देश में असहिष्णुता के सवाल पर कोलहाल और कोहराम मचा हुआ है। वह शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा। कुछ लेखक, वैज्ञानिक और कलाकार सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि देश में तेजी से बढ़ती-फैलती जा रही है असहिष्णुता। सोशल मीडिया पर भी इस सारे मसले पर स्यापा मचाया जा रहा है। अफसोस कि मीडिया का एक वर्ग अपने सरकारी सम्मान वापस करने वाले लेखकों को खास तवज्जों दे रहा है। लेकिन जिन्होंने अपने सम्मान नहीं वापस किए हैं या जो सम्मान वापस करने वालों की जमात से इत्तेफाक नहीं रखते हैं उन्हें इग्नोर किया जा रहा है। शाहरुख खान कह रहे हैं कि असहिष्णुता बढ़ रही है तो ये बड़ी खबर है। लेकिन कमल हासन सरीखा बेहतरीन कलाकार जब कहता है कि सम्मान वापस करने से कोई लाभ नहीं होगा तो उन्हें मीडिया खास जगह देना मुनासिब नहीं समझता।
मौजूदा हालातों के आलोक में इस बात का भी मूल्यांकन कर लिया जाना चाहिए कि भारत कितना सेक्युलर देश है और सहिष्णुता में कितना यकीन रखता है। दरअसल सदियों पुरानी भारतीय सभ्यता आज भी इसलिए जीवित है क्योंकि सहिष्णुता इस सभ्यता का स्वभाव ही नहीं सांस भी है। हिन्दू संस्कृति की छांव में बौद्ध,जैन,सिख के साथ साथ अरब से आए इस्लाम जैसे धर्म ने भी अपने को खूब पोषित किया। यह अलग बात है कि इस सहिष्णुता की सांस की कीमत भी 1947 में भारत ने चुकायी है। सहिष्णुता की सांस न होती तो सोनिया गांधी कहां होती भारत में। जाहिर है असहिष्णुता की बात वही लोग कह रहे हैं जिन्होंने सहिष्णुता को खूब जीया है।
इस बात को याद रखने की जरूरत है कि भारत अगर सेक्युलर है तो वह इसलिए नहीं है कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1976 में सेक्युलर शब्द को संविधान का हिस्सा बनाया था। भारत इसलिए है क्योंकि हिन्दू मूलतः और अंततः सेक्युलर हैं।
संसार के प्रमुख धर्मों में सिर्फ हिन्दू धर्म का कोई पैगंबर नहीं है। यानी मोहम्मद, ईसा मसीह, बौद्ध, महावीर या गुरुनानक की तरह हिन्दू धर्म का कोई संस्थापक नहीं है। हिन्दू या सनातन धर्म संसार का सबसे प्राचीन धार्मिक विचार है। उसके बाद यहुदी, जैन, बौद्ध वगैरह का स्थान आता है। इस्लाम और सिख तो नए धर्म माने जा सकते हैं। भारत को असहिष्णु कहने वाले जरा इतिहास के पन्ने पलट लें। उनकी आंखें खुल जाएँगी। इस देश ने बाहर से आने वाले धर्मावलंबियों का सदैव दिल खोलकर स्वागत ही किया।
भारत के मालाबार समुद्र तट पर 542 ईंसा पूर्व यहुदी पहुंचे। और वे तब से भारत में अमन-चैन से गुजर-बसर कर रहे हैं। ईसाइयों का भारत में आगमन चालू हुआ 52 ईसवी में। वे भी सबसे पहले केरल में आए। अब बात पारसियों की। वे कट्टरपंथी मुसलमानों से जान बचाकर ईरान से साल 720 में गुजरात के नवासरी समुद्र तट पर आए। अब पारसी देश के सबसे अहम समुदायों में शुमार होते हैं। इस्लाम भी केरल के रास्ते भारत में आया। लेकिन, भारत में इस्लाम के मानने वाले बाद के दौर में यहुदियों या पारसियों की तरह से शरण लेने के इरादे से नहीं आए थे। उनका लक्ष्य तो भारत पर राज करना था। वे आक्रमणकारी थे।
भारत में सबसे अंत में विदेशी हमलावर अंग्रेज थे। उन्होंने 1757 में पलासी के युद्ध में विजय पाई। लेकिन गोरे पहले के आक्रमणकारियों की तुलना में ज्यादा समझदार थे। वे समझ गए थे कि भारत में धर्मातरण करवाने से ब्रिटिश हुकुमत का विस्तार संभव नहीं होगा। भारत से कच्चा माल लेकर जाकर वे अपने देश में औद्योगिक क्रांति की नींव रख सकेंगे। इसलिए ब्रिटेन,जो एक प्रोटेस्टेंट
देश हैं, ने अपने भारत में 190 सालों के शासनकाल में धर्मांतरण शायद ही कभी किया हो। इसलिए ही भारत में प्रोटेस्टेंट ईसाई बहुत कम हैं। भारत में ज्यादातर ईसाई कैथोलिक हैं। इनका धर्मातरण करवाया आयरिश,पुर्तगाली स्पेनिश ईसाई मिशनरियों ने। इन्होंने गोवा, पुडुचेरी और देश के अन्य भागों में अपने लक्ष्य को साधा। इन्होंने दलित हिनदुओं का भी धर्मातरण करवाया। इसके बावजूद देश में कैथोलिक ईसाई कुल आबादी का डेढ़ फीसद हैं। प्रोटेस्टेंट तो और भी कम हैं। भारत में अगर बात मुगलों की करें तो उन्होंने तीन तरह से धर्मातरण करवाया। पहला, वंचितों को धन इत्यादि का लालच देकर। दूसरा,मुगल कोर्ट में अहम पद देने का वादा करके। तीसरा, इस्लाम स्वीकार करने के बाद जजिया टैक्स से मुक्ति।
अब इस एतिहासिक पृष्ठभूमि की रोशनी में ये देखने की आवश्यकता है कि भारत में मुसलमानों और ईसाइयों के साथ कितना भेदभाव हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 1 जून, 2015 को दिए अपने एक वक्तव्य में उन सभी को कसा था जो समाज में वैमनस्य फैलाने का कार्य कर रहे हैं। लेकिन भारत जैसे देश में जहां पर तमाम विचारधाराएं फल-फूल रही हैं, वहां पर कुछ मसलों पर तीखी बहस हो सकती है।
भारत में करीब 24 करोड़ मुसलमान और ईसाई रहते हैं। कुल मिलाकर इनके साथ किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं होता जीवन के किसी भी क्षेत्र में। पारसी और यहुदी तो भारत में सदियों से बेहतर स्थिति में हैं। लेकिन कुछ संदिग्ध एनजीओ, एक खास एजेंडा के तहत काम करने वाले वेबसाइट, घोर राष्ट्र विरोधी मुल्ला और ईसाई धर्म प्रचारक देश में भय का वातावरण निर्मित कर रहे हैं।
बीते कुछ समय के दौरान कई गिरिजाघरों पर हमले हुए। उन्हें सांप्रदायिकता का चश्मा पहनकर देखने की कोशिश हुई। पर जांच के बाद मालूम चला कि वे सब सामान्य आपराधिक मामले थे। तो फिर क्यों भारत की सैकड़ों साल पुरानी धर्मनिरपेक्ष परम्परा पर सवालिया निशान खड़े किए जा रहे हैं?
सच में बहुत अफसोस होता है कि प्रो.इरफान हबीब सरीखा इतिहासकार संघ की तुलना आईएसआईएस जैसे खूंखार संगठन से करता हैं। ये शर्मनाक हैं। दरअसल हैरानी इस लिए होती है कि बुद्धिजीवियों का एक धड़ा दादरी हिंसा पर तो घडि़यालू आंसू बहाता है लेकिन देश के अन्य राज्यों में हो रहीं साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं पर वे चुप्पी साध लेते हैं। पश्चिम बंगाल में आए दिन जिहादियों द्वारा हिन्दुओं पर अत्याचार किए जाते हैं लेकिन इन पर बुद्धिजीवियों कुछ भी बोलना पसंद नहीं करते।
पश्चिम बंगाल में 3 मई,2015 को जिहादियों द्वारा जुरानपुर में ऐसी ही हिंसा की घटना हुई। जिहादियों द्वारा हिन्दू परिवार के तीन लोगों की बड़ी ही बेरहमी से हत्या कर दी गई। इस पूरी घटना में तृणमूल पार्टी के विधायक मोहम्मद नसरुद्दीन अहमद ने हत्यारों को शह दी। लेकिन इस पूरे भयावह घटनाक्रम को राष्ट्रीय चैनल या समाचार पत्र ने स्थान देना उचित नहीं समझा। दादरी पर चीख-पुकार मचाने वाला कोई बुद्धिजीवी नहीं बोला। असल में इन कथित बुद्धिजीवियों का उद्देश्य केन्द्र की राजग सरकार को अस्थिर करना है। इससे मिलती-जुलती एक घटना विगत 3 मई,2015 को बर्द्धमान जिले में हुई। अनसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के किसानों का एक जत्था जुरानपुर पंचायत के नौदा गांव में एक मंदिर में जा रहा था। वे अपने साथ में पूजा की सभी सामग्री लिए हुए थे। लेकिन इन पर जिहादियों ने बेरहमी से हमला कर दिया। जिहादियों ने इन पर बम भी फेंके। अगले दिन जब सभी भक्त जुरानपुर के लिए प्रस्थान कर रहे थे तो रास्ते में पड़ने वाली एक मस्जिद से मुसलमानों ने घात लगाकर एक समूह में उनपर हमला कर दिया। इस हमले में स्थानीय हमलावरों के अलावा बड़ी संख्या में बाहरी उन्मादी भी शामिल थे, जिनका एकमात्र उद्देश्य आतंक फैलाना था। इन उन्मादियों ने जमकर हिन्दुओं पर अत्याचार किए, लेकिन हिन्दुओं की सहायता के लिए न पुलिस और न न ही स्थानीय प्रशासन सामने आया। केरल में संघ के कार्यकर्ताओं पर लंबे अरसे से हमले हो रहे है। लेकिन मजाल है कि किसी ने इसका विरोध किया हो।
कश्मीरी पंडितों के साथ कश्मीर घाटी में जो कुछ हुआ उससे पूरा देश वाकिफ है। करीब साढ़े लाख कश्मीरी पंडित अपनी आबरू और जान बचाने की खातिर घाटी छोड़ने को मजबूर हुए। पर तब इरफान हबीब की जुबान सिल गई थी। उन्होंने उन पंडितों के हक में एक बार भी आवाज बुलंद नहीं की। जो लेखक आजकल अपने सरकारी सम्मान वापस करने का नाटक कर रहे हैं, देश उनसे जानना चाहता है कि कशमीर घाटी के हिन्दुओं की दुर्दशा और कत्लेआम पर इन्होंने कभी अपने पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए। पंडित नेहरु की भांजी नयनतारा सहगल की भी आंखें कश्मीरी पंडितों के दमन पर कभी नम नहीं हुईं। वह तो मूल रूप से कश्मीरी पंडित ही हैं। बेशक, देश में अहम सवालों पर स्वस्थ बहस होनी चाहिए। ये जम्हूरियत के लिए बेहतर है। लेकिन देश को अकारण संकट में धकेल दिया जाए इसे आप कैसे उचित मान सकते हैं।