भारतीय राजनीति की सबसे मजबूत मानी जाने वाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी मजबूत विपक्ष के सामने पहली बार ढेर होती दिखी। इस हार ने इस जोड़ी के भारतीय राजनीति में हमेशा अजेय रहने के मिथक को भी धो डाला। इससे पहले गुजरात में लगातार चुनाव जीतने, लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत जैसा असंभव लक्ष्य और तीन राज्यों में विधानसभा चुनावों में फतह से अजेय होने का मिथक बना था।
लोकसभा चुनाव के दौरान बतौर प्रभारी उत्तर प्रदेश में रिकॉर्डतोड़ जीत दिलाने और इसके बाद चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित प्रदर्शन में अहम भूमिका निभाने के कारण मोदी-शाह की जोड़ी भारतीय राजनीति के रुपहले पर्दे पर लगातार सुपरहिट साबित हो रही थी। चूंकि इस जोड़ी ने लोकसभा और चार राज्यों के विधानसभा चुनाव की तरह दिल्ली चुनाव की भी रणनीति तय की थी, इसलिए देर सबेर इस जोड़ी की कार्यशैली पर सवाल खड़े हो सकते हैं।
मोदी-शाह की जोड़ी की इस पहली हार ने अब तक मुर्झाए हुए विपक्ष में भी नई ऊर्जा भर दी है। इस जोड़ी का सामना अब तक कमजोर� विपक्ष से हुआ था। आप के रूप में मजबूत विपक्ष के सामने आते ही इस जोड़ी को हार का मुंह देखना पड़ा। चूंकि इस चुनाव में भी इस जोड़ी ने रणनीति, टिकट वितरण जैसे अहम मामलों में किसी की न चलने दी, इसलिए हार को सीधे सीधे इस जोड़ी की कार्यशैली से भी जोड़ कर देखा जा रहा है।
बाहरी नेताओं से रही नाराजगी
दिल्ली इकाई के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक दरअसल यह चुनाव दिल्ली के नेता और कार्यकर्ता नहीं बल्कि बाहरी नेता लड़ रहे थे। पार्टी में फिलहाल कोई इस जोड़ी के खिलाफ मुखर नहीं है। लेकिन पार्टी के एक शीर्ष नेता ने इसे भाजपा की नहीं बल्कि अहंकार की हार बताया। उक्त नेता के मुताबिक अहंकार की हार इसी तरह लज्जापूर्ण और भयावह होती है। पूरे चुनाव में न तो प्रचार के तरीके की समीक्षा हुई और न ही नेतृत्व ने नाराज स्थानीय नेताओं-कार्यकर्ताओं को मनाने में दिलचस्पी ही दिखाई।
केजरीवाल की सुनामी के आगे संघ का बूथ प्रबंधन का दांव भी भाजपा के काम नहीं आया है। शायद संघ भी दिल्ली की सियासी हवा को भांपने में नाकाम रहा है। उसकी तमाम कोशिश के बावजूद भगवा दल की शर्मनाक हार हुई है। दिल्ली के दंगल में उसके एक लाख कार्यकर्ता भी भाजपा की फजीहत को बचा नहीं पाए।
हालांकि संघ प्रमुख मोहन राव भागवत ने पीएम मोदी को पहले ही कह दिया था कि वह केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी को हल्के में न लें। बावजूद उसके भाजपा ने समय रहते उचित कदम नहीं उठाए। अंत में परिवार की फजीहत बचाने के लिए संघ को अपने स्वयंसेवक चुनाव में झोंकने पडे। लेकिन परिणाम बताते हैं कि संघ के स्वयंसेवक भी बेअसर रहे हैं। पार्टी की परंपरागत सीटों पर भाजपा को हार झेलनी पड़ी है।
पीएम मोदी समेत भगवा परिवार की साख पर बन आए इस चुनाव को बचाने के लिए शाह ने संघ से कार्यकर्ताओं की फौज मांगी थी। संघ ने इसके लिए ही एक लाख कार्यकर्ता भी राजधानी में उतारे मगर वे भी भाजपा के पक्ष में माहौल खड़ा नहीं कर पाए। भगवा परिवार के नायक मोदी पर केजरीवाल की सुनामी भारी पड़ी है। वैसे संघ ने अपने मुखपत्र के जरिये चुनाव के बीच में ही जता दिया था कि दिल्ली का दंगल आसान नहीं है। बेदी को चेहरा बनाने के मामले पर उसने भाजपा से सवाल भी दागे थे। लेकिन बीच रण में सेनापति बदलना भाजपा के लिए भी उचित न था। प्रदेश भाजपा नेताओं की नाराजगी और अमित शाह की रणनीतिक विफलता उसके कानों तक भी पहुंच रही थी। मगर ऐसे परिणामों की आशंका संघ को भी सपने में नहीं थी।