आर.के.सिन्हा, सांसद (राज्य सभा) । सारे देश में त्योहारों के चलते उत्साह और उल्लास का माहौल है। हालांकि, वाराणसी में बीते दिनों गणेश प्रतिमाओं के विसर्जन को लेकर एक दुर्भाग्यपूर्ण पर गैर-जरूरी विवाद खड़ा किया गया। इसे टाला जा सकता था I पुलिस को एक्शन लेना पड़ा। बहुत से लोग घायल हुए। यह दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है। दरअसल, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने साल 2013 में गंगा में मूर्तियों के विसर्जन पर रोक लगा दी थी। इसके साथ ही कोर्ट ने सरकार को मूर्तियों के विसर्जन के लिए कोई दूसरी वैकल्पिक व्यवस्था करने के लिए भी कहा था । कोर्ट के फैसले से कुछ लोग और साधु नाराज थे। इनमे से कुछ साधुओं और उनके चेलों पर “कांग्रेसी-साधू” होने को आरोप रामजन्म भूमि आन्दोलन के समय से ही लगता रहा है I हालांकि, कोर्ट के फैसले का स्वागत होना चाहिए था। निरंतर मैली होती गंगा-यमुना और सैकड़ों नदियों को साफ करने के लिहाज से ये अहम फैसला था। इसे तो देशभर में लागू करने की जरूरत है।
देश की नदियों में गणेशोत्सव से लेकर दुर्गा पूजा और काली पूजा तक लाखों मूर्तियों को नदियों और समुद्र में विसर्जित किया जा रहा है। अब ये किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि इन मूर्तियों को नदियों में विसर्जित करके हम इन्हें और कितना गंदा कर रहे हैं। देखिए दोनों बातें तो एक साथ नहीं चल सकती। एक तरफ हम नदियों को साफ करने का संकल्प लें, दूसरी ओर इन्हें किसी न किसी बहाने भिन्न-भिन्न तरीकों से गंदा करते रहें। पर्यावरणविद और नदियों को सफाई करने की दिशा में जुझारू प्रतिबद्धता से लगे हुए जानकार नदियों-समुद्र में मूर्ति विसर्जन की परम्परा पर विराम लगाने की पुरजोर मांग कर रहे हैं। अब इस मांग से समूचे भारतीय समाज को अपने को जोड़ना होगा।
एक दौर में मूर्तियां मिट्टी की बनती थीं। उन पर स्वाभाविक वनस्पतियों से बने रंग किए जाते थे। पर अब तो ये मूर्तियाँ पत्थर, प्लास्टिक, फाइबर, ग्लास, अन्य रासायनिक वस्तुओं तथा भारी धातुओं की भी बनने लगी हैं। कुछ मूर्तियां पत्थर से भी बन रही हैं। उन पर खतरनाक जानलेवा रसायनों से तैयार रंग किए जाते हैं। और ये सब अंतत: नदियों में ही पहुंचते हैं। पर्यावरण के क्षेत्र में सक्रिय “टाक्सिक लिंक” नाम की संस्था के मुताबिक, हर साल भारत में करीब एक लाख से ज्यादा मूर्तियां नदियों में विसर्जित की जाती हैं। जरा कल्पना कीजिए कि इतनी मूर्तियों के नदियों में जाने से उनके साथ हम कितना अन्याय कर रहे हैं। इनके नदी और समद्र में मिलने से इनका जल कितना प्रदूषित होता है,ये अब साफ है। इससे जलजीवों का जीवन भी खतरें में पड़ गया है और डोल्फिन, घड़ियाल, सोंस, कछुए आदि तो समाप्तप्राय से हो गए हैं I
मुझे याद है कि कुछ साल पहले केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने दुर्गा पूजा की मूर्तियों के हुगली नदी में विसर्जित करने के असर पर एक आंखें खोलने वाला अध्ययन किया था। उसके मुताबिक, हर साल दुर्गा पूजा के अंत में करीब 15 हजार मां दुर्गा की मूर्तियां हुगली में विसर्जित की जाती हैं। इसके चलते नदी में करीब 17 टन वार्निश और बड़ी मात्रा में रंग हुगली के जल में मिलता है। इन रंगों में मैगनीज,सीसा, क्रोमियम
जैसे धातु मिले होते हैं। इस अध्ययन का एक निष्कर्ष ये भी निकला कि दुर्गा पूजा के बाद हुगली में जहरीले तेल और ग्रीस की मात्रा में भारी इजाफा हो जाता है।
कायदे से तो इलाहाबाद हाई कोर्ट की जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अरुण टंडन की बेंच का गंगा और यमुना नदियों में मूर्तियों के विसर्जन करने पर रोक लगाने संबंधी फैसला देशभर के लिए नजीर बनना चाहिए था। अफसोस है कि ये नहीं हुआ।
वाऱाणसी में हालिया बवाल इसी फैसले के विरोध में हो रहा था। जिसे नहीं होना चाहिए था। हर इंसान को कोर्ट के फैसले को मानना होगा। नहीं तो देश में अराजकता वाले हालात पैदा हो जाएंगे। आपको याद होगा कि कुछ साल पहले तक दुर्गा पूजा के दौरान ही नदियों में मूर्तियों को विसर्जित किया जाता था। लेकिन, अब एक नया ट्रेड ये देखने में आ रहा है कि गणेशोत्सव के समय भी उत्तर भारत में भी हजारों मूर्तियों को नदियों में विसर्जित किया जाने लगा है। पहले गणेशोत्सव महाराष्ट्र और कुछ दूसरे निकटवर्ती राज्यों तक सीमित था। अब इसने भी अखिल भारतीय स्वरूप ले लिया है। इस बार दिल्ली में गणेशोत्सव के दौरान हजारों गणेश प्रतिमाएं यमुना में विसर्जित हुईं। चंदेक बरसों पहले तक “ोत्सव के दिल्ली में पांच-सात जगहों पर ही आयोजन होते थे। बहरहाल, पहले गणेशोत्सव फिर दुर्गा पूजा और काली पूजा के बाद मूर्तियों के नदियों में विसर्जित करने से गंगा, यमुना और दूसरी नदियों को हम पूरी तरह से नष्ट कर रहे हैं। यमुना तो अब एक बदबूदार नाले में तब्दील हो चुकी है।
पहले एक दुर्गा पूजा से बमुश्किल डेढ़-दो हजार लोग ही जुड़ते थे। वे ही समस्त आयोजन को देखते थे। लेकिन अब तो दुर्गा पूजा के आयोजनों की संख्या हर साल बढ़ती ही जा रही है। यानी कि अब मूर्तियों का नदियों में विसर्जन बढ़ता जा रहा है। इससे पहले कि देवी-देवतों की मूर्तियों को नदियों में विसर्जित करने का सिलसिला थमे, बेहतर होगा कि स्थानीय प्रशासन ये तो सुनिश्चित कर ही लें कि मूर्तियों को विसर्जित करने से पहले उन्हें पहनाए गए सारे वस्त्रों तथा विभिन्न धातुओं से बने गहनें उतार लिए जाएं। इस नियम का कठोरता से पालन हो। भक्तों को समझना होगा कि अगर हम प्रकृति का ही सम्मान नहीं कर सकते, तो हम ईश्वर का सम्मान कहां से करेंगे।
अगर बात गंगा की करें तो इसके किनारे देश की 43 फीसद आबादी बसी हुई है। यह विश्व का अधिकतम मानव घनत्व वाला क्षेत्र है। ऋशिकेश, हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, पटना, भागलपुर, कोलकाता जैसे कई महत्वपूर्ण और बड़े-बड़े नगर गंगा के किनारे बसे हुए हैं। इन नगरों में सैकड़ों कल कारखाने हैं। इनसे निकलने वाला सारा कचरा और अनुपयुक्त केमिकल सब गंगा में ही जाता है। उसके बाद मूर्तियां भी इसमें डाली जाती हैं। इसके बाद क्या हमें गंगा सफाई को लेकर कोई आंदोलन चलाने का कोई उद्देश्य बच जाता हैं ?
पिछले साल कानपुर के पास मकर संक्रांति के दिन गंगा नदी में सौ से ज्यादा लाशें मिलीं। तब मालूम चला कि कुछ समुदायों के लोग मृतकों को जलाने के बदले लाशें नदी में बहा देते हैं। इन सब परम्पराओं को बंद करना ही होगा गंगा को बचाने के लिए और गंगा की अविरल यात्रा को अनवरत जारी रखने के लिए। इसे बचाने के लिए भगीरथी प्रयास की आवश्यकता है।
एक बात समझ लेनी चाहिए कि नदियों को साफ करना सिर्फ सरकारों का ही दायित्व नहीं हो सकता। इस कार्य में समाज की भागेदारी भी जरूरी है। इसलिए अब समाज के जाग जाने का वक्त भी आ गया है। देखा जाए तो इसमें अब काफी देरी हो चुकी है। अब और विलंब नहीं होना चाहिए।
सरकारें तो गंगा,यमुना और दूसरी नदियों को साफ करने को लेकर गंभीर हैं। अगर बात गंगा की करें तो बीते तीन दशकों में चले तीन बड़े अभियानों की विफलता से सरकार ने सबक सीखा है। लिहाजा, सरकार ने गंगा सफाई परियोजना को सरकारी के बजाय सामाजिक बनाना तय किया है। सरकार चाहती है कि गंगा को हमेशा स्वच्छ बनाए रखने का जिम्मा इसके किनारे रहने वाले और इसकी आस्था में लगे लोग खुद ही संभालें।
बेशक, गंगा और दूसरी नदियों को लेकर हमने शत्रुओं वाला व्यवहार किया है। हां, कहने को तो गंगा और दूसरी नदियों को भारत में सिर्फ नदी के रूप में ही नहीं देखा जाता। ये भारतीय जनमानस की आस्था तथा आध्यात्मिकता की प्रतीक भी है। पर,लगता है कि ये सब बनावटी बातें हैं। हम एक तरफ इन्हें पूज्नीय मानते हैं,दूसरी तरफ गंदा करके इसका अपमान करने से भी बाज नहीं आते।
गंगा के सामने संसार की कोई भी नदी नहीं ठहरती। खास तौर पर उसके द्वारा पोषित आबादी के मुकाबले में। वेदों में कहा गया है कि गंगा के स्मरण और दर्शन मात्र से समस्त पाप धुल जाते हैं। उसके जल का आचमन करने और उसमें स्नान करना हजारों तीर्थ करने के बराबर है। पर, अफसोस कि हमने सदियों से गंगा का अनादर किया है। अब तो हरिद्वार के बाद से ही गंगा की गुणवत्ता प्रभावित होने लगती है। पर, जरा देखिए कि करोड़ों लोगों की आस्था की प्रतीक हमारी नदियां अब बदबूदार नाला बनती जा रही हैं।
ऐसा नहीं है कि गंगा और दूसरी नदियों को साफ करने के लिए सिर्फ सरकार ही पहल कर रही है। संगम तट पर जब साधु-संतों ने गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर विचार-विमर्श किया तो एक तथ्य यह भी आया कि गंगा तट पर बने मंदिरों के फूलों से भी प्रदूषण बढ़ रहा है। स्वामी नरेन्द्र गिरि ने तय किया कि अब हनुमान जी के चरणों में समर्पित फूल संगम में नहीं डालेंगे। समस्या थी कि इन फूलों का क्या किया जाए? साधु-संतों से विचार-विमर्श में सुझाव आया कि फूलों से खाद बनाई जाए। खाद बनाने वाले विशेषज्ञों से बातचीत के बाद खाद बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इसी प्रकार, बुलंदशहर जिले की एक पंचायत ने यह फैसला लिया है कि पंचायत में किसी भी महिला-पुरुष की मृत्यु हो जाती है तो उसका शवदाह गंगा तट पर नहीं करके गाँव की खेत में ही किया जायेगा और अस्थियों को भी विसर्जित करने की बजाए खेत के मेड पर या किसी कोने में गड्ढा खोदकर अस्थियों को दबा दिया जायेगा और मृतक के नाम पर वृक्षारोपण किया जाएगा I
जहाँ से गंगा और दूसरी नदियां गुजरती हैं, वहां पर पर्यटन और मनोरंजन उद्योग को भी बढ़ावा दिया जाए। लंदन में टेम्स नदी और काहिरा में नाइल नदी के आसपास और हमारे पडोसी टापू देश सिंगापुर में सिंगापुरा नदी के तट पर सुन्दर पर्यटन स्थल विकसित किए गए हैं। यह सब हम क्यों नहीं कर सकते।
बेहतर होगा कि भारतीय समाज इसी विजयदशमी से ही नदियों में मूर्तियों के विसर्जन पर रोक लगाए। इन्हें साफ रखने का बीड़ा उठाएं। एक बार हम कोशिश तो करें। सफलता मिलेगी। नदियां जब अविरल बहेंगी तभी उनको निर्मल करने का सपना भी साकार हो सकेगा।
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