।।
2 दूसरा जैसे मछली जल में अपने अंडे को थोड़ी थोड़ी देर में देखती रहती है तो देखने मात्र से अंडा पक जाता है ऐसे ही गुरु की कृपा दृष्टि से शिष्य को ज्ञान हो जाता है ।
यह दृष्टि दीक्षा है ।।
3 तीसरा जैसे कुररी पृथ्वी पर अंडा देती है ,
और आकाश में शब्द करती हुई घूमती है तो उसके शब्द से अंडा पक जाता है । ऐसे ही गुरु अपने शब्दों से शिष्य को ज्ञान करा देता है ।
यह शब्द दीक्षा है ।।
4 चौथा जैसे मयूरी अपने अंडे पर बैठी रहती है तो उसके स्पर्श से अंडा पक जाता है ।
ऐसे ही गुरु के हाथ के स्पर्श से शिष्य को ज्ञान हो जाता है
यह स्पर्श दीक्षा है।।
गुरु की आवश्यकता क्यों
गुरु की चेतना इश्वर से निरंतर संयुक्त रहने के कारण इश्वर तुल्य होती है , जबकि साधारण मनुष्य की चेतना संसार से जुडी रहने के कारण वाह्य्मुखी और अधोगामी होती है। चेतना के वाह्य मुखी और अधोगामी होने के कारण इश्वर से हमारा संपर्क टूट जाता है जिसके कारण अविद्या का प्रभाव बढ़ जाता है। अविद्या के प्रभाव के कारण मनुष्य की प्रवृत्ति छोटी छोटी बातों में दुखी होने की, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध, अनिर्णय और अविवेक की स्थिति से घिर जाता है। फलस्वरूप निम्न कर्मों की ओर प्रवृत होकर चेतना के स्तर से गिर कर मनुष्य योनी को छोड़कर निम्न योनियों को प्राप्त हो जाता है।
गुरु को प्रकृति और ईश्वर के नियमों का ज्ञान होने के कारण उनमे अज्ञानता के भंवर से निकलने की क्षमता होती है। वह शिष्य को धीरे धीरे ज्ञान देकर , कर्मों की गति सही करवाकर और सामर्थ्य की वृद्धि करवाकर अज्ञान के इस भंवर से निकाल कर ईश्वर से सम्बन्ध स्थापित करवा देते है।
क्या हमारा विकास सृष्टि और हमारे परिवारजनों को प्रभावित करता है
हम सभी एक चेतना के अंश है, चाहे वह कोई भी वनस्पति हो, जीव हो, नदी हो, पहाड़ पर्वत हो अथवा पशु पक्षी हो. इसका अर्थ यह है कि ईश्वर सृष्टि के हर कण में विद्यमान है। यह एक अलग बात है की मनुष्य पौधों और जंतुओं में चेतना का प्रतिशत भिन्न भिन्न होता है। चेतना के प्रतिशत के अनुपात के अनुसार कार्य और विचार की क्षमता प्राप्त होती है। मनुष्यों में सृष्टि के अन्य व्यक्त रूपो से चेतना का प्रतिशत अधिक होता है। इसी कारण मनुष्य को इच्छा, कर्म और ज्ञान की सामर्थ्य प्राप्त है। चेतना का स्तर मनुष्य अपने प्रयासों के द्वारा बढ़ा कर परम चेतना को प्राप्त कर सकता है। जब एक चेतना अपना विकास कर परम चेतना को प्राप्त करती है तो सकारात्मक ऊर्जा की सृष्टि में वृद्धि हो जाती है और विभिन्न अनुपातों में अन्य प्राणियों के विकास में सहायक होती है।
महाभागवतं तत्र आचार्य संश्रयेत्सुधीः।
अर्थपञ्चकतत्त्वज्ञाः पञ्चसंस्कार संस्कृताः।
आकारत्रय सम्पन्नास्ते वै भागवतोत्तमाः॥
–नारद पाञ्चरात्र
“श्रेष्ठ वैष्णवाचार्य (महाभागवत) का ही आश्रय बुद्धिमान सज्जनों को करना चाहिए। जो आचार्य अर्थपञ्चक के तत्त्व को जानते हों, पञ्चसंस्कार से सुसंस्कृत हों, अकारत्रय से सम्पन्न हों, वे ही श्रेष्ठ आचार्य महाभागवत कहलाते हैं। उन्हीं श्रेष्ठ पुरुष को गुरु बनाना चाहिए।”
गुरु शिष्य सम्बन्ध की आवश्यक बाते
गुरु दीक्षा क्या है
दीक्षा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द दक्ष से हुई है जिसका अर्थ है कुशल होना।
समानार्थी अर्थ है विस्तार।
इसका दूसरा स्रोत दीक्ष शब्द है जिसका अर्थ है
समर्पण
अतः दीक्षा का सम्पूर्ण अर्थ हुआ
स्वयं का विस्तार
दीक्षा के द्वारा शिष्य में यह सामर्थ्य उत्पन्न होती है कि गुरु से प्राप्त ऊर्जा के द्वारा शिष्य के अंदर आतंरिक ज्योति प्रज्ज्वलित होती है , जिसके प्रकाश में वह अपने अस्तित्व् के उद्देश्य को देख पाने में सक्षम होता है। दीक्षा से अपूर्णता का नाश और आत्मा की शुद्धि होती है।
गुरु का ईश्वर से साक्षात सम्बन्ध होता है। ऐसा गुरु जब अपनी आध्यात्मिक , प्राणिक ऊर्जा का कुछ अंश एक समर्पित शिष्य को हस्तांतरित करता है तो यह प्रक्रिया गुरु दीक्षा कहलाती है। यह आध्यात्मिक यात्रा की सबसे प्रारम्भिक पग है। गुरु दीक्षा के उपरांत शिष्य गुरु की आध्यात्मिक सत्ता का उत्तराधिकारी बन जाता है। गुरु दीक्षा एक ऐसी व्यवस्था है जिसमे गुरु और शिष्य के मध्य आत्मा के स्तर पर संबंद्ध बनता है जिससे गुरु और शिष्य दोनों के मध्य ऊर्जा का प्रवाह सहज होने लगता है। गुरु दीक्षा के उपरान्त गुरु और शिष्य दोनों का उत्तरदायित्व बढ़ जाता है। गुरु का उत्तरदायित्व समस्त बाधाओं को दूर करते हुए शिष्य को आध्यात्मिकता की चरम सीमा पर पहुचाना होता है। वहीं शिष्य का उत्तरदायित्व हर परिस्थिति में गुरु के द्वारा बताये गए नियमों का पालन करना होता है।
दीक्षा के प्रकार
स्पर्श दीक्षा, दृग दीक्षा, मानस दीक्षा
शक्ति, शाम्भवी, मांत्रिक दीक्षा
गुरु दीक्षा कौन दे सकता है
गुरु शब्द का अर्थ है जो अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाये। एक सम्पूर्ण जागृत गुरु, जो की सहस्त्र्सार चक्र में स्थित हो वही दीक्षा देने का अधिकारी होता है . ऐसे गुरु की पहचान उनके व्यवहार से होती है। ऐसे गुरु सबके लिए करुणामय होते है. उनका ज्ञान अभूतपूर्व होता है . जागृत गुरु अहंकार, काम, क्रोध, लोभ और मोह से दूर रहते है. वह शिष्य की किसी भी समस्या और परिस्थिति का समाधान निकालने में सक्षम होते है. ऐसे गुरु का ध्यान अत्यंत उच्च कोटि का होता है।
गुरु दीक्षा किसको दी जाती है
शिव पुराण में भगवान् शिव माता पार्वती को योग्य शिष्य को दीक्षा देने के महत्त्व को इस प्रकार समझाते है – हे वरानने ! आज्ञा हीन, क्रियाहीन, श्रद्धाहीन तथा विधि के पालनार्थ दक्षिणा हीन जो जप किया जाता है वह निष्फल होता है।
इस वाक्य से गुरु दीक्षा का महत्त्व स्थापित होता है। दीक्षा के उपरान्त गुरु और शिष्य एक दूसरे के पाप और पुण्य कर्मों के भागी बन जाते है। शास्त्रो के अनुसार गुरु और शिष्य एक दूसरे के सभी कर्मों के दसवे हिस्से के फल के भागीदार बन जाते है, यही कारण है कि दीक्षा सोच समझकर ही दी जाती है। अब प्रश्न यह उठता है कि दीक्षा के योग्य कौन होता है? धर्म अनुरागी, उत्तम संस्कार वाले और वैरागी व्यक्ति को दीक्षा दी जाती है। दीक्षा के उपरान्त आदान प्रदान की प्रक्रिया गुरु और शिष्य दोनों के सामर्थ्य पर निर्भर करती है। दीक्षा में गुरु के सम्पूर्ण होने का महत्व तो है ही किन्तु सबसे अधिक महत्व शिष्य के योग्य होने का है। क्योंकि दीक्षा की सफलता शिष्य की योग्यता पर ही निर्भर करती है। शिष्य यदि गुरु की ऊर्जा और ज्ञान को आत्मसात कर अपने जीवन में ना उतार पाये अर्थात क्रियान्वित ना करे तो श्रेष्ठ प्रक्रिया भी व्यर्थ हो जाती है। इसलिए अधिकांशतः गुरु शिष्य के धैर्य, समर्पण और योग्यता का परीक्षण एक वर्ष तक विभिन्न विधियों से करने के उपरान्त ही विशेष दीक्षा देते है। ऐसी दीक्षा मन, वचन और कर्म जनित पापों का क्षय कर परम ज्ञान प्रदान करती है।
शिष्य को किस प्रकार की दीक्षा दी जाए इसका निर्धारण गुरु शिष्य की योग्यता और प्रवृत्ति के अनुसार करता है। दीक्षा का प्रथम चरण है मंत्र द्वारा दीक्षा। जब शिष्य अपनी मनोभूमि को तैयार कर, सामर्थ्य, योग्यता, श्रद्धा, त्यागवृत्ति के द्वारा मंत्रो को सिद्ध कर लेता है तो दीक्षा के अगले चरण में पहुंच जाता है। अगला स्तर प्राण दीक्षा , शाम्भवी दीक्षा का होता है।
कभी कभी गुरु स्वयं ही अपने शिष्य का चुनाव करते है। शिष्य का गुरु से जब पिछले जन्म से ही सम्बन्ध होता है और जागृत गुरु को इसका ज्ञान होता है, ऐसी परिस्थिति में गुरु स्वयं शिष्य का चुनाव करते है।
जब व्यक्ति की योग्यता अच्छी हो और गुरु पाने की तीव्र अभिलाषा हो तो योग्य गुरु को योग्य शिष्य से मिलाने में इश्वर स्वयं सहायता करते है। ऐसा श्री राम कृष्ण परमहंस के साथ हुआ था। उनके गुरु तोताराम को माँ काली ने स्वप्न में दर्शन देकर रामकृष्ण के गुरु बनने का आदेश दिया था।
तीसरी परिस्थिति में शिष्य अपनी बुद्धिमत्ता से गुरु की योग्यता की पहचान कर दीक्षा को धारण करता है और गुरु शिष्य की योग्यता को समझकर दीक्षा के प्रकार का निर्धारण करता है।
अच्छे शिष्य के लक्षण
गुरु के वचनों पर पूर्ण विश्वास करने वाला
आज्ञाकारी
आस्तिक और सदाचारी
सत्य वाणी का प्रयोग करने वाला
चपलता, कुटिलता, क्रोध, मोह, लोभ, ईर्ष्या इत्यादि अवगुणों से दूर रहने वाला
जितेन्द्रिय
पर निंदा, छिद्रान्वेषण, कटु भाषण और सिगरेट मद्य इत्यादि व्यसनों से दूर रहने वाला
गुरु के सदुपदेशों पर चिंतन मनन करने वाला
नियमों का पालन श्रद्धा और विश्वास से करने वाला
गुरु की सेवा में उत्साह रखने वाला
गुरु की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति दोनों परिस्थितियों में उनके आदेशों का पालन करना
चेतना के जागरण के लिए तीन पक्षों का सामंजस्य अनिवार्य है
१- शिष्य का पुरुषार्थ, श्रद्धा, विश्वास
२- गुरु की सामर्थ्य
३- दैवीय कृपा
गुरु की आवश्यकता क्यों
गुरु की चेतना इश्वर से निरंतर संयुक्त रहने के कारण इश्वर तुल्य होती है , जबकि साधारण मनुष्य की चेतना संसार से जुडी रहने के कारण वाह्य्मुखी और अधोगामी होती है। चेतना के वाह्य मुखी और अधोगामी होने के कारण इश्वर से हमारा संपर्क टूट जाता है जिसके कारण अविद्या का प्रभाव बढ़ जाता है। अविद्या के प्रभाव के कारण मनुष्य की प्रवृत्ति छोटी छोटी बातों में दुखी होने की, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध, अनिर्णय और अविवेक की स्थिति से घिर जाता है। फलस्वरूप निम्न कर्मों की ओर प्रवृत होकर चेतना के स्तर से गिर कर मनुष्य योनी को छोड़कर निम्न योनियों को प्राप्त हो जाता है।
गुरु को प्रकृति और ईश्वर के नियमों का ज्ञान होने के कारण उनमे अज्ञानता के भंवर से निकलने की क्षमता होती है। वह शिष्य को धीरे धीरे ज्ञान देकर , कर्मों की गति सही करवाकर और सामर्थ्य की वृद्धि करवाकर अज्ञान के इस भंवर से निकाल कर ईश्वर से सम्बन्ध स्थापित करवा देते है।
गुरु तो सदैव कृपा करते ही है पर शिष्य के गुण , चरित्र भी इस प्रकार होना चाहिए।
१. मुमुक्षुत्व
२. आज्ञापालन
३. विश्वास, श्रद्धा, भाव एवं भक्ति
४. सर्वस्व का त्याग करनेवाला
५. अर्पण की गई वस्तु का विचार न करनेवाला
६. नम्रता
७. गुरुसेवा
८. संपूर्ण शरणागति
९. गुरुसान्निध्य में रहनेवाला
१०. गुरु को मान देनेवाला
११. गुरु के मित्र, रिस्तेदारों , संबंधियों का मान रखनेवाला
१२. साधकत्व के गुणोंवाला
१३. गुरुकार्य से संबंधित प्रत्येक बात सीखने की तीव्र लगनवाला व जिज्ञासु
१४. गुरु का मन जीत पानेवाला
१५. गुरु का अनुकरण न करें !
१६. ‘अहं’ विरहित
१७. कृतज्ञता
१८. गुरु के प्रति अनन्यभाव
१९. जिसके लिए सद्गुरु ही सर्वस्व हैं
२०. दूसरों को कष्ट न होने देनेवाला
२१. औरों का शिष्य के प्रति विश्वास होना
२२. नेतृत्वगुण संपन्न
२३. गुरुबंधुओं की उन्नति की ओर जिसका ध्यान है
२४. पूर्णत्व प्राप्ति के पश्चात भी पूर्णत्व के संरक्षण हेतु गुरुचरण के प्रति अनन्यता रखनेवाला होना चाहिए।
नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्रः।
येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्ज्वालितो ज्ञानमयप्रदीपः।।
ब्र पु 138 ,11
अर्थात् – जिन्होंने महाभारत रूपी ज्ञान के दीप को प्रज्वलित किया ऐसे विशाल बुद्धि वाले महर्षि वेदव्यास को मेरा नमस्कार है।
व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:।।
अर्थात् – व्यास विष्णु के रूप है तथा विष्णु ही व्यास है ऐसे वसिष्ठ-मुनि के वंशज का मैं नमन करता हूँ। (वसिष्ठ के पुत्र थे ‘शक्ति’; शक्ति के पुत्र पराशर, और पराशर के पुत्र व्यास
गुरु श्लोक
ब्रह्मानंदम परमसुखदं केवलं ज्ञान्मूर्तिम
द्वंदातीतं गगन सदरिषम तत्त्वमस्यादि लक्ष्यं।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम
भावातीतं त्रिगुण रहितं श्रीविष्णु तीर्थं नताः स्म ।
अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परम् ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
ॐ श्री गुरूपरमात्मने नमः
रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद