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धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों की हराम होती नींद और भय

अरुण कुमार त्रिपाठी।

image source:cpim.org
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जैसे जैसे आम चुनाव अंतिम चरण की ओर बढ़ रहा है और कई मध्यमार्गी और वाम झुकाव रखने वाले चैनलों के सर्वेक्षण मोदी नीत भाजपा और राजग गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिलने की भविष्यवाणी कर रहे हैं वैसे-वैसे देश के तमाम धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों की नींद हराम होती जा रही है। देश में वामपंथी बौद्धिकता का गढ़ समझे जाने वाले जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के कई शिक्षक वह जनमत संग्रह देखकर सो नहीं पाए जिसमें एनडीए को साफ बहुमत मिलते हुए दिखाया गया था। लेकिन यह भय महज वामपंथी बौद्धिकों में नहीं है। यह भय उन पत्रकारों और बौद्धिकों में भी है जो दक्षिणपंथी होने के बावजूद आलोचना के अधिकार को सुरक्षित रखना चाहते हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं है कि चाहे अमित शाह का कार्यक्रम हो या रविशंकर प्रसाद का उनसे मीडिया के भय संबंधी सवाल पूछने वाले अक्सर दक्षिणपंथी झुकाव वाले पत्रकार ही रहे हैं। हालांकि उन सभी नेताओं ने ऐसे किसी भय को निराधार बताया और रविशंकर प्रसाद ने तो जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति में हिस्सेदारी की अपनी विरासत की याद दिलाते हुए कहा कि हम तो हमेशा प्रेस और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए लड़ते रहे हैं। स्वयं नरेंद्र मोदी ने भी घोषणा पत्र जारी करते हुए कहा था, “मैं मेहनत में कोई कसर नहीं छोड़ूंगा। मैं कुछ भी बुरे इरादे से नहीं करूंगा। मैं अपने लिए कुछ नहीं करूंगा।‘’ इतना ही नहीं वे अपने कई इंटरव्यू में यह भी कह चुके हैं कि उनसे किसी को डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन उसी के साथ जब वे कहते हैं कि कुछ लोगों को डरने की जरूरत तो है फिर उस डर की सिहरन दौड़ जाती है जो लगातार देश में दौड़ रही है।

इस भय की सबसे बड़ी वजह तमाम अतियों पर लड़ा जाने वाला यह चुनाव है। एक तरफ गिरिराज सिंह जैसे लोगों के बयान हैं जो नितांत स्थानीय होने के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर जगह पा जाते हैं तो दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल और एक एंटनी के बारे में दिए गए नरेंद्र मोदी के बयान, इकबाल मसूद और उनके जवाब में दिए गए वसुंधरा राजे के बयान, मुजफ्फरनगर दंगों पर अमित शाह के बयान और सीधे हमला करने वाले आजम खान के बयान आने वाले समय में उथल पुथल का संकेत दे रहे हैं। अगर इन बयानों को वोट बटोरने वाले तमाशे मान कर छोड़ दिया जाए तो भी गंभीर बौद्धिक जगत में जिस तरह की पेशबंदी चल रही है उसे देखते हुए साफ लग रहा है कि आपसी संवाद और मेलमिलाप की जो उदार जमीन थी, उस पर लगातार अतिवादियों की तरफ से अतिक्रमण होता जा रहा है। इस बारे में साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता तमिल लेखक जोय डी क्रूज व्दारा फेसबुक पर मोदी की तारीफ करने के बाद उनके चर्चित उपन्यास—कोरकाई– के अंग्रेजी संस्करण को छापने से प्रकाशक के इनकार करने से दूसरी तरफ की प्रतिक्रिया के भी संकेत मिलते हैं।

10176033_733325566711767_4799079541860456532_nयह पहला मौका नहीं है कि भारत में बौद्धिक कर्म अपने दायरे को सिकुड़ते हुए महसूस कर रहा है। इससे पहले वह इंदिरा गांधी के जमाने में और कांग्रेस के लंबे शासन काल में भी बंदिशों का अहसास करता रहा है। उस दौर में कई अति वामपंथी लेखकों ने अपनी किताबों को प्रतिबंधित होते हुए भी पाया। यहां तक कि बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की किताब भी प्रतिबंधित हुई। अभिव्यक्ति की आजादी पर आपातकाल में जो पाबंदी लगी उसने देश के बौद्धिकों को भीतर तक हिला दिया। यही वजह है कि जब आपातकाल हटा तो दक्षिणपंथी से लेकर वामपंथी सभी लेखक और पत्रकार अपनी अभिव्यक्ति की आजादी के लिए अतिरिक्त संवेदनशील हो गए और जरा सी खुरखुराहट होने पर तलवार निकालकर तैयार हो जाते हैं। कहा जा सकता है कि आपातकाल के बाद इस देश के मीडिया और तमाम बौद्धिक वर्ग ने लगभग 25 वर्षों तक अपनी आजादी का ऐसा तानाबाना खड़ा किया कि उसमें देश न सिर्फ लोकतांत्रिक महाशक्ति बनने के सपने देखने लगा बल्कि उसने जाति और धर्म की जंजीरों में जकड़े उत्तर भारत में विकास और खुलेपन के पक्ष में एक तरह का नवजागरण भी पैदा किया। इस बीच कई कट्टर और दकियानूसी ताकतें भी उभरीं लेकिन इस देश का उदार विमर्श इतना विस्तार पा गया कि कट्टरवादी ताकतें उससे भय खाने लगीं। मीडिया के प्रौद्योगिकी संबंधी विस्तार और सूचना के अधिकार की उपलब्धि ने अभिव्यक्ति को नया आसमान दिया। इस दौरान कट्टरवादी ताकतों ने उदारवादी विमर्श पर सिलसिलेवार हमले किए और सबसे बड़ा हमला नवउदारवादी ताकतों ने उन लोगों पर किया जो किसी आर्थिक विकल्प की बात सोचते थे और व्यापक समाज समानता के संघर्ष को उससे जोड़ कर देखते थे।

इसका सबसे जबरदस्त उदाहरण आशीष नंदी जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के उदार औऱ मौलिक बौद्धिक पर कभी सांप्रदायिक तो कभी जातिवादी हमले किए जाना है। उससे भी बड़ा सवाल उनके बचाव के लिए बौद्धिकों का आगे आने की बजाय दुबक कर हट जाना रहा है। बौद्धिकों के इस व्यवहार का एक पक्ष `अपना सिर बचाने और दूसरे के सिर को बेल समझने’ के मुहावरे को चरितार्थ करना है। लेकिन बौद्धिकों के इस भय का दूसरा पक्ष उनका लगातार सत्तामुखी और सुविधाभोगी होते जाना है। मोटे तौर पर वामपंथी और दक्षिणपंथी दो खेमों में बंटा भारत का बौद्धिक अपनी-अपनी अतियों में अभिव्यक्ति की आजादी की समर्थक नहीं है।

अगर दक्षिणपंथी बौद्धिक यह हुंकार भर रहे हैं कि देश को एक मजबूत नेतृत्व और सख्त प्रशासन चाहिए और अराजकतावादियों को दुरुस्त किया जाना चाहिए तो दूसरी तरफ अतिवामपंथी भी यह दावा कर रहे हैं कि राष्ट्र के क्षितिज पर उभर रही ताकतों का मुकाबला सूफी संतों और कबीर का भजन गाकर नहीं किया जा सकता। उसका मुकाबला सिर्फ स्तालिनवादी रास्ता अख्तियार करने से ही हो सकता है। सांप्रदायिक और जातिवादी न होने के बावजूद और यह मानने के साथ ही कि पूंजीवाद ही अभिव्यक्ति की असीम आजादी देता है, तमाम दक्षिणपंथी बौद्धिक भी पूंजीवाद की आलोचना को बेहद सीमित कर देना चाहते हैं।

दूसरी तरफ वामपंथी बौद्धिक जब स्तालिन तक सोचते चले जाते हैं तो उनका भी इरादा अपनी आलोचना का गला घोंटना ही होता है। इसके बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अभिव्यक्ति की मुख्यधारा में सक्रिय लोगों में भी एक तरह का भय है और इसे व्यक्त करते समय वे अपना नाम उजागर करने का साहस नहीं रखते। इस भय को पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के आरंभ में मशहूर लेखक यू आर अनंतमूर्ति ने ज्यादा तीखे ढंग से व्यक्त किया था और यह लगभग वैसा ही भय है जैसा दुनिया के सबसे ताकतवर लोकतंत्र अमेरिका में जार्ज डब्लू बुश के दूसरे कार्यकाल में नोम चामस्की और सुसांग शुटांग जैसे बौद्धिकों ने प्रकट किया था।

अरुण कुमार त्रिपाठी, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।
अरुण कुमार त्रिपाठी, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।

पर इसका इलाज क्या महज भय व्यक्त करते जाने में है या उस परंपरा की तलाश करने में है जिसने अभिव्यक्ति की आजादी को कायम किया और उस पर जब जब खतरा आया तो आगे बढ़कर खड़ी हुई है। वह परंपरा एक उदार परंपरा है और जो अपने में दक्षिणपंथ और वामपंथ दोनों को समेटे हुए है। वह इस देश की लोकतंत्र की मौलिक परंपरा है जो हमारे यहां यूरोप की तरह हिटलर और मुसोलिनी पैदा होने से रोकती है और साथ ही पाकिस्तान,  बांग्लादेश और म्यांमार जैसे पड़ोसी देशों की तरह धर्म आधारित राज्य और सैन्य शासन कायम होने में भी अवरोध पैदा करती है। वह परंपरा इस देश की लोकतांत्रिक परंपरा है जिसके कारण न तो यहां सर्वहारी की तानाशाही कायम हो पाई और न ही हिंदुत्व की। जनता के विवेक और भारत की दीर्घ बौद्धिक परंपरा को देखकर यह सहज विश्वास होता है कि जब भी कुछ अनर्थ होगा तो यहां की जनता कोई विकल्प देगी। पर यहां फिर दिक्कत उन बौद्धिकों से है जो महज भय पैदा करते हैं और जब मौका मिलता है तो विचार और कर्म के स्तर पर लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष विमर्श को बढ़ाने से चूक जाते हैं। तभी इस देश के राष्ट्रनिर्माण में सभी समुदायों के योगदान की व्याख्या करने वाला न तो बहुलतावादी विमर्श विकसित हो पाता है, न ही विकास का समावेशी स्वरूप। इसकी स्पष्ट वजह है देश के बौद्धिकों का लगातार जनता से कटते जाना और सत्ता और राजनीतिक दलों का प्रवक्ता बनते जाना।

जाहिर है देश में अभिव्यक्ति और विमर्श की लोकतांत्रिक आजादी न तो भयभीत होने से बचेगी, न ही तीखी प्रतिक्रियाएं करने से। उसके लिए संयम भी चाहिए और संवाद भी। इस देश के बौद्धिकों और मीडिया कर्मियों को बार-बार जनता के पास जाना होगा और लोकतांत्रिक संस्थाओं से संवाद करना होगा। संभव है तीखे विचारों की आंच से लोकतंत्र और खरा होकर निकले।


NCR Khabar Internet Desk

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