
नई दिल्ली। शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में अभूतपूर्व किस्म का हाईवोल्टेज ड्रामा देखने को मिला। जब वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को एक मामले में सीधे शामिल होने का आरोप लगा दिया और उनसे उस मामले की सुनवाई से अलग होने की अपील कर डाली। बेंच के एक सदस्य और बार एसोसिएशन ने इसे कोर्ट की अवमानना करार दिया और उन लोगों ने भूषण के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई की मांग शुरू कर दी। जिसको मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की पीठ ने ये कहते हुए खारिज कर दिया कि सहनशीलता ही कोर्ट की ताकत है।
ये सब कुछ काली सूची में दर्ज लखनऊ स्थित प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट द्वारा संचालित एक मेडिकल कालेज के मामले की सुनवाई के दौरान हुआ। जिसमें कालेज को काली सूची से निकालने के एवज में एमसीआई से लेकर कोर्ट के कुछ जजों तक को घूस देने का आरोप है। इस मामले में दर्ज एफआईआर में हाईकोर्ट के एक पूर्व जज आईएम कुदिसी का भी नाम शामिल है। जिनको गिरफ्तार किया जा चुका है।
इसके पहले मुख्यन्यायाधीश के नेतृत्व वाली पांच जजों की पीठ ने दो जजों की बेंच के उस फैसले को रद्द कर दिया था जिसमें उसने मेडिकल कालेज के मामले की सुनवाई संविधान पीठ के जरिये करने का आदेश दिया था। मुख्य न्यायाधीश वाली पांच सदस्यीय बेंच ने मामले पर व्यवस्था देते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट में जजों के बीच काम का बंटवारा और बेंचों को गठित करने का अधिकार केवल और केवल मुख्य न्यायाधीश के पास है। और इसके साथ ही एकमत से गुरुवार को जस्टिस जे. चलमेश्वर और जस्टिस एस अब्दुल नजीर के आदेश को रद्द कर दिया। साथ ही संविधान पीठ ने कहा कि कोई भी आदेश जो मान्य नियमों के खिलाफ हो उसे लागू नहीं किया जा सकता है।
इसके साथ ही बेंच जिसमें जस्टिस आर के अग्रवाल, अरुण मिश्रा, अमितव राय और एएम खानविल्कर दूसरे सदस्य हैं, ने 1997 के एक फैसले का उदाहरण दिया जिसमें उसने कहा था कि हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश ही रोस्टर का मालिक है। बेंच का कहना था कि वही सिद्धांत सुप्रीम कोर्ट के संचालन में भी लागू होता है।
दो जजों की बेंच के फैसले को अपवाद मानते हुए संविधान पीठ ने अपने आदेश में कहा कि एक बार अगर ये कह दिया गया है कि चीफ जस्टिस रोस्टर का मालिक है उसके बाद उसे अकेले ही बेंचों के गठन का विशेषाधिकार हासिल हो जाता है। यहां ये बताने की जरूरत नहीं है कि वो दो जजों की बेंच हो या फिर तीन जजों की बेंच किसी मामले की सुनवाई कौन करेगा इसको तय करना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। इसको और अगर सरल तरीके से कहा जाए तो उसको मुख्य न्यायाधीश को निर्देशित करने का अधिकार नहीं है। जिसमें वो बताए कि किसे बेंच में रखा जाए या फिर किसको लेकर बेंच गठित की जाए। बेंच एक बार फिर दोहराती है कि इस तरह के आदेश पारित नहीं किए जा सकते हैं। ये कानून की मान्यताओं के खिलाफ है।