पापुआ न्यु गिनिया की जनसँख्या लगभग 6 लाख है और वहां पे 820 भाषाएँ बोली जाती हैं, इसका मतलब लगभग हर 730 वां इंसान दुसरे की भाषा नहीं समझता तो फिर इतने छोटे से देश में लोग एक दुसरे से बात कैसे करते हैं, काम कैसे करते हैं और सोचिये कि भाषा के नाम पे वहां बखेड़ा हुआ तो क्या होगा। जान के आश्चर्य होगा कि इतने में से सब लोग अंग्रेजी जरूर जानते हैं और काम भी अंग्रेजी में होता है, इसके अलावा दो और आधिकारिक भाषाएँ हैं। अब कुछ और आंकड़े देखते हैं – तमाम अगड़े देश जापान, जर्मनी, फ्रांस, चीन, नीदरलैंड, डेनमार्क आदि सब के सब अपने देश की भाषाओँ में ही काम करते हैं, इसमें से जर्मनी, फ्रांस, जापान और चीन व्यापारिक और सामरिक आधार पे मजबूत ताकत हैं, विश्व शक्तियां हैं, पूरे विश्व में छाये हैं। लेकिन ये जब देश से बाहर निकलते हैं तो इनके काम अंग्रेजी में ही होते हैं जबकि ये सभी देश इंग्लैंड से कहीं ज्यादा हर मामले में ताकतवर हैं। एक समाचार चैनल पे UPSC के परीक्षार्थियों ने बहस के दौरान कहा की अंग्रेजी गुलामी और साम्राज्यवाद की निशानी है और वो हिंदी के इस्तेमाल से भारत की ताकत बढ़ाना चाहते हैं – ये हास्यश्पद कथन है। ये अगड़े देश कभी अंग्रेज़ों के गुलाम नहीं रहे फिर भी अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं तो क्या उन्होंने अब जाके इन देशों ने अंग्रेजी का अधिपत्य स्वीकार कर लिया हैं।
अगर पूरे विश्व में अंग्रेजी छायी है तो इसका कारण ये हैं कि विश्व में बोलचाल की एक भाषा का उपयोग होना ही है। कभी विश्व के लगभग दो तिहाई देशों पे राज करने वाले अंग्रेज़ों ने सबको अंग्रेजी सिखाई जो कि आज आपसी बात करने के लिए सरल साधन बन चूका है – ये एक तरह से खाई पे पुल की तरह काम करती है। आज जब सारा संसार वैश्विक हो चूका हैं ऐसे में आप अपने कमजोरी को अंग्रेजी विरोध के नाम पे ढक नहीं सकते। कुछ लोग इसको राष्ट्रवाद से जोड़ते हैं और हिंदी के पीछे छुप के राष्ट्रवाद का जामा पहनते हैं। जबकि राष्ट्र तैयार खड़ा हो रहा हैं वैश्विक स्पर्धा के लिए , वैश्विक स्पर्धा से मजबूज होना राष्ट्रवाद का ही रूप होता है। राष्ट्र अपने पडोसी और दूर के देशों से बात करके कुछ अपनी कह के और कुछ दुसरे की सुन के ही आगे बढ़ता है इसलिए उतना अंग्रेजी तो जरूरी ही है। आम आदमी अगर इस अंग्रेजी को न जाने तो कोई बात नहीं क्यों की घरेलु काम, बोलचाल और व्यवहार के लिए देश की भाषा का उपयोग ही सर्वोत्तम है। लेकिन प्रशासनिक सेवाओं में लगे लोगों का काम है देश को विश्व पटल पे स्थापित करना और इनका हिंदी के पीछे छुप जाना कत्तई शोभा नहीं देता।
देश की आज़ादी के इतने वर्षों के बाद अगर हिंदी को मजबूत करने के कोई उपाय नहीं हुए और अगर हुए भी तो वो कागज़ी कार्यवाही ही साबित हुए। तो ऐसे में एक इम्तेहान में अंग्रेजी में प्रश्न पूछे जाने से भी हिंदी को कोई फर्क नहीं पड़ता। राष्ट्रवाद के नाम पे अंग्रेजी का विरोध और हिंदी के पीछे छुपना कायरता और सच्चाई से भागना हैं। पहले हिंदी को इस लायक तो बनाइये कि वो इस वैश्विक प्रतिस्पर्धा के युग में अपना कोई स्थान बना पाए। इसका जिम्मा भी तो इन नौकरशाहों का ही है क्यों की शिक्षा के बड़े महकमे भी तो यही संभालते हैं। इतने महान ही हैं ये प्रशासनिक अधिकारी तो आज सरकारी विद्यालयों के हालात बद से बद्तर क्यों हो गए। ऐसा कौन सा महान काम इन बड़े बाबुओं ने कर डाला कि स्पेन जाके आप हिंदी में बात कर सकें या ताइवान से आया कोई उपकरण को चलाने की पुस्तिका हिंदी में भी आई हो। इन्होने इतने प्रयास भी नहीं किया कि भारत इतना बड़ा उपभोक्ता बाजार है तो अरबों के आयातित उपकरण को चलाने के लिए अनुदेश पुस्तिका में एक हिंदी भाषा भी हो।
तो हिंदी के पीछे छुपकर राष्ट्रवाद की दुहाई देने वालों और अपने अनुसार इम्तेहान देके प्रशानिक पदों पे बैठ के मलाई कूटने का मंसूबा पाले लोगों आप लोग सिर्फ और सिर्फ मौका परास्त हो, किसी भी आम स्वार्थी इंसान की तरह। अपनी जवाबदेहि देने की बजाय नेताओं के सफ़ेद कुर्ते पजामे में लगी कालिख के पीछे छुप जाने वालों आप लोग हिंदी का उत्थान कर पाओगे इसमें शक है। आप लोगों के हाथों से हिंदी का वैश्विक पहचान तो दूर आप लोगों के हाथों में तो हिंदी कत्तई सुरक्षित ही नहीं है।