मुजफ्फरनगर दंगे को लेकर अखिलेश सरकार पहले से ही कटघरे में खड़ी है। ऐसे हालात में एडीजी कानून व्यवस्था अरुण कुमार ने प्रतिनियुक्ति का आग्रह कर सरकार की मुश्किलें बढ़ा दी हैं।
एक हफ्ते मुजफ्फरनगर में रहकर दंगे को नियंत्रित करने में उनका अहम रोल रहा, लेकिन कवाल से बिगड़ी फिजां को समझने में एडीजी से भी चूक हो गई।
कवाल में 27 अगस्त को छेड़छाड़ प्रकरण में मृतक शाहनवाज और ममेरे भाइयों गौरव एवं सचिन की हत्या हुई। दो समुदायों में तनाव बढ़ा। राजनीतिक हस्तक्षेप से रात में ही डीएम सुरेंद्र सिंह और एसएसपी मंजिल सैनी को चार्ज छोड़ने के लिए कह दिया गया।
सीएम के निर्देश पर अगले ही दिन एडीजी अरुण कुमार नए एसएसपी सुभाष चंद दुबे को हेलीकॉप्टर में साथ लेकर आए। आते ही एडीजी का बयान था कि कवाल की वारदात अप्रत्याशित है।
नए अधिकारियों की टीम अगले 10 दिन में निष्पक्षता का विश्वास पैदा करेगी। कवाल की चिंगारी ने पूरे जिले को अंदरूनी तौर पर कैसे चपेट में ले लिया था, यह एडीजी समझ नहीं पाए।
नफरत के दहकते शोलों को डीएम और एसएसपी के तबादले ने और हवा दे दी। नए अफसरों की टीम का हर दांव उलटा पड़ने लगा। अगले 10 दिन में सुधार क्या होता, पूरा जिला दंगे की चपेट में आ गया।
एसएसपी दुबे जमीनी हकीकत को समझ नहीं पाए और अपनी कार्यप्रणाली को लेकर विवादित हो गए। दंगे के बाद उन पर गिरी गाज यही साबित करती है। 28 अगस्त को एडीजी ने सवा घंटा जानसठ के डाक बंगले पर समीक्षा की। कवाल में वह केवल 20 मिनट ही रहे। घटनास्थल का मुआयना किया।
कुछ जनप्रतिनिधियों से मिले और लौट गए। एडीजी से यहीं चूक हुई, पूरा जिम्मा नए डीएम और एसएसपी पर छोड़ दिया गया। इस दौरान धारा 144 के बावजूद खालापार और नंगला मंदौड़ तीन पंचायतें हो गईं।
खालापार में तो डीएम-एसएसपी खुद ज्ञापन लेने पहुंच गए। इस बीच डीजीपी देवराज नागर भी घूम गए। नफरत अंदर ही अंदर ज्वालामुखी बन चुकी थी। सात सितंबर के दंगे के बाद एडीजी अरुण कुमार को फिर आना पड़ा।
हालात इस कदर बेकाबू हो गए कि सेना को बुलाना पड़ा। एसएसपी से लेकर डीजीपी तक की कवायद बवालियों ने एक झटके में ही ध्वस्त कर दी।