देश बदलाव की राह पर है , राजनीति में क्षेत्रीय दलों की घटती भूमिका पर अश्वनी कुमार का आंकलन
अश्वनी कुमार I 11 मार्च 2017 को समाप्त 5 राज्यों की चुनावी गणना के बाद 2-3 बातें साफ उभर कर सामने आई हैं. जातिवाद, क्षेत्रियता, भाई भतीजावाद, सम्प्रदायवाद को भूल कर जनता ने यह वोट दिया है. अवाम पूरी तरह से विकास चाहती है, रोजगार चाहती है, एक बेहतर कानून व्यवस्था चाहती है. 2014 मे नरेन्द्र मोदी के नेत्रत्व को जनता ने स्वीकार किया था, वह भरोसा अभी जनता में कहीं न कहीं कायम है. और भाजपा को दिया प्रचंड बहुमत यह साबित करता है की लोग भाजपा की तरफ उम्मीद की निगाह से देख रही है. बड़ा बहुमत मतलब ज्यादा उम्मीदें. भाजपा और मोदी जी के उपर निश्चित रूप से इन उम्मीदों पर खरा उतरने की जिम्मेवारी है.
पुरे नतीजों को देखें तो 5 में से 4 राज्यों में भाजपा की तथा पंजाब में कॉंग्रेस की सरकार बनी. एक तरफ उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो दूसरी तरफ गोआ और मणिपुर में भाजपा सहयोगियों के समर्थन से सरकार बनाने में कामयाब रही. इस पूरी दोड में कहीं न कहीं क्षेत्रीय दल पीछे छूट गये हैं. और अपनी छाप छोड़ने में कामयाब नही रहे. बिन्दुवार इन दलों का थोड़ा विश्लेषण करते हैं.
इस चुनाव में सबसे पहले जिस दल से उम्मीद थी वह दिल्ली में अपने पहले चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने वाली वाली तथा दूसरे चुनाव में अपने दम पर सरकार बनाने वाली – आम आदमी पार्टी. पंजाब और गोआ में अच्छे प्रदर्शन यहाँ तक की सरकार बनाए जाने की अपेक्षा सभी राजनीतिक पण्डित कर रहे थे. एग्ज़िट पोल में भी पंजाब में सरकार बनने का अंदाजा था. लेकिन पार्टी उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नही कर पाई. विवादित मुद्दों को छेडना, विवादित बयान, टिकट वितरण में पैसे के लेन देन के आरोप, क्षेत्रीय नेत्रत्व में विश्वास का अभाव, आदि तमाम मुद्दे रहे जिनकी वजह से जनता ने पार्टी को नकार दिया. AAP को असली झटका तब लगा जब खालिस्तान समर्थकों का साथ व समर्थन लेने के आरोप भी लगे. एक सीमावर्ती राज्य होने के नाते पंजाब ने आतन्कवाद का जो दंश झेला है उसको देखते हुये कोई भी पंजाब वासी यह नही चाहेगा की उसका मत किसी विघटनकारी शक्ति के समर्थन में जाये.
दूसरा बुरा ह्श्र हुआ समाजवादी पार्टी का जिसी स्थापना मुलायम सिंह ने की थी. मुलायम सिंह ने अपनी मेहनत और परिवारवादी सोच के साथ दल को आगे बढ़ाया और 2012 में सत्ता अपने पुत्र अखिलेश यादव को सौंप दी. चुनाव के शुरुआती दौर में अखिलेश ने अपनी विकास की छवि पेश करने को कोशिश की, लेकिन चुनाव नजदीक आते आते परिवार में पार्टी और चुनाव चिह्न को ले कर जंग शुरु हो गयी. मामला चुनाव आयोग तक गया और पार्टी के लड़ाई जीती अखिलेश ने. इसी बीच चाचा-भतीजा विवाद भी चलता रहा और अखिलेश ने विरोधियों पर तीखे तंज़ कसना शुरु कर दिया. ‘गधा’ जैसे अमर्यादित श्ब्द का भी इस्तेमाल किया लिकिन इसका कोई फायदा नही हुआ और न केवल पार्टी बुरी तरह् हारी बल्कि तमाम क्षत्रप अपना क़िला बचाने में कामयाब नही हुये. कॉंग्रेस से हुआ बेमेल और प्रभावहीन समझोता भी कोई करिश्मा नही दिखा सका.
बात करते हैं मायावती आधारित बहुजन समाज पार्टी की. 2012 में उत्तर प्रदेश की सत्ता गंवाने के बाद 2014 के लोक सभा चुनाव में इस दल का खाता भी नही खुला था. चूंकि पार्टी का 100% चंदा नक़दी में आता है इसलिए नोटबंदी के खिलाफ मायावती की आवाज़ सबसे मुखर थी. वर्तमान चुनाव में एक समुदाय विशेष को सबसे ज्यादा टिकट देना ही पार्टी अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मान रही थी. लेकिन जनता ने इसे स्वीकार नही किया. मायावती अपने पूर्व कार्यकाल (2007-2012) की कोई विशेष उपलब्धि जनता के सामने नही रख सकी. सिर्फ बूत खड़े करने से वोटर को लुभाया नही जा सकता. राज्य सभा में मायावती की एक मात्र सीट का कार्य काल अब पूरा होने वाला है.
हरियाणा में स्व श्री बंशी लाल के नेत्रत्व में एक दल होता था- हरियाणा विकास पार्टी. बंशी लाल ने लंबे समय हरियाणा पर शाषन किया. 1996 में भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनाई और उस समय शराब बंदी जैसा बड़ा निर्णय लिया. लेकिन यह गढ़बंधन ढाई साल ही टिक सका और बंशी लाल जी की म्रत्यु के पश्चात यह दल लगभग समाप्त हो गया. कॉंग्रेस में रह कर लंबे समय तक शाषन करने वाले भजन लाल ने भी 2005 में हुड्डा को मुख्य मंत्री बनाये जाने के विरोध में एक पार्टी बनाई थी जिसका आज कहीं अस्तित्व नही है.
अगर दक्षिण भारत की बात करें तो AIDMK में जयललिता ने नेत्रत्व की दूसरी पंक्ति तैयार नही की. उनकी म्रत्यु के बाद मजबूरी में पनीर सेलवम् को मुख्य मंत्री बनाया गया तो बाद में शशी कला ने गद्दी छीन ली. शशी कला के जेल जाने पर पलनी सामी को सत्ता सौंपनी पड़ी. इन में से जय ललिता को छोड़ कर कोई भी ‘स्वाभाविक जन नेता’ नही है.
कुल मिला कर ये सभी दल अपनी अगली पीढी को नेत्रत्व के लिये तैयार नही करते. एक परिवार से बाहर किसी के नेता बनने की संभावना नही के बराबर होती है. ये दल अपनी परिवारवादी, जातीवादी, क्षेत्रवादी, समुदायवादी राजनीतिक दायरे से बाहर सोचने की क्षमता नही रखते. कई बार निजी स्वार्थ में देश हित तक की अवहेलना करने को तैयार रहते हैं. जिस तरह से जनता के अपार समर्थन के बाद नोटबंदी Surgical Strike और का विरोध किया वा किसी से छुपा नही है. हालांकि यह भी सत्य है की इन दलों को जनता ने माकूल जवाब दिया
लेकिन जिस तरह से भारतीय जन मानस ने इन सब से उपर उठ कर वोट दिया है, वह काबिल-ए- तारीफ है. भारतीय मतदाता अब परिपक्व सोच का प्रदर्शन करने को अग्रसर है. इस परिप्रेक्ष्य में मुझे लगता है इन तमाम राजनीतिक दलों को अपनी नीति पर पुनर्विचार करना होगा. एक बेहतर् सोच व नेत्रत्व के साथ जनता के बीच जाना होगा, क्योंकि अब भारतीय लोकतंत्र मजबूती के साथ अपने गौरवशाली दिनो की तरफ बढ रहा है. 21वीं सदी के युवा मतदाता को आप लोभ, लालच, जाती, धर्म, परिवारवाद के चंगुल में नही फंसा सकते. उम्मीद करता हूँ की 2019 में सभी राजनीतिक दल शुचिता के साथ एक बहू आयामी कार्यक्रम ले कर जनता के बीच जायेंगे और मतदाता किसी लोभ , लालच , भय, जातिवाद से उपर उठ कर राजनीतिक परिपक्वता का उदाहरण पेश करेगा