मणिपुर की बलात्कार-पीड़िता का केस जब से शुरू हुआ है तब से दो चीजें प्रमुख देखने में आई हैं। पहली तो यह कि इस प्रकरण में जिस किसी ने भी पीड़िता के पक्ष में आवाज़ उठाई है उन सब पर आरोपी के साथियों ने व्यक्तिगत ओछे वाचिक आक्रमण किए हैं व कर रहे हैं…. फिर भले वे आशुतोष कुमार हों या गीताश्री या अनीता भारती या मैत्रेयी पुष्पा या स्वयं मैं। फेसबुक पर नंगी तलवारें लेकर घूमने वालों संगठित अपराधियों का आतंक पसरा है इन दिनों, जो लेखकों पर निरन्तर आक्रमण कर रहे हैं।
दूसरी चीज जो देखने में आई है वह इसके परिणाम स्वरूप है। इन चार-पाँच दिनों में भारत-भर से मुझसे संपर्क करने वाली लड़कियों, महिलाओं व पुरुषों का क्रम ही नहीं थम रहा। वाईबर पर, ईमेल पर, whatsapp पर, इनबॉक्स में, फोन पर सबको उत्तर देते देते मैं लगभग थक गई हूँ। इनकी यदि पाण्डुलिपि बनाई जाए तो एक पुस्तक जितनी सामग्री तो केवल इनबॉक्स में एकत्र हो चुकी है। ऊपर से मेरे दोनों बेटे इन दिनों एक-साथ ज्वरग्रस्त हैं और स्वयं मैं एक छोटी-सी सर्जरी के बाद बिस्तर पर हूँ। ऐसे में मुझ पर दबावों की कल्पना आप सहज कर सकते हैं।
एक बात जो इन सब संपर्क करने वालों में समान है वह यह है कि लड़कियाँ बेहद बुरी तरह भयभीत है और बड़े से लेकर छोटे नामों, सामाजिक कार्यकर्ता बने लोगों, अखबार वालों, संपादकों-रिपोर्टरों, लेखकों अध्यापकों आदि सब के प्रति उनके मन में बेहद असुरक्षा भर गई है वे निरन्तर आतंकित हैं कि फेसबुक आदि सोशल मीडिया ने जो साहस उन्हें दिया था ( कि वे बिना पुरुषों आदि किसी की कृपा लिए और उसके बदले उनकी शर्तों के दबाव न मानने व अपनी बात कहने से वंचित होने की अपेक्षा इस माध्यम पर अपनी बात कह पाती थीं) उस से अब डरने लगी हैं और इस नंगे आतंक का सामना नहीं कर सकतीं। वे इस प्रकरण में लेखक-लेखिकाओं-पत्रकारों आदि के रुख से भयभीत आतंकित ही नहीं हैं, अपितु स्तब्ध और हाथ मलती रह जाने की स्थिति में भी अनुभव कर रही हैं, मानो एक स्थान उन्हें मिला था अपनी बात कहने को, अब वहाँ भी उन्हें फाँसी लगाने की तैयारी है।
मैं इस स्टेटस के माध्यम से सब लड़कियों को कहना चाहती हूँ कि वे कृपया डरें नहीं। संसार का कोई कानून आपको अपनी बात कहने से नहीं रोक सकता जब तक आपका कोई अपराध न हो। सोशल मीडिया पर यह जो संगठित अपराध जैसा आतंक इन दिनों धूर्तों ने फैला रखा है, उस से विचलित होने की आवश्यकता नहीं है, न डरने घबराने व हट जाने की। “सत्यस्याsपिहितम् मुखम्” सत्य लाख पर्दों में ढका हुआ है किन्तु वह एक दिन अवश्य जीतता है। अपराध करने वाले देर तक गरजते चमकते रहें किन्तु असत्य, अपराध और अन्याय कभी विजयी नहीं होते, बुराई दंभ, अहंकार और झूठ का अंत सदा बुरा ही होता है। उनकी उच्छृंखलता ही उन्हें ले डूबेगी जो आज आतंक की तलवारें लिए मद में चूर दूसरों को ललकार रहे हैं।
बच्चियो ! तुम डरना-घबराना नहीं। जानती हूँ तुम्हारे भरोसे टूटे हैं और जिन पर तुम्हें अपनी आवाज संसार तक पहुँचाने का भरोसा था उन लोगों के असली रंग दिखाई देने के बाद तुम सब आहत हो, पर अब भी कुछ लोग तुम्हारे साथ हैं, मैं तुम्हारे साथ हूँ, सदा रहूँगी। अपनी बात हर तरह से कहो, अपने प्रति प्रत्येक अन्याय का प्रतिकार करो, अंत तक लड़ो, जूझती रहो पर थकना-रुकना नहीं। इसी तरह लोगों के असली चेहरे पहचान पाओगी, उनके नकाब उतार पाओगी और संसार को अन्यायियों का असली घिनौना रूप दिखा पाओगी।
न्याय भले देर से मिले और हो सकता है कभी भी न मिले, किन्तु इस बात से टूटना या हतोत्साहित कदापि मत होना। अन्याय को अन्याय ही कहना और खूब ज़ोर से कहना। लड़ कर जीत न सके तो क्या ; चीख कर अन्यायियों धूर्तों व अपराधियों के कान के पर्दे तो फाड़ ही सकते हैं हम ! यह भी हमारी जीत ही है ! साहस बनाए रखो मेरी बच्चियो !!