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भक्तों को अपने अराध्य प्रभु राम के जन्म स्थान पर मंदिर निर्माण के लिए पांच सौ वर्ष का लम्बा ‘वनवास’ भोगना पड़ा – दीपक

आखिरकार वह ऐतिहासिक घड़ी आ ही गई है, जिसका एक-दो नहीं, दस-बीस या फिर पचास साल भी नहीं, बल्कि पांच सौ से अधिक वर्षों से राम भक्त इंतजार कर रहे थे। पांच अगस्त को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अयोध्या में प्रभु राम की जन्मभूमि पर जब राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन करेंगे तो उन असंख्य लोगों की आत्मा को भी शांति मिलेगी, जिन्होंने पिछले पांच सौ सालों में राम मंदिर निर्माण का सपना पूरा करने के लिए अपने प्राणों की आहूति दी थी।

ऐसे लोगों के लिए राम मंदिर निर्माण होना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है। ऐसे अवसर पर एक बार फिर से उन वीरों को याद किया जाना जरूरी है, ताकि यह कृतज्ञ राष्ट्र उन सेनानियो को भूला न पाएः

यह कहानी है भारतीय जन मानस में आस्था के केंद्र श्रीराम की जन्मभूमि की और बताया जाता है कि बाबर के आदेश पर उसके सेनापति मीर बाकी ने अयोध्या में बने राम मंदिर को 21 मार्च 1528 को तोप से ध्वस्त कराया था।

इसके पहले भगवान राम के स्वधाम गमन के बाद सरयू में आई भीषण बाढ़ से अयोध्या की भव्य विरासत को काफी क्षति पहुंची थी। भगवान राम के पुत्र कुश ने अयोध्या की विरासत नए सिरे से सहेजने का प्रयास किया और राम जन्मभूमि पर विशाल मंदिर का निर्माण कराया।

युगों के सफर में यह मंदिर और अयोध्या जीर्ण-शीर्ण हुई, तो विक्रमादित्य नाम के शासक ने इसका उद्धार किया। मीर बाकी ने 1528 में जिस मंदिर को तोड़ा था, उसे 57 ई.पू. में युग प्रवर्तक राजाधिराज की उपाधि ग्रहण करने वाले विक्रमादित्य ने ही निर्मित कराया था।

डेढ़ सहस्नाब्दि से भी अधिक के सफर में यह मंदिर हिंदुओं की आस्था-अस्मिता का शीर्षस्थ केंद्र रहा। इस पर मध्य काल की शुरुआत से ही संकट मंडराने लगा। महमूद गजनवी के भांजे सैयद सालार तुर्क ने सत्ता के विस्तार में अयोध्या के क्षेत्र को भी शामिल करने का प्रयास किया।

हालांकि 1033 ई. में राजा सुहेलदेव ने बहराइच में उसे मार कर इस आतंक से मुक्ति दिलाई। 1440 ई. में जौनपुर के शर्की शासक महमूद शाह के शासन क्षेत्र में अयोध्या के भी शामिल होने का उल्लेख मिलता है। इसके बावजूद अयोध्या के अनुरागियों की रगों में राम मंदिर ध्वंस के प्रतिकार की ताकत बची थी।

पारंपरिक स्रोतों से प्राप्त इतिहास के अनुसार राम मंदिर की वापसी के लिए 76 युद्ध लड़े गए। एकाध बार ऐसा भी हुआ, जब विवादित स्थल पर मंदिर के दावेदार राजाओं-लड़ाकों ने कुछ समय के लिए उसे हासिल भी किया पर यह स्थाई नहीं रह सका।

जिस वर्ष मंदिर तोड़ा गया, उसी वर्ष पास की भीटी रियासत के राजा महताब सिंह, हंसवर रियासत के राजा रणविजय सिंह, रानी जयराज कुंवरि, राजगुरु पं. देवीदीन पांडेय आदि के नेतृत्व में मंदिर की मुक्ति के लिए जवाबी सैन्य अभियान छेड़ा गया। शाही सेना को उन्होंने विचलित जरूर किया पर पार नहीं पा सके। 1530 से 1556 ई. के मध्य हुमायूं एवं शेरशाह के शासनकाल में 10 युद्धों का उल्लेख मिलता है।

हिंदुओं की ओर से इन युद्धों का नेतृत्व हंसवर की रानी जयराज कुंवरि एवं स्वामी महेशानंद ने किया। रानी स्त्री सेना का और महेशानंद साधु सेना का नेतृत्व करते थे। इन युद्धों की प्रबलता का अंदाजा रानी और महेशानंद के साथ उनके सैनिकों की शहादत से लगाया जा सकता है। 1556 से 1605 ई. के बीच अकबर के शासनकाल में 20 युद्धों का जिक्र मिलता है। इन युद्धों में अयोध्या के ही संत बलरामाचार्य बराबर सेनापति के रूप में लड़ते रहे और अंत में वीरगति प्राप्त की। इन युद्धों का परिणाम रहा कि अकबर को इस ओर ध्यान देने के लिए विवश होना पड़ा।

उसने बीरबल और टोडरमल की राय से बाबरी मस्जिद के सामने चबूतरे पर राम मंदिर बनाने की इजाजत दी। अकबर के ही वंशज औरंगजेब की नीतियां कट्टरवादी थीं और इसका मंदिर-मस्जिद विवाद पर भी असर पड़ा। 1658 से 1707 ई. के मध्य उसके शासनकाल में राम मंदिर के लिए 30 बार युद्ध हुए।

इन युद्धों का नेतृत्व बाबा वैष्णवदास, कुंवर गोपाल सिंह, ठाकुर जगदंबा सिंह आदि ने किया। माना जाता है कि इन युद्धों में दशम गुरु गोबिंद सिंह ने निहंगों को भी राम मंदिर के मुक्ति संघर्ष के लिए भेजा था और आखिरी युद्ध को छोड़ कर बाकी में हिंदुओं को कामयाबी भी मिली थी। ऐसे में समझा जा सकता है कि इस दौर में मंदिर समर्थकों का कुछ समय के लिए राम जन्मभूमि पर कब्जा भी रहा होगा और औरंगजेब ने पूरी ताकत से उसे छुड़वाया होगा।

इतिहास की एक अन्य धारा का तो यहां तक कहना है कि राम मंदिर बाबर के नहीं औरंगजेब के आदेश पर ध्वस्त किया गया और उसके ही आदेश से अयोध्या के कुछ और प्रमुख मंदिर तोड़े गए। 18वीं शताब्दी के मध्य तक मुगल सत्ता का तो पतन हो गया पर मंदिर के लिए संघर्ष बरकरार था। हालांकि, अवध के नवाबों के समय अयोध्या को कुछ हद तक सांस्कृतिक-धार्मिक स्वायत्तता हासिल हुई। बार-बार के युद्धों से तंग अवध के नवाब सआदत अली खां ने अकबर की भांति हिंदुओं और मुस्लिमों को साथ-साथ पूजन एवं नमाज की अनुमति दी। इसके बावजूद संघर्ष नहीं थमा। बाकी 1949 से लेकर 2020 तक के सफर और संघर्ष की कहानी आपको सबको मालूम ही है।

खैर अब जबकि पांच अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी भूमि पूजन करेंगे, इसके साथ ही विश्व हिन्दू परिषद और भारतीय जनता पार्टी का ‘राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनवाएंगे नारा भी चरितार्थ हो जाएगा, जिसको लेकर कई बार बीजेपी को उलहाने भी मिलते रहे थे। खैर, प्रभु श्रीराम के मंदिर का शिलान्यास देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे, इसको लेकर थोड़ी-बहुत चर्चा और विवाद की भी शुरूआत हो गई है।

कहा यह जा रहा है कि प्रधानमंत्री एक संवैधानिक पद है, इसलिए प्रधानमंत्री को इस तरह के कार्यक्रम से दूर रहना चाहिए, क्योंकि इससे कुछ लोगों में अनायास भय व्याप्त होता है, लेकिन ऐसा कहने वालों को नहीं भूलना चाहिए कि भारत की किसी सरकार की धर्मस्थल के मामलों में लिप्तता कतई नई नहीं है। ऐसा देश में पहले भी होता रहा है। कुल मिलाकर भगवान श्रीराम ने भले ही 14 वर्षों का वनवास भोगा था, लेकिन उनके भक्तों को अपने अराध्य प्रभु राम के जन्म स्थान पर मंदिर निर्माण के लिए पांच सौ वर्ष का लम्बा ‘वनवास’ भोगना पड़ा और अब उनकी वापसी हो रही है।

दीपक पाण्डेय स्वतंत्र पत्रकार है

एन सी आर खबर ब्यूरो

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