क्यों सेक्युलरवादी नहीं पोंछते पीडि़तों के आंसू -आर के सिन्हा

आर के सिन्हा ।  छद्म धर्मनिरपेक्ष बिरादरी इन दिनों खूब हल्ला मचा रही है। वह पिछले कई दिनों से दो मुद्दों पर भारत सरकार से लेकर पूरे हिन्दू समाज को कोस रही है। दिल्ली के निकट ग्रेटर नोएडा के दादरी में गोमांस खाने की अफवाह के कारण एक व्यक्ति की पीट- पीटकर हत्या की घटना को अंजाम दे दिया गया। जाहिर है, सारा देश इस घटना से शर्मसार है। इसकी चैतरफा निंदा भी हो रही है। पर, कथित धर्मनिरपेक्ष बिरादरी इतने से ही संतुष्ट नहीं है। उसे इस घटना कारण भारत के किसी कट्टरपंथी इस्लामिक राष्ट्र बनने की आशंका सता रही है। ये हिन्दुवादी संगठनों से लेकर केन्द्र सरकार को कोस रहे हैं। हालांकि घटना उत्तर प्रदेश की है, लेकिन; ये राज्य सरकार के खिलाफ एक शब्द भी बोलने से बच रहे हैं। कानून-व्यवस्था राज्य सरकार की जिम्मेदारी है, ये सेक्युलरवादी इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं। सूचना प्राप्त होने पर भी पुलिस समय से क्यों नहीं पहंुची, यह कोई नहीं पूछ रहा और ये नेपाल में नए संविधान के लागू होने के बाद पड़ोसी देश के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनने से खुश हैं। यहीं नहीं, ये तत्व नेपाल को लेकर भारत की विदेश नीति की भी निंदा कर रहे हैं। आरोप लगा रहे हैं कि भारत नेपाल के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहा है। ये इस बात को भूल गए कि नेपाल में कुछ माह पहले आए जलजले में नेपाल को सबसे पहले मदद देने के लिए भारत सरकार ने हाथ बढ़ाया था।

पर, दादरी हादसे को लेकर सेक्युलर बिरादरी जिस तरह से सोशल मीडिया पर एक्टिव हुई है और मोमबती मार्च निकाल रही है, उससे इनका असली चेहरा सामने आ रहा है। इन्होंने संघ के कार्यकर्ताओं के केरल और असम में इस्लामिक कट्टरपंथियों और उग्र वामपंथियों द्वारा लगातार कत्ल की घटनाओं पर कभी स्यापा नहीं किया। ये कभी असम या पूर्वोत्तर राज्यों में हिन्दी भाषियों के मारे जाने पर भी विचलित नहीं हुए। इनके आका जैसे नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी ने पहले कभी किसी कत्लेआम के बाद साहित्य अकादमी सम्मान वापस नहीं किया। मैं तो अशोक वाजपेयी जी को सलाह दूंगा कि वे साहित्य सम्मान वापस करने के साथ-साथ अपनी सरकारी पेंशन का भी तुरन्त त्याग कर अपनी विष्वसनीयता का परिचय भी दे ही डालें।

आपको याद होगा कि अभी कुछ समय पहले ही तो ये सेक्युलर बिरादरी मुंबई बम धमाकों के गुनहगार याकूब मेनन के हक में खड़ी थी। बेशर्मी के साथ उसको फांसी की सजा दिए जाने के विरोध में देश की न्याय व्यवस्था को पत्थर मार रही थी। इन्हें पीडि़तों के आंसू नहीं दिखते। ये अपने को गुजरात दंगा पीडि़तों का हितैषी होने का दावा करने वाली तीस्ता सीतलवाड़ के पक्ष में भी खड़े हो जाते हैं। जरा देखिए कि जिस मुंबई सीरियल बम धमाकों के गुनहगार याकूब मेनन को अदालत की तमाम प्रक्रियाओं को पूरी करने के बाद फांसी की सजा सुनाई थी, उसे बचाने के लिए ये सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे। अब सोशल एक्टिविस्ट बनने का दावा करने वाली तीस्ता सीतलवाड़ की भी बात कर लीजिए। तीस्ता खुद को 2002 में गुजरात में भड़के दंगों का पीडि़त बताती है जबकि उसपर अपने एनजीओ के लिए गैर- कानूनी तरीके से विदेशों से भारी भरकम चंदा लेने का आरोप है जिसकी सीबीआई द्वारा जांच भी की जा रही है। तीस्ता पर बेहद संजीदा आरोप के बावजूद तथाकथित धर्मनिरपेक्ष बिरादरी और मानवाधिकार संगठन उसका समर्थन करते नहीं अघा रहे।

 दादरी कांड के मामले में जाहिराना तौर पर सियासत की रोटी सेंकी जा रही है और इसे जबरन मजहब से जोड़ा जा रहा है। यह देश के मुस्लिम युवाओं को गुमराह करने और खुद को मुसलमानों का रहनुमा साबित करने की सोची समझी साजिश है। ये वास्तव में बेहद खतरनाक खेल खेला जा रहा है।

इसके विपरीत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने-पिलाने वाले इस वर्ग ने कभी उर्दू पत्रकार शिरिन दलवी का साथ नहीं दिया। शिरिन दलवी पर आरोप है कि उन्होंने ‘‘अवधनामा’’ के मुंबई संस्करण में फ्रांसीसी व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्डो के कवर को अपने अखबार में छापा। वे अपनी भूल के लिए माफी मांग रही है। इसके बावजूद उनके ऊपर करीब आधा दर्जन केस दर्ज हो चुके हैं। उस दीन-हीन मुस्लिम महिला पत्रकार के हक में कोई सेक्युलरवादी बोलने को तैयार नहीं है। जरा इनके दोहरे मापदंड तो देखिए।

 साफ है कि देश में अपने को प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष ताकतों का हिमायती कहने-बताने वाले संगठन और लोग किस तरह से काम करते हैं। कुल मिलाकर याकूब मेमन, तीस्ता सीतलवाड़ और दादरी के मामलों में कुछ ताकतें सुनियोजित शडयंत्रपूर्वक देश का अहित कर रही हैं। सरकार को इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। गंभीरतापूर्वक लेना चाहिए।

ये सेक्युलरवादी खुद तय कर देते हैं कि कब धर्मनिरपेक्षता खतरे में है और कब सुरक्षित है। ये नेपाल के धर्मनिपेक्ष राष्ट्र घोषित होने से गद्गद् है, पर बांग्लादेश में बीते कुछ समय के दौरान हिन्दू ब्लॉगरों के कत्ल से इन्हें कोई असर नहीं हुआ। ये बांग्लादेश में हिन्दू ब्लॉगर अविजित रॉय की निर्मम हत्या और उनकी पत्नी के ऊपर हुए जानलेवा हमले के बावजूद चुप रहे। इस घटना के बाद भी वहां पर कई हिन्दू ब्लॉगरों पर हमले होते रहे। बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं के लिए स्पेस जीवन के सभी क्षेत्रों में घट रहा है। पर मजाल है कि भारत के सेक्युलरवादियों ने उनके हक में कभी मोमबती मार्च निकाला हो।अविजित रॉय बांग्लादेश मूल के अमेरिकी नागरिक थे। वे हिन्दू थे। वे और उनकी पत्नी बांग्लादेश में कट्टपंथी ताकतों के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे थे, अपने ब्लॉग के जरिए। पाकिस्तान में तो हिन्दुओं की जिस तरह की दिल-दहलाने वाली हालत है, उसे यहां पर बयां करने का कोई मतलब ही नहीं है। सारी दुनिया को वहां पर हिन्दुओं, ईसाइयों और अन्य अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे जुल्मों-सितम की जानकारी है। लेकिन हमारे सेक्युलरवादी मौज में हैं। ये तो अपनी सुविधा के अनुसार सड़कों से लेकर सोशल मीडिया पर उतरते हैं। देश को इनसे न केवल सावधान रहना होगा बल्कि, उनका उन्हीं की भाशा में मुंहतोड़ जवाब भी देना होगा।