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दिल्ली भूल, पंजाब और गोवा में हुए मशगूल

एजंडा तय करने में माहिर आम आदमी पार्टी (आप) के सर्वेसर्वा और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दस दिन तक धर्मशाला में विपश्यना करने के बाद लौट आए हैं। दिल्ली के ताजा घटनाक्रम से ध्यान हटाने के लिए उन्होंने पंजाब, गोवा और गुजरात विधानसभा चुनाव की तैयारी तेज कर दी है। दिल्ली सरकार के अधिकारों पर 4 अगस्त को आए हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दिल्ली सरकार की अर्जी पर इस महीने के अंत में सुप्रीम कोर्ट सुनवाई करने वाला है। पहले सुनवाई के अनुरोध को जिस तरह बार-बार सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया उससे आप नेता आश्वस्त नहीं हैं। इसी बीच में आप के संसदीय सचिव बनाए गए 21 विधायकों की सदस्यता पर भी चुनाव आयोग में सुनवाई चल रही है।

संसदीय सचिव मामले को लेकर केजरीवाल और उनकी पार्टी के नेता इस बात से ज्यादा परेशान हैं कि पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले दिल्ली की 21 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव न झेलना पड़ जाए। दिल्ली सरकार ने पहले संसदीय सचिव बनाए गए और याचिका दायर होने के बाद तीन महीने पहले से इन्हें लाभ के पद से अलग करने का बिल पास करके राष्ट्रपति के पास भेजा जिसे राष्ट्रपति ने खारिज कर दिया। इस पर चुनाव आयोग में सुनवाई चल रही है। माना जा रहा है कि इस महीने के अंत तक फैसला आ जाएगा।

हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में भी सुनवाई होनी है। सुप्रीम कोर्ट हाई कोर्ट के फैसले को पलटता है तभी केजरीवाल के राहत मिलेगी, वरना उनकी पार्टी की ओर से केंद्र सरकार पर लगाए जाने वाले काम न करने देने के आरोपों की हवा निकल जाएगी। प्रचंड बहुमत से दिल्ली में सरकार बनाने वाले केजरीवाल अपने समर्थकों को यह समझाने में लगे रहते हैं कि उनकी सरकार तो काम करना चाहती है, लेकिन केंद्र सरकार और उपराज्यपाल उन्हें काम नहीं करने देते। हाई कोर्ट के फैसले से यह साफ हो गया है कि दिल्ली सरकार के किसी भी काम में केंद्र या उपराज्यपाल दखल नहीं देते। हाई कोर्ट के फैसले के बाद उपराज्यपाल ने दिल्ली सरकार के विभिन्न विभागों से वे फाइलें मांगी हैं जिन्हें नियमानुसार उनके पास पहले नहीं लाया गया। फैसला आने के बाद उन्होंने इस बारे में सफाई भी दी कि वे किसी भी काम को गैरकानूनी तरीके से नहीं रोकते हैं। इसी क्रम में उन्होंने विधानसभा की उपयोगिता और दिल्ली सरकार के अधिकारों पर कुछ ज्यादा ही बोल दिया जिस पर उन्होंने बाद में सफाई दी।

इस सवाल का भले ही अदालत के पास जवाब नहीं है कि जब दिल्ली को विधानसभा दी गई तो उसे अधिकार क्यों नहीं दिए गए, लेकिन सवाल तो यह भी है कि फिर महानगर परिषद के स्थान पर विधानसभा क्यों दी गई और मुख्य कार्यकारी पार्षद के स्थान पर मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद नाम क्यों दिया गया। इसका एक जवाब तो दिल्ली विधानसभा और लोकसभा के लंबे समय तक सचिव रहे एसके शर्मा देते हैं। उनका कहना है कि 1966 में प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट आने के बाद 61 सदस्यों वाली महानगर परिषद बनी जिसे 1987 में भंग करके दिल्ली को नया प्रशासनिक ढांचा देने के लिए बनी बालकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर 1991 में पुलिस और जमीन के बिना विधानसभा दी गई। कहा गया कि बालकृष्ण से पहले आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति सरकारिया ने तब के मुख्य कार्यकारी पार्षद जग प्रवेश चंद्र के अनुरोध पर दिल्ली का कानून दिल्ली में बनाने के लिए विधानसभा देने का सुझाव दिया।

चूंकि संविधान में महानगर परिषद का उल्लेख नहीं है इसलिए कानून बनाने वाली संस्था का नाम विधानसभा देना ही तय किया गया। उसी से मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद बनाने के प्रावधान तय किए गए। विधानसभा बन जाने के बावजूद दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश है।२२ इसके कारण राष्ट्रपति इसके शासक हैं और वे अपने प्रतिनिधि यानी उपराज्यपाल के माध्यम से दिल्ली का शासन चलाते हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि जब भी विवाद हुए दिल्ली सरकार के अधिकार कम ही हुए। अगर 2002 में विजय कपूर और शीला दीक्षित में विवाद न होता तो बिलों को पेश करने से पहले केंद्र सरकार की इजाजत लेने की जरूरत नहीं पड़ती।

एन सी आर खबर ब्यूरो

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