पोलिंग बूथों पर वोटरों की लंबी कतार की तस्वीरें एक स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है। परंतु बेहतर लोकतंत्र को प्रतिबिंबित करते इन दृश्यों का रोमांच तब काफूर हो जाता है जब यही कतार राशन-किराशन और पानी के टैंकरों के पीछे दूगनी होती दिखती है। एक दिनी रोमांच को पूरे पांच साल तक भुगतती आम अवाम लगातार ठगी गई है। ऐसे में प्रासंगिक है कि विकल्पों को तवज्जो मिले।
इतिहास गवाह है कि दिल्ली ने कांग्रेस और भाजपा के अलावे कभी किसी दल को गंभीरता से नहीं लिया। अण्णा के विशुद्द गैर राजनैतिक आंदोलन की पृष्ठभूमि में उकरे अरविंद केजरीवाल की गंभीर राजनैतिक पार्टी, आम आदमी पार्टी ने जिस मजबूती से इन दो प्लेयर्स को चुनौती दी है वह दिलचस्प तो है ही, एक वृहद राजनैतिक करवट की आहट भी है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणामों में केजरीवाल की ताकत को सीटों की गिनती के बल पर किया जाना तस्वीर का मात्र एक पहलू होगा। केजरीवाल सिर्फ चुनावों तक सीमित नहीं रहेंगे।
अगस्त 2011 में जनलोकपाल आंदोलन के मंच से उठती अभूतपूर्व जनभावनाओं को नजरअंदाज कर कांग्रेसी सरकार ने अपनी मंशा साफ कर दी थी। उसने अपने रवैये से स्पष्ट कर दिया था कि सरकार 272 के गणित पर चलती है और लाखों की भीड़ उसका कुछ नही बिगाड़ सकती। कांग्रेस की इसी जिद का प्रतिरोध है अरविंद केजरीवाल। अण्णा के गैर राजनैतिक आंदोलनों की कुंद होती ताकत का विकल्प है अरविंद केजरीवाल। खुद कभी भी राजनीतिज्ञ नहीं होना चाहते थे अरविंद।
परंतु आज जो लोग अरविंद के राजनीतिज्ञ होने की आलोचना कर रहे हैं वे याद करें कि कांग्रेस के सर्वोच्च पंक्ति के नेता कपिल सिब्बल, जयराम रमेश, रेणुका चौधरी, दिग्विजय सिंह के वो बयान जिसमे उन्होने आंदोलन का कैसा मजाक बनाया था। हर दूसरे दिन चुनौती दी जा रही थी की “अगर व्यवस्था बदलना चाहते हैं तो राजनीति में आयें, सांसद बनें, विधायक बने”, “राजनीति में आने से क्यों डरते हैं आंदोलनकारी”। चूँकि राजनीति की गंदगी से हर वह शख्स वाकिफ था और जानता था कि साफ-सुथरे लोग कभी इस प्लेटफार्म पर आकर उन्हें चुनौती नही देंगे। अण्णा आंदोलन के कुंद होते ही अण्णा का पूरा कुनबा ही बिखर गया, क्योंकि हर शख्स को देश से अधिक अपनी छवि अधिक प्रिय थी। ऐसे में जिस शख्स ने हिम्मत दिखाई वह सिर्फ अरविंद ही थे।
अरविंद के राजनैतिक प्रतिरूप का विरोध करने वाले यह बतायें कि जनप्रतिरोध की भावनाओं का जो ध्रुवीकरण अण्णा के आंदोलन के कारण सामने आया उसने व्यावहारिक रूप से व्यवस्था में क्या परिवर्तन किया? शून्य, शून्य और सिर्फ शून्य।
तब अहंकारी सता की दमनकारी नीतियों से अण्णा आंदोलन राख में तब्दील हो गई थी। अब यदि उस राख से एक चिंगारी लेकर अरविंद ने एक मशाल बना ली है तो इसमें गुनाह क्या है? यह सब उन्होने अपने बल-बूते किया है। पिछले 11 महीने या ज्यादा समय से अरविंद या आप के स्वंयसेवकों ने दिल्ली की गलियों, कालोनियों, मलीन बस्तियों और सार्वजनिक पार्कों में जाकर जो काम किया है वह अभूतपूर्व है। और जो राजनीतज्ञ पैसों से वोट खरीदने की ताकत पर इतराते थे वे पहली बार अपनी जमीं खोते दिख रहे है। इसी डर का प्रतिफल है कि अरविंद पर आरोप दर आरोप लगाकर उन्हें बदनाम करने की साजिश रची जा रही है।