1947, 1971,1992,और 2002 ..ये वो तारीखी बरस हैं जब हिंदुस्तान के मुसलमान ना सिर्फ बेचैन हुए बल्कि खुद पर हैरान भी. कुछ ऐसा ही आगाज़ 2014 से शुरू हुआ है. एक अजीब सी बेचैनी है मुसलमानों में या यूँ कहे बद्ख्याली का दौर है.
उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के गढ़ में मै तमाम मुफ्ती और मौलवियों से मिला. अमरोहा से लखनऊ और मोरादाबाद से बनारस तक. आम राय है की मोदी के आने पर मुसलमानों पर ज़ुल्म बढेगा. एक तबका ऐसा भी है जो ये मानता है की अगर मोदी आ गया तो पुरी कौम हार जायेगी इसलिए मोदी को हर सूरत से हराना है.
मुझे लगता है कि छोटे कस्बों में हाल और भी बुरा है. मुस्लिम इलाकों में हर किस्म की अफवाह है. मीडिया इस मुददे पर सही रिपोर्ट नही दे रही है. सच है की ऐसी सोच के पीछे वोट बैंक की राजनीति है और ऐसे राजनीत में मुलायम और मायावती आग में घी डाल रहे है.
मित्रों, ये लक्षण देश के लिए शुभ नही है. इस चुनाव को किसी कौम की हार और किसी की जीत की तरह देखा जायेगा तो देश की गाडी ज्यादा चलने वाली नही. दरअसल जो मुसलमानों को डरा रहें और उकसा रहे हैं वो भी देश का उतना ही नुक्सान कर रहे हैं जितना की सीमा पार की एजेंसियां करती आयीं हैं. लेकिन इस सब के परे बीजेपी को भी सोचना होगा की आखिर मुस्लमान क्यूँ कमल से परहेज़ करता है ? फ़िलहाल मै सिर्फ इतना कहूँगा की अगर मोदी आ भी रहा है तो डरिये नही…क्यूंकि डर के आगे ही जीत है
दीपक शर्मा