
कैबिनेट के पहले विस्तार में सदानंद गौड़ा को रेल मंत्रालय से हटा दिया गया। तकरीबन साढ़े पांच महीने पहले उन्हें रेल मंत्रालय की कमान सौंपी गई थी।
लगभग दो दशक बाद रेल मंत्रालय दक्षिण भारत के कोटे में आया था। गौड़ा कर्नाटक के मुख्यमंत्री के रूप में काम कर चुके थे, इसलिए उम्मीद थी वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘अच्छे दिनों’ का सपना रेलवे में भी साकार करेंगे।
रेल बजट में बुलेट ट्रेन की घोषणा छोड़ दी जाए तो बीते साढ़े पांच महीने में शायद ही ऐसी कोई उपलब्धि रही, जिसे गौड़ा पूर्व रेल मंत्री के रूप में याद रखें।
मसलन, गौड़ा के कार्यकाल में ही रेल किरायों में 15 फीसदी से अधिक बढोत्तरी की गई। तत्काल कोटे के टिकटों में प्रिमियम किराये जैसी योजना भी गौड़ा के कार्यकाल में ही लागू हुई ।
ये फैसले अलोकप्रिय जरूर रहे, लेकिन ऐसा कतई नहीं था कि ये मोदी सरकार के एजेंडे के खिलाफ थे।
मोदी सरकार ने रेल किरायों की बढोतरी की सफाई में घाटे की रोना रोया और सुविधाजनक रेल यात्रा का सपना दिखाया था। गौड़ा ने फैसलों को बखूबी लागू भी कराया। फिर क्या वजह थी मोदी सरकार का फरमाबरदार होने के बाद भी गौड़ा को हटा दिया गया?
सूत्रों की मानें तो प्रधानमंत्री मोदी, सदानंद गौड़ा के ढीलेढाले रवैये से खुश नहीं थे।
तकरीबन महीने भर पहले गौड़ा ने इंडियन रेलवे पर्सनल सर्विस के एक अधिकारी को रेलवे बोर्ड की एक विशेष इकाई का प्रमुख नियुक्त किया।
गौड़ा ने इस संबंध में लिखित आदेश दिया, हालांकि इसके बाद भी अधिकारियों ने आदेश को नहीं माना और पद खाली पड़ा रहा।
सूत्रों का कहना है कि ऐसे कई मौके आए, जब गौड़ा न अपनी बात मनवा पाए और ना एजेंडे के मुताबिक काम करवा पाए। यूपीए सरकार के रेलमंत्रियों लालू प्रसाद यादव और ममता बनर्जी के साथ ऐसा कभी नहीं रहा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘अच्छे दिनों’ के एजेंडे में रेलवे की अहम भूमिका है। रेलवे में आमूलचूल बदलाव के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 30 कामों की एक सूची सौंपी थी।
प्रधानमंत्री कार्यालय हर महीने इन कार्यों की समीक्षा करता रहा, लेकिन इनमें से एक भी काम में उल्लेखनीय प्रगति नहीं दिखी।
पिछले सप्ताह आधारभूत ढांचे के विकास के लक्ष्यों के मुद्दे पर प्रधामंत्री मोदी ने एक बैठक बुलाई थी। उस बैठक में रेलवे को कड़ी फटकार लगी, जिसकी वजह रेलवे को उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन न कर पाना बताया गया।