महावीर स्वामी का जन्म 540 ईसापूर्व में वैशाली के कुण्डग्राम में हुआ था, महावीर स्वामी के पिता का नाम सिद्धार्थ माता का नाम त्रिशला था ।
जैन धर्म के त्रिरत्न है सभ्यक श्रद्धा,सभ्यक ज्ञान एवं सभ्यक आचरण
चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को भगवान महावीर का जन्म कल्याणक है। उनके सिद्धांत हैं कि वर्तमान के वर्तन (व्यवहार) को किस प्रकार से रखा जाए ताकि जीवन में शांति, मरण में समाधि, परलोक में सद्गति तथा परम्पर से परमगति पाई जा सके। मानवीय गुणों की उपेक्षा के इस समय में महावीर के कल्याण का दिन हमसे अपने जातीय भेद भुलाकर सत्य से साक्षात का संदेश देता है।
भगवान महावीर ने अहिंसा की जितनी सूक्ष्म व्याख्या की है वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने मानव को मानव के प्रति ही प्रेम और मित्रता से रहने का संदेश नहीं दिया अपितु मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति से लेकर कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी आदि के प्रति भी मित्रता और अहिंसक विचार के साथ रहने का उपदेश दिया है।
उनकी इस शिक्षा में पर्यावरण के साथ बने रहने की सीख भी है। आज जिस हिंसात्मक वातावरण और आपाधापी के बीच बच्चे बढ़ हो रहे हैं उसके कारण उनमें संयम का अभाव है। यह पीढ़ी लक्ष्य से भटक रही है। ऐसे वातावरण में बड़े हो रहे बच्चों से अपेक्षा रखना कि वे नैतिक राह पर चलेंगे ठीक नहीं।
सभी कारणों से हमें समग्रता में महावीर की शिक्षाओं की नितांत आवश्यकता है ताकि हम इस धरा को सुंदर बना सकें।
जैन परम्परा में ग्यारह गणधरों का वर्णन प्राप्त होता है।समवायांग सूत्र और तिलोय पण्णत्ति आदि जैन ग्रंथों में इनके विशेष विवरण प्राप्त होते हैं।तीर्थंकर महावीर के ये सभी गणधर भारतीय दर्शन और चिंतन परम्परा के उद्भट विद्वान थे। आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक, मोक्ष, पाप, पुण्य, आदि के सम्बंध मे इनसब की अपनी एकांतिक धारणाए थी। अतः सभी ने दीक्षा लेने के पूर्व भगवान महावीर से अपनी शंकाओ का निवारण किया और संतुष्ट होने पर फिर उन्होंने महावीर से जिन-दीक्षा ग्रहण कर अपनी-अपनी सामथ्र्य के अनुसार जिन शासन की सेवा की हैं।
महावीर स्वामी को अहिंसा का पुजारी कहा जाता है। उनका जीवन त्याग और तपस्या से ओतप्रोत था। हिंसा, पशुबलि, जाति-पाँति के भेदभाव जिस युग में बढ गए, उसी युग में पैदा हुए महावीर स्वामी तथा महात्मा बुद्ध दोनों ने इन कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठाई थी। दोनों ने अहिंसा का अद्भुत विकास किया।
जैन धर्म शास्त्रों के अनुसार राम , रावण , एवं अन्य कई समानताओं से साथ परात्पर परब्रम्ह भगवान श्री चित्रगुप्त का अद्भुत वर्णन प्राप्त होता है जैन दर्शन में भी उन्होंने चित्रगुप्त सत्ता को स्वीकार किया है जैन धर्म शास्त्र अनुसार दुख कष्ट होने के कारणों को स्पष्ट किया है
समवसरणे जियात प्रति हार्यण शोभितः।
धर्मोपदेश दातायः चित्रगुप्तो भीधो जिनः।।
‘दुःख शोकातापकमद्वद्द परि देवानान्यात्मपरोभय स्थानान्यसद्वेद्यस्य’
( तत्वार्थ सूत्र अध्याय 6 का 11 सूत्र )
अर्थात अपने में दूसरों में अथवा दोनों को एक साथ दुख शोक आताप आकंदन वध और परिदेवन उत्पन्न करने से आसता वेदनीय कर्म का आस्रव बंध होता है अर्थात ऐसा करने से भविष्य के लिए दुख कष्ट और अशांति की सामग्री एकत्रित होती है इसके अतिरिक्त भविष्य में होने वाले दुखों के कारण को भी समझाया गया है
भूतव्रत्यानुकंपादानसरागसयंमादियोगःक्षान्तिहःशोचमितिसुद्वेद्यस्य
तत्वार्थसूत्र 12 अध्याय 6
भाव कर्मों का लेखा धर्म कर्म द्वारा
जैन आचार्यों के अनुसार प्रकृति में प्राणियों लेख सर्वत्र विद्यमान कर्मण्य वर्गणाओं अचेतन पुद्र्ल कणो द्वारा रखा जाता है है यह कण प्राणी के मन वचन काया की प्रवृत्ति के अनुरूप उसकी आत्मा के प्रदेशों के साथ संश्रश्लेषित हो जाते हैं
कर्माण्य , वर्गन ,क्वांटम यांत्रिकी एवं क्वांटम इसलिये भगवान चित्रगुप्त की व्याख्या की गई है।
ॐ ह्री अर्हं श्री चित्रगुप्त स्वामिनी नमः
मोक्ष के अभिलाषी को उनकी शरण मे जाना अनिवार्य है इसीलिए जैन मत में भी आचार्यो ने सनातन न्यायब्रम्ह भगवान चित्रगुप्त मंत्र जप पूजा की महत्ता बताई गई है यह जानना आवश्यक है जन्म, पालन,मृत्यु परात्पर पर ब्रम्ह भगवान श्री चित्रगुप्त के अधीन है
मनुष्य किसी भी धर्म की उपासना पद्धति से आराधना करें धर्म कोई भी हो, मत या मजहब , पंथ जो भी हो भाग्य नियंता , न्यायब्रम्ह,भगवान श्री चित्रगुप्त की सत्ता से विमुख हो ही नही सकता।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है कि वर्द्धमान ने यशोदा से विवाह किया था। उनकी बेटी का नाम था अयोज्जा (अनवद्या)। जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है कि वर्द्धमान का विवाह हुआ ही नहीं था। वे बाल ब्रह्मचारी थे।
भगवान महावीर ने अपने प्रवचनों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था। भगवान महावीर ने श्रमण और श्रमणी, श्रावक और श्राविका, सबको लेकर चतुर्विध संघ की स्थापना की।
महावीर ने मार्गशीर्ष दशमी को कुंडलपुर में दीक्षा की प्राप्ति की और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 2 दिन बाद खीर से इन्होंने प्रथम पारणा किया। दीक्षा प्राप्ति के बाद 12 वर्ष और 6.5 महीने तक कठोर तप करने के बाद वैशाख शुक्ल दशमी को ऋजुबालुका नदी के किनारे ‘साल वृक्ष’ के नीचे भगवान महावीर को ‘कैवल्य ज्ञान’ की प्राप्ति हुई थी।
भगवान महावीर का आत्म धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। दुनिया की सभी आत्मा एक-सी हैं इसलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसंद हो। यही महावीर का ‘जीयो और जीने दो’ का सिद्धांत है।
“भगवान महावीर का दिव्य यह संदेश”
जियो और जीने दो
भगवान महावीर का एक ओर आदर्श वाक्य
मित्ती में सव्व भूएसु।
‘ सब प्राणियों से मेरी मैत्री है।’
हमारा जीवन धन्य हो जाए यदि हम भगवान महावीर के इस छोटे से उपदेश का ही सच्चे मन से पालन करने लगें कि संसार के सभी छोटे-बड़े जीव हमारी ही तरह हैं, हमारी आत्मा का ही स्वरूप हैं।
पुनः आप सभी को महावीर जन्मकल्याणक पर्व
भगवान महावीर जयंती पर अनंत मङ्गल शुभकामनाएं ।
रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद
अध्यात्मचिन्तक